Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ इसे सम्यक्त्ववर्धनी कहा है। मार्के की बात आप सुन | धीरे बोलते रहते हैं, उसी के माध्यम से हम बोलते लीजिये। हैं। हम को याद करने की कोई आवश्यकता नहीं, वे जिसे सम्यक्त्ववर्धनी कहा गया है, उसको आप पीछे हैं। वे आप लोगों को सुनने में नहीं आयेंगे। हमारा के लिए कारण कहोगे. तो हम इस कथन | सम्बन्ध उन्हीं के साथ है। आप लोगों का नहीं है। हमारे को सहन नहीं कर पायेंगे। क्योंकि यह कथन आपका | पास मोबाइल है, लेकिन आप लोगों के पास नम्बर है अपना है, जिनागम का नहीं। जिनागम का नाम लेकर ही नहीं। हम आप लोगों को नम्बर दे सकते हैं, उन्होंने आप कहेंगे, तो लोग तूफान खड़ा कर देंगे, ध्यान रखना, कह रखा है। लेकिन देख-परख करके देना, नहीं तो पुनः सुन लीजिये, हम बार-बार कह सकते हैं। इसमें | यूँ ही बहा दो। दुबारा कह रहा हूँ, निर्जरा तत्त्व का कोई दो राय नहीं। बार-बार कहने से हमें मुखाग्र हो | श्रद्धान यथार्थ रूप में आज नहीं है। जाता है। नोट्स लिखने की हमारी आदत नहीं है। क्या । इस प्रकार जो भी व्यक्ति बोल रहा है, उसके करें, इसी माध्यम से नोट्स बनाते रहते हैं। भी संवर और निर्जर तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान नहीं है इस क्रिया को सम्यक्त्ववर्धनी कहा है। जिस क्रिया | और न ही उसे आस्रव तत्त्व का ज्ञान है। जिसको सम्यक्त्वको आगम में सम्यक्त्ववर्धनी लिखा है, उसको आप | वर्धनी क्रिया कहा है, उसको आप लोग बंध का कारण केवल कर्मबंधनी क्रिया कहो, तो यह संवर तत्त्व और | कहते हैं। यह भी कहते हैं कि देव-शास्त्र-गुरु की पूजा निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। यह तत्त्वज्ञान नहीं | से केवल बंध ही होता है। है। इसके माध्यम से युग को विपरीत दिशा मिलती बंध तत्त्व जो होता है, वह एक प्रकार से शुद्धोपयोग है। युग को घुमाया जा रहा है, भ्रमित किया जा रहा | के विपरीत होता है। अशुद्धोपयोग शुभोपयोग और है। यह न कुन्दकुन्द स्वामी की प्रभावना है, न समन्तभद्र | अशुभोपयोगात्मक होता है। जो उपयोग बंध करा रहा स्वामी की प्रभावना है। न ही भगवान महावीर की प्रभावना है वह संवर-निर्जरा नहीं करा सकता है, यदि ऐसा प्रवचन है। हम सब कुछ देख रहे हैं, सब कुछ पढ़ रहे हैं। | दोगे तो वह आगम के विपरीत होगा। सबका समय निरर्थक व्यतीत हो रहा है। आवश्यक हो 'शुभोपयोग के द्वारा संवर-निर्जरा मानना मिथ्यात्व जाता है, तो ये सब बातें हम सुनते हैं। इसलिए सुनते | है।' इस प्रकार का कथन करनेवाला ग्रन्थ या साहित्य हैं कि जवाब भी देना पड़ता है। नहीं तो, सुने बिना | लोग फ्री में भी देते हैं, तो नहीं लेना चाहिए। कुछ जवाब कैसे देंगे? अच्छे ढंग से सुनना चाहिए। यदि चीजें ऐसी बीमारी पैदा करनेवाली होती हैं, जिन्हें लोग शास्त्र के रूप में स्वीकार करलें, तो हमारा भी अहित | मुफ्त में बाँटते हैं और उनको खा लो या पी लो, तो हो जाएगा। शास्त्र तो शास्त्र है। लेकिन अन्य शास्त्रों को आपका काम करना बंद हो जायेगा। पैसे के लोभ में पढ़कर के इस तरह से स्पष्टीकरण देता है, तो उसके | ऐसे ग्रन्थ खरीदोगे, तो फिर मैं नहीं जानता कहाँ की लिए आधार-सहित, इस प्रकार की गर्जना भी करनी यात्रा करनी पड़ जाय। हम दया करके बता रहे हैं। पड़ती है। इसको अन्यथा न ले। फिर आपकी जैसी इच्छा हो। जैसा आपका लोभ है, आप सोच रहे होंगे कि महाराज इतने जोर से | उसका फल आपको ही झेलना पड़ेगा। "महाराज! वहाँ क्यों बोल रहे हैं? यह स्वाभाविक है। जैसे सम्यक्त्व | से बिना खरीदे आ रहा है। यहाँ कोई देता नहीं है। की वर्धनी हो जाती है, उसी प्रकार दिव्यध्वनि-वर्धनी मुफ्त में मिल जाता है, तो उससे आत्मा का कुछ तो भी आ जाती है। करंट आ ही जाता है। वह कहाँ रहता | उद्धार होगा।" सुनलो, आत्मा का उद्धार पूरा होता है, है, पता नहीं। उस गद्दी का या उस सिंहासन का या | कुछ-कुछ नहीं। जब मुफ्त में दिया जा रहा है तो गड़बड़ी उस शरण लेने की महिमा का प्रभाव है। समन्तभद्र अवश्य है। कह-कह करके दिया जा रहा है। वह सही स्वामी जोर देकर के कहते हैं, घबराओं नहीं, हम पीछे | नहीं है। जिस प्रकार देव और गुरु की परख करते हो, हैं या ऊपर हैं। तुम बोलते जाओ। सूत्रधार पर्दे के पीछे | उसी प्रकार शास्त्र की परख करने के लिए भी सूत्रहोता है और वह सुनता रहता है। समन्तभद्र महाराज | ग्रन्थ लिखे गये हैं। सुन रहे हैं। हम कैसे बोल सकते हैं। पीछे से धीरे- । शेष अगले अंक में ना (२००७)' से साभार - अगस्त 2009 जिनभाषित 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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