Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ भट्टारक ने इधर-उधर के अनेकों श्लोकों को लेकर तथा बीच-बीच में कुछ स्वयं रचित श्लोकों का समावेश करके ( यह ग्रन्थ) रचा है ।" ( श्रावकाचारसंग्रह / भाग ४ / ग्रन्थ और ग्रन्थकार परिचय / पृष्ठ ४०-४१)। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि उपर्युक्त श्रावकाचारों में जिस वास्तुशास्त्र का वर्णन है वह पूर्वरचित दिगम्बरजैन ग्रन्थों से गृहीत नहीं है, अपितु श्वेताम्बरजैन ग्रन्थों एवं अजैन ग्रन्थों से ग्रहण किया गया है। इस प्रकार चूँकि वास्तुनिर्माण के नियमों और उनके पालन उल्लंघन से उत्पन्न सुपरिणामों दुष्परिणामों की दिगम्बरजैन ग्रन्थों में कोई चर्चा नहीं हैं, अतः सिद्ध है कि उपर्युक्त प्रतिष्ठाचार्यों ने वास्तु के जिन नियमों की चर्चा की है और उनके अनुकूल या प्रतिकूल निर्मित भवन में रहने से जो लाभ और हानियाँ बतलायी हैं, वे सब अजैनशास्त्रों पर आधारित हैं धवला एवं जयधवला टीकाओं में ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि को परसमय अर्थात् अजैनशास्त्र कहा गया है। इसके प्रमाण मैंने जिनभाषित (जून, २००९) के सम्पादकीय लेख में दिये हैं । कर्मोदय के निमित्त रूप में वास्तु का नाम ही नहीं जैनकर्मसिद्धान्त में कहा गया है कि कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से होता है तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड (गाथा ७२, ७६, ७७) में प्रत्येक कर्म के उदय के छोटे से छोटे निमित्तभूत द्रव्य का भी कथन किया गया है जैसे, भैंस के दही, लहसुन, खली आदि के सेवन को निद्रादर्शनावरण के उदय का निमित्त विचित्रवेशधारी (बहुरुपिया) आदि के दर्शन को हास्यकर्म के उदय का निमित्त, सिंह आदि भयानक वस्तुओं के दर्शन को भयकर्म के उदय का निमित्त, स्त्रीशरीर और पुरुषशरीर के दर्शन को पुरुषवेद एवं स्त्रीवेद के उदय का निमित्त, इष्ट-अनिष्ट (प्रिय-अप्रिय) अन्न-पान, वस्त्राभूषण आदि को साता - असातावेदनीय कर्मों के उदय का निमित्त बतलाया है। किन्तु जिस वास्तुशास्त्रानुकूल और वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृहवास को बड़े जोर-शोर से मनुष्य के सभी लौकिक सुख-दुःख, सम्पन्नता विपन्नता, अपमृत्यु- अनपमृत्यु, धनक्षय धनवृद्धि, कुलक्षय कुलवृद्धि और पारिवारिक तथा सामाजिक शान्ति अशान्ति का प्रबल और प्रमुख कारण आज बतलाया जा रहा है, जिस पर अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं, पत्रपत्रिकाओं में लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं, वास्तुदोषों के निवारण हेतु परामर्शदाता वास्तुविशेषज्ञों की बाढ़ आ रही है, उसका जैन- कर्मसिद्धान्त में नाम भी नहीं लिया गया है। उसे किसी भी कर्म के उदय का निमित्त या नोकर्म नहीं कहा गया है। इससे सिद्ध है कि वास्तुशास्त्र के अनुकुल या प्रतिकूल गृह में निवास किसी भी कर्म के उदय का निमित्त नहीं है। कर्मोदयजनित कार्य का साधक द्रव्य ही कर्मोदय का निमित्त कोई भी ऐसा-वैसा द्रव्य कर्मों के उदय का निमित्त नहीं होता, अपितु जिस द्रव्य में जिस कर्म के उदय से होनेवाले कार्य को सिद्ध करने का गुण होता है, वही उसके उदय का निमित्त होता है । जैसे. पुरुष के पुंवेदकर्म के उदय उदीरणा से जो मैथुन क्रिया होती है, उसे स्त्रीशरीर ही सिद्ध करता है, कोई चट्टान, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि नहीं, इसलिए स्त्रीशरीर ही पुरुषवेद के उदय का निमित्तभूत द्रव्य होता है। भयकर्म के उदय से जो भयोत्पत्तिरूप कार्य होता है, वह सिंह आदि भयानक द्रव्यों के सान्निध्य से ही सिद्ध होता है, अतः भयकर्म के उदय में सिंह आदि भयानक द्रव्य निमित्त होते हैं, गाय, भैंस, मयूर, हंस आदि द्रव्य नहीं इसी प्रकार सातावेदनीय के उदय से इन्द्रियों और मन को जो सुखानुभूति रूप कार्य होता है, उसकी सिद्धि इन्द्रियों और मन को आह्लादित करनेवाले स्वादिष्ट, सुन्दर, कर्णप्रिय, मृदु और सुगन्धित अन्न-पान वस्त्राभूषण, संगीत आदि पदार्थों की उपलब्धि से होती है, अस्वादिष्ट, असुन्दर, अकर्णप्रिय, रूक्ष आदि पदार्थों की उपलब्धि से नहीं। इसलिए कोई भी भवन सुन्दर, सुविधामय और स्वास्थ्यानुकूल होने पर तो सातावेदनीय के उदय से होनेवाले सुखानुभूतिरूप कार्य का साधक होता है, किन्तु उसके रसोईघर, स्नानघर, शयनकक्ष, अध्ययनकक्ष, आदि का वास्तुशास्त्रानुकूल दिशा में स्थित होना स्वादिष्ट, सुन्दर, कर्णप्रिय, Jain Education International For Private & Personal Use Only अगस्त 2009 जिनभाषित 22 www.jainelibrary.org

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