Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ श्रावक हों, तथा जल एवं ईंधन की जहाँ प्रचुरता हो,। भावार्थ- विषयसुख के लिए धन साधन है। स्त्री उसी देश में व्रती पुरुषों को रहना चाहिए।॥ ४०॥ | विषयसुख का मुख्य अवलम्बन है। महल, मकान, बाग उपर्युक्त शास्त्राज्ञा के अनुसार आप यदि लिखे | बगीचा आदि विषय सुखों के गौण साधन हैं। अतः अनुसार स्थान पर जाती हैं, तो आपका व्रत कैसे रह | विषयसुख का साधन स्त्री मानी गई है। यदि उसकी पायेगा? आपको या तो जहाँ अभी रह रही हैं, वहाँ | अभिलाषा से जिसका अन्त:करण विमुख हो जायेगा, तो ही रहना चाहिए अथवा किसी महिलाश्रम में रहना उचित | | फिर विषयसुख के गौण साधनभूत धनादिक इच्छा की है। ली हई प्रतिज्ञा को भंग करने में तो महान् दोष | निष्फलता स्वयं हो जाती है। जब साध्य ही नहीं चाहिए है। धर्मसंग्रहश्रावकाचार में कहा है तो फिर साधन की क्या जरूरत हे? जैसे मुर्दे को आभूषण धार्मिकः प्राणनाशेऽपि व्रतभङ्गं करोति न। । पहनाकर सजाना व्यर्थ है, वैसे ही स्त्री से विरक्त पुरुष प्राणनाशः क्षणे दुःखं व्रतभश्चिरं भवे॥ ८७॥ के लिए धन की इच्छा निरर्थक मानी जाती है। (टीका अर्थ- धर्मात्मा पुरुषों को अपने ग्रहण किये हुए | आ० सुपार्श्वमती जी) व्रत का भंग कभी नहीं करना चाहिए, चाहे प्राणों का प्रश्नकर्ता- प्रवीणचन्द्र जैन, देहली। नाश ही क्यों न हो जाये। क्योंकि प्राणों के नाश होने जिज्ञासा- क्या क्षुल्लक मोटरकार या ट्रेन आदि से तो उसी समय दुःख होता है, परन्तु व्रतभंग होने | सवारी में बैठ सकते हैं? पर चिरकाल पर्यन्त संसार में असहनीय दुःख उठाने समाधान-२०वीं शताब्दी के उच्च कोटि के विद्वान् पड़ते हैं। ८७॥ श्री रतनचन्द्र जी मुख्तार से, वर्तमान के उद्भट विद्वान प्रश्नकर्ता- पं० राजेशकुमार शास्त्री, इन्दौर। | पं० जवाहरलाल जी शास्त्री भिण्डर ने यही प्रश्न पूछा जिज्ञासा- क्या ब्रह्मचारी भाइयों द्वारा धन एकत्र | था, जिसका उत्तर 'पं० रतनचन्द्र जैन मुख्तार- व्यक्तित्व करना आगम के अनुसार उचित है? और कृतित्व ग्रन्थ' में पृष्ठ ७१९ पर इस प्रकार दिया समाधान- पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज | गया है, 'क्षुल्लक समस्त परिग्रह का त्यागी होता है। के द्वारा प्रवचनों में मैंने कई बार सुना है कि ब्रह्मचारियों | यदि वह सवारी में बैठता है, तो उसके किराये के लिए को धन एकत्र नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में भी इसके | उसको पैसा अर्थात् परिग्रह रखना पड़ेगा तथा उस पैसे विभिन्न प्रमाण पाये जाते हैं के लिए याचना करनी पड़ेगी। दूसरे, क्षुल्लक के सर्व यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन (श्लोक ३८९) | | प्रकार के आरम्भ का भी त्याग है, अतः यदि वह सवारी में इस प्रकार कहा है, का उपयोग करता है, तो उसको आरम्भसम्बन्धी दोष - देह-द्रविण-संस्कार-समुपार्जनवृत्तयः । लगता है। तीसरे, सवारी में बैठकर सामायिक आदि करने जितकामे वृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक्॥ | से क्षेत्रपरिमाण नहीं बनता, अतः सामायिक में दोष लगता अर्थ- जिसने काम को जीत लिया, उसका देह | है। सारतः क्षुल्लक को सवारी में नही बैठना चाहिए। का संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में तो आठवीं आरम्भत्याग हैं. क्योंकि काम ही इन दोषों की जड़ है॥ ३८९॥ । प्रतिमा को धारण करनेवालों के लिए भी सवारी पर सागारधर्मामृत (अध्याय ६/३६) में इस प्रकार कहा | चढ़ना निषेध किया है, कहा है रथाद्यारोहणं निन्द्यं स्थूलजीवविघातकम्। स्त्रीतश्चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमीहसे। । प्राणान्तेऽपि न कर्तव्यं त्यक्तारम्भैः कदाचन॥ १०७॥ मृतमण्डनकल्पो हि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः॥ ३६॥ अर्थ- आरम्भत्याग प्रतिमा धारण करनेवाले व्रतियों अर्थ- हे मन, यदि तू निश्चित ही स्त्री से निवृत्त | के प्राण नष्ट होने पर भी स्थूल जीवों की हिंसा करनेवाले हो गया है, तो फिर धन को क्यों चाहेगा? क्योंकि स्त्री | निंद्य रथ आदि सवारियों पर चढकर कभी नहीं चलना की इच्छा नहीं रहने पर धन को ग्रहण करना अथवा | चाहिए। धन की इच्छा करना मरे हुए मुनष्यों को आभूषण पहनाने | आचार्य सूर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य में संवत् के समान व्यर्थ है। २००७ में फिरोजाबाद में बहुत भारी उत्सव हुआ था है -जनवरी 2009 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36