Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ सम्पादकीय टिप्पणी मान्य पं० सनतकुमार विनोदकुमार जी ने उपर्युक्त लेख में षट्खण्डागम, धवलाटीका, कसायपाहुड, जयधवलाटीका, कुन्दकुन्द- साहित्य, समन्तभद्र-साहित्य, तिलोयपण्णत्ती, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धिटीका, तत्त्वार्थराजवार्तिकटीका एवं आदिपुराण आदि आर्ष ग्रन्थों से एक भी ऐसा उद्धरण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें वास्तु के नियमों का उल्लेख हो और कहा गया हो कि उन नियमों के अनुसार वास्तुनिर्माण न होने से उसके निवासियों की अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि अनिष्ट होते हैं तथा उन नियमों के अनुसार निर्मित वास्तु में निवास करने से अपमृत्यु का अभाव एवं कुलवृद्धि, धनवृद्धि आदि इष्ट कार्य सम्पन्न होते हैं। धवलाटीका और आदिपुराण में वास्तुविद्या का नामोल्लेख मात्र है, उसके नियमों और उनके पालन-उल्लंघन से उत्पन्न सुपरिणामों-दुष्परिणामों की कोई चर्चा नहीं है। अतः वे इन ग्रन्थों से कोई प्रमाण दे भी नहीं सकते थे। भट्टारकों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम से रचित कुन्दकुन्द-श्रावकाचार (१८-१९वीं शती ई० / उल्लास ८/ श्लोक ५८-९७) तथा उमास्वामी के नाम से रचित उमास्वामिश्रावकाचार (१६-१७ वीं शती ई०/श्लोक ११२-११३) में वास्तुशास्त्र का कुछ वर्णन किया गया है, किन्तु यह पूर्णतः अजैनशास्त्रों की नकल है (देखिये, श्रावकाचारसंग्रह / भाग ३ / पृष्ठ १६२ एवं भाग ४/ पृष्ठ ७५-८१)। कुन्दकुन्दश्रावकाचार की समीक्षा करते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० हीरालाल जी शास्त्री लिखते हैं- "प्रस्तुत श्रावकाचार में (रचयिता ने) स्पष्ट शब्दों के द्वारा सर्व शास्त्रों के सार को निकालकर अपने ग्रन्थ निर्माण का उल्लेख किया है (मंगलाचरण / श्लोक ८)। उनके इस कथन का जब पूर्वरचित जैन ग्रन्थों से मिलान करते हैं, तब किसी भी पूर्व रचित जैन ग्रन्थ से सार लेकर ग्रन्थ का रचा जाना सिद्ध नहीं होता है, प्रत्युत अनेक जैनेतर ग्रन्थों का सार लेकर प्रस्तुत ग्रन्थ का रचा जाना ही सिद्ध होता है।" (श्रावकाचार संग्रह। भाग ४ / ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय / पृष्ठ ५२ / जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर / ई० सन् २००३)। पं० हीरालाल जी शास्त्री ने पादटिप्पणी में उद्धरण देकर स्पष्ट किया है कि कुन्दकुन्दश्रावकाचार का 'वास्तुशुद्धि-प्रकरण' श्वेताम्बर वास्तुशास्त्री परमजैन चन्द्राङ्गज ठक्कुर फेरु द्वारा रचित 'वास्तुसार-प्रकरण' (जो स्वयं अनेक श्वेताम्बर जैन एवं अजैन शास्त्रों पर आधारित है), श्वेताम्बरमुनि श्री मेघविजयगणि-विरचित 'वर्ष प्रबोध', हिन्दूग्रन्थ 'वाराहसंहिता' (कुन्दकुन्द श्रावकाचार / उल्लास ८/श्लोक ८), 'विश्वकर्म प्रकाश', 'अग्निपुराण', 'समरांगण' आदि ग्रन्थों की नकल करके रचा गया है। इसीलिए इसमें में) अरहन्त के अतिरिक्त महेश, सूर्य, वासुदेव, और ब्रह्मा के प्रति भी विनय दर्शाने के लिए कहा गया है। यथा-"अरहन्तदेव की ओर पीठ, महेश और सूर्य की ओर दृष्टि, वासुदेव की ओर वाम अंग तथा ब्रह्मा की ओर दक्षिण अंग नहीं करना चाहिए।" (उल्लास ८/ श्लोक ९३)। उमास्वामी- श्रावकाचार के विषय में पं० हीरालाल जी शास्त्री ने लिखा है- “उमास्वामी के नाम पर किसी भट्टारक ने इस श्रावकाचार की रचना की है। --- इस श्रावकाचार में --- श्वेताम्बर-योगशास्त्र, 'विवेकविलास'--- के अनेक श्लोक ज्यों के त्यों अपनाये गये हैं और अनेक श्लोक शब्दपरिवर्तन के साथ रचे गये हैं। श्वेताम्बर योगशास्त्र के १५ खर-कर्मवाले श्लोक भी साधारण से शब्दपरिवर्तन के साथ ज्यों के त्यों दिये गये हैं।" (श्रावकाचार-संग्रह / भाग ४ / ग्रन्थ और ग्रन्थकारपरिचय / पृष्ठ ३८-३९)। शास्त्री जी आगे लिखते हैं- "इस श्रावकाचार (श्लोक १३६-१३७) में २१ प्रकार के पूजन के वर्णन में आभूषणपूजन और वसनपूजन का भी उल्लेख किया गया है। यह स्पष्टतः श्वेताम्बरपरम्परा में प्रचलित मूर्तिपूजन का अनुकरण है, क्योंकि दिगम्बरपरम्परा में कभी भी वस्त्र और आभूषणों से पूजन करने का प्रचार नहीं रहा है।--- इस श्रावकाचार के श्लोक १०० से १०३ तक के ४ श्लोक श्वेताम्बरीय (ग्रन्थ) 'आचारदिनकर' से लिये गये ज्यों के त्यों पाये जाते हैं। (इन श्लोकों में विभिन्न परिमाणवाले जिनबिम्ब को पूजने के शुभ-अशुभ फल का वर्णन है)। --- इन सब कारणों से यही सिद्ध होता है कि किसी 21 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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