Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ जिनभाषित (जनवरी २००९) के सम्पादकीय 'वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त' का समीक्षात्मक अध्ययन पं० सनतकुमार विनोदकुमार जैन माननीय पं० सनतकुमार विनोदकुमार जी जैन का 'गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ' शीर्षक से एक लेख जनवरी २००९ के जिनभाषित में प्रकाशित किया गया था और उसे आधार बनाकर मैंने अपना सम्पादकीय लेख 'कर्मसिद्धान्त और वास्तुशास्त्र' भी उक्त अंक में लिखा था, जिसमें यह सिद्ध करनेवाले अनेक आगमप्रमाण प्रस्तुत किये थे कि आज के जैनवास्तुशास्त्री वास्तुशास्त्र के प्रतिकूल एवं अनुकूल गृहों में निवास के जो अपमृत्यु-अनपमृत्यु, कुलक्षय-कुलरक्षा, धनक्षय-धनरक्षा आदि हानि-लाभ बतलाते हैं, वे जिनोपदिष्ट नहीं हैं। उक्त प्रतिष्ठाचार्यद्वय ने अपने मत के समर्थन में आगमप्रमाण प्रस्तुत करने का दावा करते हुए उपर्युक्त शीर्षकवाला एक लेख पुनः भेजा है। उनके लेख को प्रकाशित करना आवश्यक है, क्योंकि पाठकों को यह पता चलेगा कि जैनवास्तुविदों के पास वास्तुशास्त्रसम्बन्धी उपर्युक्त हानिलाभों को सत्य सिद्ध करनेवाले जिनोपदिष्ट प्रमाण क्या हैं? लेख लम्बा है, इसलिए मैं लेख से चुनकर केवल वे ही उक्तियाँ उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मूलभूत हैं और विचारणीय हैं। साथ ही उन पर सम्पादकीय टिप्पणी देकर वस्तुस्थिति का भी प्रदर्शन कर रहा हूँ। इसके अतिरिक्त 'जैनगजट' के प्रख्यात पूर्व सम्पादक, अन्तःराष्ट्रीयख्यातिप्राप्त, जानेमाने विद्वान् प्राचार्य पं० नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का भी एक लेख प्रकाशित किया जा रहा है, जिससे यथार्थ के निर्णय में पर्याप्त सहायता मिलेगी। __मैंने अपेक्षा की थी कि मेरे लेख के प्रत्युत्तर में अनेक जैन वास्तुशास्त्री दिगम्बरजैन आर्षगन्थों से वे उद्धरण प्रस्तुत करेंगे, जिनमें यह स्वीकार किया गया हो कि वास्तुशास्त्र के अनुकल और प्रतिकूल घर में रहने से उपर्युक्त इष्ट और अनिष्ट घटनाएँ घटित होती हैं। किन्तु अभी तक एक मात्र लेख उपर्युक्त प्रतिष्ठाचार्य-बन्धुओं का ही प्राप्त हुआ है। इसके लिए मैं उनका धन्यवाद करता हूँ। सम्पादक : रतनचन्द्र जैन १. वर्तमान में जैनाचार्य-प्रणीत स्वतन्त्र वास्तुशास्त्र | विद्या का उपदेश दिया। इस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों भले उपलब्ध न हो, किन्तु जैनागम के अनेक ग्रन्थों | में अनेक अध्यायों का विस्तार था, तथा उसके अनेक में वास्तुशास्त्र का वर्णन प्राप्त होता है। यथा- | भेद थे। "थलगया णाम तेत्तिएहि चेव पदेहि २०९८९२०० | तिलोयपण्णत्ती में ९७८ से ९८१ गाथा तक एवं भूमिगमणकारणमंतमंत-तवच्छरणाणि वत्थुविज्जं भूमि- | प्रतिष्ठापाठ (आचार्य जयसेन प्रणीत) में १३५-१३६ संबंधमण्णंपि सुहासुहकारणं वण्णेदि।" (धवला/पुस्तक | श्लोकों में वास्तुविद्या-निर्देशित अनेक विद्याओं का वर्णन १/ पृष्ठ ११४)। प्राप्त होता है। इस प्रकार जैनागम के अनेक ग्रन्थों में वास्तुविद्या का वर्णन दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग वास्तुविद्या का वर्णन सरलता से प्राप्त हो रहा है। फिर के पाँचवे अधिकार 'चूलिका' के २०९८९२०० पदों में | इसे 'जिनभाषित नहीं है' कहना कहाँ तक उचित है? किया है। इन ग्रन्थों के लेखक कौन आचार्य प्रामाणिक हैं एवं कौन विश्वकर्ममतं चास्मै वास्तुविद्यामुपादिशत्। अप्रामाणिक, इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। यदि अध्यायविस्तरस्तत्र बहुभेदोऽवधारितः॥ २२॥ भट्टारक लेखक हैं, तो उनके चरित्र पर भले ही अंगुली (आदिपुराण भाग १, अध्याय १६) | उठा लें, किन्तु उनके ज्ञान को रेखांकित नहीं किया जा अर्थात् अनंतविजय पुत्र के लिए उन्होंने (भगवान् | सकता है। ऋषभदेव ने) सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की । २. कर्म भी परद्रव्य हैं, वे सुख-दु:ख के कर्ता अगस्त 2009 जिनभाषित 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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