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जैनदर्शन में किसी भी कार्य की उत्पत्ति में निमित्त और उपादान इन दो कारणों को मुख्यता से स्वीकार किया गया है। इनमें उपादान कारण वह कहलाता है, जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और कार्य के होने में जो सहायक हो जाता या बन जाता है, अथवा बनाया है, वह निमित्तकारण कहलाता है। जैसे अग्नि के संयोग से पानी गर्म हुआ, तो पानी की गर्मरूप परिणति में अग्नि के सहकारी कारण होने से उसे निमित्त कहा जायेगा और पानी स्वयं गर्म हुआ है इसलिए उसे उपादान कारण। इस विषय में स्वामी समन्तभद्र ने जो नियम घोषित किया है, वह ध्यान देने योग्य है। वे बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में लिखते हैं
बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं
निमित्त और उपादान
नैवान्यथा कार्यविधिश्च पुंसां
कार्येषु ते द्रव्यगतस्वभावः ।
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तेनाभिवन्द्यस्त्वं ऋषिर्बुधानाम् ॥ ६० ॥ अर्थात् हे भगवन् ! कार्यों के सम्पन्न होने में अंतरग और बहिरंग उभय उपाधियों ( कारणों) की समग्रता (पूर्णता) का होना द्रव्यगत स्वभाव है- ऐसा नियम आपने स्वीकार किया है क्योंकि अंतरंग ( उपादान) और बाह्य निमित्त की पूर्णता होने पर ही कोई नवीन कार्य सम्पन्न होता है और देखा भी ऐसा ही जाता है कि अग्नि या सूर्य अथवा बिजली आदि किसी उष्ण वस्तु के अभाव में पानी गर्म नहीं होता। ऐसा क्यों होता है ? स्वामी समन्तभद्र कहते हैं ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है और 'स्वभावोऽतर्कगोचर: ' स्वभाव में तर्क का प्रवेश नहीं है । यतः केवल एक ही कारण, निमित्त या उपादान मात्र से कार्य की उत्पत्ति होती नहीं देखी जाती, अतः एक ही कारण से कार्य की उत्पत्ति न मान, उभय कारणों से ही कार्य का होना स्वीकार करने योग्य है। हे भगवन् ! भगवन्! बुद्धिमानों द्वारा आप इसीलिए भी वन्द्य हैं कि मुक्ति प्राप्त करने में आपका उपदेश या दर्शन ही सर्वप्रथम मुमुक्षु को देशनालब्धि स्वरूप निमित्त के रूप में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अनिवार्यतः सहायक होता है।
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पं० नाथूराम डोंगरीय, इन्दौर
यह कहा जा सकता है कि अनेक बार बहुत लोग भगवान् की वाणी सुनते हैं, किन्तु सभी को सम्यग्दर्शन क्यों नहीं हो जाता । समाधान यह है कि भगवान् की वाणी सुनने पर भी जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं हुआ वे समर्थ ( उपादान) नहीं थे अर्थात् उनको दर्शनमोह का क्षयोपशम नहीं हुआ था और न विशुद्धिलब्धि ( परिणामों में कषायों की मन्दताजन्य विशुद्धि) ही प्राप्त हुई थी और न भव्यत्व भाव का विपाक ही हुआ था। साथ ही उन्हें कारणलब्धि भी प्राप्त नहीं थी, जिसके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। अतः समर्थ उपादान कारण के रूप में उन लोगों में योग्यता का अभाव होने से, दूसरे शब्दों में उनके उपादान कारण न बन सकने से, सम्यग्दर्शन रूप कार्य की उत्पत्ति न हो सकी।
एक कार्य के होने में अनेक कारण हुआ करते हैं, जिनमें उपर्युक्त अंतरंग कारण व काललब्धि का होना भी एक निमित्त है केवल बाह्य निमित्त से ही कार्य । नहीं होता ।
दूसरी बात यह है कि कोई निमित्त या उपादान कारण तभी माना जाता और कहा जाता है या कहा जाना चाहिए, जब कार्य सम्पन्न हो जाय । कार्य के उत्पन्न हो जाने पर ही यह देखा जाना चाहिए कि इसमें कौन निमित्त था और कौन उपादान कार्य के हुए बिना न कोई उपादान कहलाता है और न निमित्त। सभी वस्तुएँ पूर्ण स्वतंत्र सत्ता सम्पन्न अपने अपने ध्रुव स्वभाव में स्थित हैं, किन्तु वे सभी परिवर्तनशील भी हैं। अतः उनमें परिवर्तन या पर्यायरूप कार्य जब जैसा जहाँ होता हुआ दिखाई देता है, वहाँ उस कार्य या परिवर्तन के होने में वे स्वयं उपादान कहलाती हैं और जिन अन्य द्रव्यों से वे स्वतः या परतः प्रभावित होती हैं या अन्य द्रव्य उन (कार्यों) में सहायक होते या माने जाते हैं वे निमित्त कहलाते हैं जिनका आलंबन लेने से कार्य सिद्ध होते हैं, वे भी निमित्त की संज्ञा को प्राप्त होते हैं। जैसे किसी ग्रंथ के पठन में आँखों को चश्मे का आलंबन होना । यहाँ यद्यपि आँखों में देखने की शक्ति तात्पर्य यह कि सभी कार्यों में निमित्त और उपादान है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति चश्मे के द्वारा हुई दिखाई दोनों कारणों की समग्रता का होना सुनिश्चित है । यहाँ । देती है अतः चश्मा भी पढ़ने में निमित्त बन गया । चश्मे
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15 अगस्त 2009 जिनभाषित
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