Book Title: Jinabhashita 2009 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ पर्वराज पर्यषण का महत्त्व तभी है, जब हम आत्मिक निकटता स्थापित करें, ताकि हम से ऐसा कुछ न हो जो हमारी आत्मा को स्वीकार्य न हो, आत्महितकारी न हो। हमारा प्रयत्न एवं पुरुषार्थ आत्महित के लिए है, आत्मानुशासन के लिए है। यही पर्युषण का लक्ष्य है और हमारा इष्ट भी। पर्वराज पर्युषण का आगमन रेगिस्तानी पथ पर पानी की तलाश में चूर पथिक के लिए पानी मिल जाने के समान है। निर्धन को धन, युवा को रोजगार, बालक को माँ, भूखे को भोजन, प्यासे को पानी और रोगी को दवा मिलने पर जो प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता का भाव भाद्रपद मास आते ही एक जैन साधक के मन में आ जाता है। नयी उमंग, नये विचार मन-मस्तिष्क को ऊर्जस्वित बनाने लगते हैं। अब शरीर साधन बन जायेगा आत्मा की साधना के लिए। बाहरी दुनिया की भौतिक चकाचौंध से परे अन्तर्यात्रा का यह पर्व-सुअवसर प्राप्त करना, आत्मा से जुड़ना घर वापिसी की तरह होता है। 'निद फाजली' ने लिखा है नई नई आँखें हो तो हर मंजर अच्छा लगता है। कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है। 'हम तो कबहुँ न निज घर आये' के बोल गुनगुनाता साधक अपने आत्महितार्थ संयम, व्रत, एकाशन, उपवास, पूजा-अर्चना, रसत्याग, सामायिक, जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि के माध्यम से एक नये वातावरण का सृजन कर उसमें पैठता है। कषायें शान्त हो जाती हैं, मनोमालिन्य घुलने लगता है, नेह के बादलों की वर्षा होने लगती है, मन्दिरों, प्रवचनसभाओं में बढ़ी भीड़ समाज के वृहदाकार एवं नवजागरण का संदेश देती है। चारों और एक ही स्वर 'अभी हमारे पर्व । व्रत चल रहे हैं' कितना अच्छा लगता है यह सुनकर, देखकर? धर्म वैयक्तिक सुख का महत्त्वपूर्ण कारक तो है ही, वह समष्टि के सुख का पोषक भी है। यदि हम अपनी चेतना को महनीय बनाना चाहते हैं. तो चेतना के कारक धर्म और अध्यात्म से जडना होगा संसार, शरीर, और विषय भोगों की चिन्ता और उसी में निरन्तर डूबते जाने की प्रवृत्ति से हम क्या थे और क्या हो गये? अपने ही आत्मारूपी घर को भूल बैठे हैं, परमात्मा की तो बात ही कौन करे? लक्ष्य खोज रहे हैं, किन्तु मार्ग विपरीत पकड़ रखा है। किसी कवि ने ठीक ही लिखा है घर को खोजें रात दिन, घर से निकले पाँव। वो रस्ता ही खो गया, जिस रस्ते था गाँव॥ पर्युषण पर्व हमारी चेतना को जगाने के लिए आते हैं। यह बताने के लिए कि तुम स्वयं को पहचानो, स्व को जानो। स्व को जाने बिना पर से नाता नहीं टूट सकता। हमारी साधना स्व की साधना बने तो पर छूटते देर नहीं लगेगी। 'धर्म के दसलक्षण' हमें सार्थक इन्सान बनाते हैं। जब क्रोध उपशान्त होगा तो क्षमा का वैभव प्रकट होगा। जब मार्दव की मृदुता के दर्शन होंगे तो अहंकार कहाँ ठहरेगा? आर्जव की ऋतुजा मन-वचन-काय की सरलता को जन्म देगी, तो कटुता, कुटिलता का अन्त स्वयमेव होगा। शौच की शुचिता से निर्लोभिता आयेगी और संचय की विषबेल टूटेगी। सत्य का भाव सत्यार्थ की ओर ले जायेगा, फिर न चोरी के भाव होंगे और न असत्यभाषण के। जिह्वा पर नियंत्रण भी हम कर सकेंगे। न हँसी होगी, न मजाक, बल्कि आत्मसंरक्षण रूप सत्य की प्रवृत्ति जन्म लेगी। बोली अनमोल बनेगी और हम कह सकेंगे साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जा के हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप॥ संयम की साधना हमें सिखायेगी- जीने की कला, जिससे हम जितेन्द्रिय बन सकेंगे। न रस-लोभ होगा न रस-आसक्ति, बल्कि हम विरस आत्मा में सरसता का आस्वाद ले सकेंगे। तप की तपन हमें पतन से बचायेगी और नरक, तिर्यंच गति के दुःख नहीं भोगने पड़ेंगे। बरिहंग तप हमें बाह्य विकृतियों अगस्त 2009 जिनभाषित 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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