Book Title: Jinabhashita 2009 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ ? सदा उदय में रहने से उसे क्षुधा तृषा की पीड़ाएँ सदा होती रहेंगी, भोजन करने पर भी क्षुधा की पीड़ा शान्त नहीं होगी, पानी पीने पर भी तृषा की वेदना से छुटकारा नहीं मिलेगा। दिन भर के श्रम से थक जाने पर भी उसे नींद नहीं आ पायेगी। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि जो वास्तुशास्त्र प्रतिकूल घर में रह रहे हैं, उनमें से किसी के साथ भी ऐसी प्रकृतिविरुद्ध घटनाएँ घटित नहीं होतीं । आगम में भी इन प्रकृति-विरुद्ध घटनाओं को मान्य नहीं किया गया है। अतः सिद्ध है कि वास्तुशास्त्र विपरीत गृह असातावेदनीय के उदय का निमित्त नहीं है। इसी प्रकार यदि यह माना जाय कि वास्तुशास्त्रानुकूल गृहं स्वनिवासियों के सातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त होता है, तो इससे यह सिद्ध होता है कि जो मनुष्य उसमें जन्म से मृत्यु पर्यन्त रहेगा, उसका सातावेदनीय कर्म जन्म से मृत्यु तक उदय में आता रहेगा, असाता के उदय का अवसर कभी नहीं आयेगा, उसका उदय सातावेदनीय के रूप में संक्रमित होकर होता रहेगा। इसका परिणाम यह होगा कि उसने पूर्व में जो पाप कर्म किये थे, उनका दुःखरूप फल भोगने का अवसर उसे वर्तमान जीवन में कभी नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त सातावेदनीय का नित्य उदय रहने से उसे क्षुधा तृषा आदि की पीड़ाएँ वर्तमान जीवन में कभी नहीं होंगी, फलस्वरूप उसे अन्नजल ग्रहण करने की भी आवश्यकता नहीं होगी, और सातावेदनीय का उदय रहने से उसकी अकालमृत्यु भी नहीं होगी, जैसे सातावेदनीय का उदय रहने से रावण द्वारा प्रयुक्त बहुरूपिणी विद्या से राम और लक्ष्मण की अपमृत्यु नहीं हुई थी किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि जो मनुष्य वास्तुशास्त्रानुकूल निर्मित गृह में रहते हैं, उनके जीवन में ऐसी अतिशयपूर्ण अप्राकृतिक घटनाएँ नहीं घटतीं आगम में भी संसारीजीवों में इन तीर्थंकर सदृश घटनाओं का घटित होना स्वीकार नहीं किया गया है। अतः सिद्ध है कि वास्तुशास्त्रानुकूल निर्मित गृह स्वनिवासियों के सातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त नहीं होता। साता के उदय में अत्यन्त घातक निमित्त भी अकिंचित्कर जिनेन्द्रदेव ने सातवेदनीय आदि पुण्यकर्म में ऐसी शक्ति बतलायी है, जिससे मन्त्रसिद्ध अत्यन्त घातक निमित्त भी अकिंचित्कर हो जाता है। बृहद्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं 44 " रावणेन रामस्वामी - लक्ष्मीधरविनाशार्थं बहुरूपिणी विद्या साधिता, कौरवैस्तु पाण्डवनिर्मूलनार्थं कात्यायनी विद्या साधिता, कंसेन च नारायणविनाशार्थं बह्वयोऽपि विद्याः समारधितास्ताभिः कृतं न किमपि रामस्वामि-पाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निर्विघ्नं जातिमिति । " ( गाथा ४१ / पृ.१५० ) । अनुवाद - " रावण ने राम और लक्ष्मण का विनाश करने के लिए बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी, कौरवों ने पाण्डवों का संहार करने के लिए कात्यायनी विद्या साधी थी और कंस ने कृष्ण को मारने के लिए अनेक विद्याओं की आराधना की थी, किन्तु वे राम, लक्ष्मण, पाण्डवों और कृष्ण का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायीं । और राम आदि ने यद्यपि मिथ्या देवताओं को प्रसन्न नहीं किया, तो भी निर्मल सम्यक्त्व द्वारा उपार्जित पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से सब विघ्न समाप्त हो गये । " यहाँ यह बात स्मृति में रखने योग्य है कि जब सातावेदनीय के उदय में मन्त्रसिद्ध विद्याओं की भी अमोघ घातक शक्ति अकिंचित्कर हो जाती है, तब वास्तुशास्त्र प्रतिकूल निर्मित गृह में यदि कोई घातक शक्ति है, तो सातावेदनीय के उदय में उसके कुछ बिगाड़ पाने की क्या बिसात? सातावेदनीय के प्रबल उदय में निमित्त के स्वरूप में परिवर्तन जिनेन्द्रदेव का उपदेश है कि सातावेदनीय का प्रबल उदय होने पर अत्यन्त घातक निमित्त भी रक्षक बन जाता है। सीताजी की अग्निपरीक्षा के लिए निर्मित अग्निकुण्ड जलसरोवर बन गया। श्रेणिकपुत्र वारिषेण के वध के लिए राजाज्ञा से वधिक के द्वारा चलाई गई तलवार पुष्पहार में परिवर्तित हो गयी। इसी प्रकार यदि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में कोई घातक शक्ति मानी जाय, तो उसके निवासियों के सातावेदनीय के Jain Education International For Private & Personal Use Only जनवरी 2009 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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