Book Title: Jinabhashita 2009 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ वीरशासन जयन्ती : एक अद्वितीय महापर्व मुनि श्री प्रणम्यसागर जी आज से पच्चीस सौ पैंसठ (२५६५) वर्ष पहले। "रायगिहणयर-णेरयि-दिसमहिछियविउल-गिरिश्रावण कृष्णा प्रतिपदा को राजगृही नगरी के विपुलाचल | पव्वए सिद्धचारणसेविए, बारहगण परिवेड्ढिएण कहियं।" पर्वत पर अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर की दिव्य- । अर्थात् राजगृही नगरी की नैऋत्य दिशा में स्थित ध्वनि खिरी थी। दिव्यध्वनि के द्वारा ही धर्मतीर्थं की | तथा सिद्ध और चारणों से सेवित 'विपुलाचल पर्वत' पर प्रवृत्ति होती है। इसी दिन से महावीर भगवान का शासन | बारह गणों से परिवेष्टित भगवान् महावीर ने धर्मतीर्थ प्रारम्भ होता है, इसलिए यह प्रथम देशनादिवस 'वीर | का प्रवर्तन किया। शासन जयन्ती' के रूप में मनाया जाता है। हरिवशपुराण (२/६१, ६२) में भी कहा हैभगवान् महावीर का यह महान् उपाकर ह "छयासठ दिन तक मौन से विहार करते हुए, श्री वर्धमान नहीं चाहिए कि उनके अभाव में भी उनकी वाणी हमें | जिनेन्द्र जगत्प्रसिद्ध राजगृह नगर आए। वहाँ जिस प्रकार आज प्राप्त है। इस वाणी को ही जिनवाणी, वीरवाणी सूर्य उदयाचल पर आरूढ होता है, उसी प्रकार वे लोगों या द्वादशाङ्गरूप श्रुत कहते हैं। इस परम पुनीत श्रुत- | को जागृत करने के लिए विपुल लक्ष्मी के धारक ज्ञान के बिना हमें कभी इष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती। विपुलाचल पर्वत पर आरूढ हुए। आचार्य विद्यानन्दी जी ने इस महान् उपकार का वर्णन इस धर्मतीर्थ की उत्पत्ति किस समय हुई, इस इस प्रकार किया है सम्बन्ध में अनेक प्रमाण हैंअभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः, इम्मिस्सेव सप्पिणीए चउत्थकालस्स पच्छिमे भाए। स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात्। । चोत्तीस वासावसेसे किंचि विसेसूणकालम्मि। इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धे (कसायपाहुड / पु०१) नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति। (आप्तपरीक्षा) अर्थात इस अवसर्पिणी काल के दुःषम-सुषमा अर्थात् अभीष्ट फल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान | नामक चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस है। वह सम्यग्ज्ञान समीचीन शास्त्र से होता है। उस शास्त्र | वर्ष बाकी रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है। कुछ की उत्पत्ति आप्त से होती है। उनके प्रसाद से ही शास्त्र | कम से तात्पर्य यहाँ नौ दिन छह महीना अधिक से की प्राप्ति होती है। इसलिए वे आप्त प्रबुद्ध गणधर आदि | है। अतः नौ दिन, छह महीना अधिक, तेतीस वर्ष अवशिष्ट से पूज्य हैं क्योंकि किये हुए उपकार को साधु पुरुष रहने पर चतुर्थकाल में धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है। भूलते नहीं हैं। दिव्यध्वनि का यह सामय श्रावण मास के कृष्ण पक्ष वैसे 'शासन' शब्द आज्ञा के अर्थ में प्रयुक्त होता | की प्रतिपदा का प्रात:काल का समय है, जब अभिजित है। परन्तु यहाँ शासन शब्द से आज्ञा या आदेश विवक्षित | नक्षत्र का उदय था। हरिवंशपुराण (२/९१) में कहा नहीं है। यह शासन सत्ता या प्रभुता का नहीं है, अपितु आत्मानुशासन का है। भगवान महावीर सर्वज्ञ, वीतराग श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभः। और हितोपदेशक थे। उनका हित का उपदेश भव्य संसारी प्रतिपद्यह्नि पूर्वाह्ने शासनार्थमुदाहरत्॥ जीवों को संसार से पार उतारनेवाला है। अतः यहाँ शासन | इसी प्रकारशब्द से तीर्थ अर्थ समझना चाहिए। 'तीर्थं करोतीति वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। तीर्थङ्करः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भगवान् महावीर | पाडिवद-पुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्हि॥ धर्मतीर्थ के प्रवर्तक थे। इस दुःषम पञ्चम काल में धर्मतीर्थ | सावण-बहुल-पडिवदे रुद्द-मुहुत्ते सुहोदए रविणो। की उत्पत्ति का यह दिवस जानना चाहिए। अभिजिस्स पढम-जोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वो॥ भगवान् महावीर की यह प्रथम दिव्यध्वनि कहाँ अर्थात् वर्ष के प्रथम मास (श्रावण मास) में, हुई? इस प्रश्न के उत्तर में कसायपाहुड प. १. में श्री| प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा के दिन प्रातः वीरसेन आचार्य ने लिखा है | काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित 9 अगस्त 2009 जिनभाषित है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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