Book Title: Jinabhashita 2009 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ करुणा हेय नहीं आचार्य श्री विद्यासागर जी सही सुख नहीं कह सकते हम। दुख मिटने का और सुख-मिलने का द्वार खुला अवश्य, फिर भी ये दोनों दुःख को भूल जाते हैं इस घड़ी में! करुणा करनेवाला अधोगामी तो नहीं होता, किन्तु करुणा हेय नहीं, करुणा की अपनी उपादेयता है अपनी सीमा... फिर भी, करुणा की सही स्थिति समझना है। करुणा करनेवाला अहं का पोषक भले ही न बने, परन्तु स्वयं को गुरु-शिष्य अवश्य समझता है और जिस पर करुणा की जा रही है वह स्वयं को शिशु-शिष्य अवश्य समझता है। दोनों का मन द्रवीभूत होता है शिष्य शरण लेकर गुरु शरण देकर कुछ अपूर्व अनुभव करते हैं। पर इसे अधोमुखी यानीबहिर्मुखी अवश्य होता है। और जिस पर करुणा की जा रही है, वह अधोमुखी तो नहीं, ऊर्ध्वमुखी अवश्य होता है। तथापि, ऊर्ध्वगामी होने का कोई नियम नहीं है। मूकमाटी (पृष्ठ १५४-१५५) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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