Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ आज का वास्तुशास्त्र : पुनर्चिन्तन की आवश्यकता प्राचार्य, पं० नरेन्द्रप्रकाश जैन मन्त्र-तन्त्र, टोना-टोटका, पंथवाद (तेरह-बीस), । से उबर ही नहीं पाता है, इसी का नाम पराधीनता सरागदेवपूजा, वास्तुविद्या आदि को हम संवेदनशील विषयों | है। दवा तभी तक ग्रहणीय है, जब तक रोग शान्त न की श्रेणी में गिनते हैं। इन पर विगत में जमकर वाद- | हो। स्वस्थ होने पर भी दवा की लत पड़ जाए, तो विवाद होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। इन विषयों | उसे राग का विकार मानना चाहिए। आज तो अधिक पर सर्वमान्य सम्मति न तो अब तक बन पाई है और | प्राप्ति की आशा में भले-चंगे स्वस्थ-समृद्ध होते हुए भी न कभी बनती हुई दिखती है। जैनागम में इनके नामोल्लेख | लोगों को वास्तु के नित नए-नए प्रयोग करते हुए देखा एवं कुछ सांकेतिक विवरण तो मिलते हैं, किन्तु अधिक | जा रहा है। किसी चमत्कार की आशा में लोग मंत्रविस्तार नहीं मिलता है। इधर के कुछ वर्षों में इन विषयों | तंत्र, सरागदेवपूजा और वास्तु के बंधन से मुक्त होने पर अनेक प्रकाशित ग्रन्थ समाज के सामने आए हैं। की इच्छा ही खो चुकते हैं। उन्हें पढ़कर लगता है कि उनमें अमुक-अमुक की | युवा विद्वान् भाई सनतकुमार जी विनोदकुमार जी डायरियों, जैनेतर शास्त्रों और स्वकल्पना से आधार लेकर | जैन हमारे आत्मीय एवं स्नेह-पात्रों में से एक हैं, वे और नई-नई बातें गढ़कर मिलावट बहुत हुई है। कुशल प्रतिष्ठाचार्य होने के साथ ही रचनात्मक लेखन अल्पज्ञानी एवं ढुलमुल श्रद्धानी शारीरिक सुख तथा | में संलग्न रहते हैं। प्रायः चिन्तनपूर्वक लिखते हैं। कई मनोनुकूल सुविधाएँ पाने या जुटाने की लालसा में इनकी | पूजा-पाठों, विधानों एवं संस्कृत सूत्रों के हिन्दी अनुवाद ओर आकर्षित होते रहे हैं। आध्यात्मिक उत्कर्ष में ये | प्रस्तुत कर उन्होंने जिनवाणी-रसिकों का बड़ा उपकार सहायक नहीं हैं। ये सभी लौकिक विषय हैं। धर्म या | किया है। अभी उनका एक आलेख, 'कर्म सिद्धान्त सिद्धांत से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। इनके | एवं वास्तुशास्त्र का समीक्षात्मक अध्ययन' शीर्षक से माध्यम से जो फलश्रुतियाँ प्रस्तुत की जाती हैं या सब्जबाग | हमारे सामने आया है। अपने आलेख में उन्होंने जैनदर्शन दिखाये जाते हैं, वे सांसारिक सुख में तो कदाचित् निमित्त | में वर्णित कार्यकारणभाव से सम्बद्ध समयसार, बन सकते हैं, किन्तु आत्मिक सुख में कदापि नहीं, | प्रमेयकमलमार्तण्ड, परीक्षामुख, सर्वार्थसिद्धि, कौन्देयआत्मसुख तो स्वाधीन होता है, पराश्रित नहीं। | कौमुदी आदि से कुछ गाथायें या अंश उद्धृत कर और यह ठीक है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी | उन्हें वास्तुशास्त्र की समीचीनता से जोड़कर प्रस्तुत किया है, अपनी प्रारम्भिक अवस्था में कर्मोदयजनित बाधाओं | है। यह शैली ठीक है और हम इसकी सराहना करते से पार होने के लिए वह परावलम्बन भी ग्रहण करता | हैं, किन्तु इस आलेख के कुछ अंशों से हमारी कतई है, ठीक उस तरह, जिस तरह एक छोटा बालक चलते | सहमति नहीं है। सहज भाव से कुछ प्रसंगों पर पुनर्चिन्तन समय गिरने से बचने के लिए तीन पहियों की लकड़ी | हो, इस अपेक्षा से हम अपने विचार यहाँ प्रस्तुत कर की गाड़ी की सहायता लेता है, किन्तु चलना आते ही | रहे हैं। गाड़ी छूट जाती है। आज वास्तुशास्त्र के नाम पर हजारों असहमति के बिन्दु हजारों नए-नए विधि-निषेध जुड़ते चले जा रहे हैं, जिनका | वर्तमान में जैनाचार्य-प्रणीत स्वतन्त्र वास्तुशास्त्र जैनागम से कोई सम्बन्ध नहीं है, केवल अपना सिक्का | उपलब्ध नहीं है। जो भी उपलब्ध है, वह प्रायः भट्टारकजमाने और दुकान चलाने के लिए उन्हें शास्त्र के नाम | प्रणीत है, इस स्पष्टोक्ति के लिए लेखक धन्यवाद के पर इधर-उधर से लेकर संकलित कर लिया गया है। | पात्र हैं, इसी के साथ लिखा है- 'भट्टारक लेखकों के व्यक्ति जीवनभर 'क्या करें और क्या न करें' की चिन्ता | चरित्र पर भले ही कोई उँगली उठा ले, परन्तु उन के अगस्त 2009 जिनभाषित 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36