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जिसमें मुनिसंघ विराजमान था, तथा बाहर से ७०-७५ | का उपकार करना अच्छा नहीं है। जैसे जब हाथ में व्रती भी पधारे हुए थे। उस सम्मेलन की चर्चा क्षल्लक | चिन्तामणि रत्न आ जावे, तो फिर ऐसा कौन दुर्बुद्धि श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ने 'मेरी जीवन गाथा' में इस | होगा जो उसे छोड़कर पत्थरों को स्वीकार करेगा? कोई प्रकार लिखी है- "इस व्रती सम्मेलन में एक विषय | नहीं करेगा। यह आया कि क्या क्षुल्लक वाहन पर बैठ सकता है? स्फुरत्येकोऽपि जैनत्व-गुणो यत्र सतां मतः। महाराज ने कहा कि जब क्षुल्लक पैसे का त्याग कर
तत्राप्यनैः सप्पात्रोत्यं खद्योतवद्रवौ॥ ५२॥ चुका है, तथा ईर्यासमिति से चलने का अभ्यास कर
वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्त्रशः। रहा है, तब वह वाहन पर कैसे बैठ सकता है? पैसे दलादिसिद्धान् कोऽन्वेति रससिद्धे प्रसेदषि॥५३॥ के लिए उसे किसी से याचना करनी पड़ेगी तथा पैसों अर्थ- जिस जैन में सज्जनों को प्रिय ऐसा एक की प्रतिनिधि जो टिकिट आदि है, वह अपने साथ रखनी | भी जैनत्व गुण प्रकट है, उस जैन के सामने ज्ञान और पडेगी। आखिर विचार करो मनुष्य क्षुल्लक हुआ क्यों? तप स आधक अजन पुरुष, सूय क सामन जुगनू का इसीलिए तो हआ कि इच्छाएँ कम हों? यातायात कम | तरह प्रकाशित होते हैं। ५२॥ हो, सीमित स्थान में विहार हो। फिर क्षुल्लक बनने पर | उपकार किया हुआ एक भा जन उत्कृष्ट ह, जब भी इन सब बातों में कमी नहीं आई. तो क्षल्लक पद | कि अन्यमतवाले मिथ्यादृष्टि हजार भी अच्छे नहीं हैं। किसलिए रखा? --- यथार्थ में जो कौतुकभाव क्षुल्लक ।
| क्योंकि रस की सिद्धि करनेवाले परुष के प्राप्त हो जाने होने के पहले था, वह अब भी गया नहीं। यदि नहीं | पर, सार रहित कृत्रिम सुवर्ण बनानेवाले पुरुषों की कौन गया, तो कौन कहने गया था कि तम क्षल्लक हो जाओ | खोज करता है? ---- । लोग कहते हैं कि दक्षिण के क्षुल्लक तो बैठते
श्री इन्द्रनन्दि सूरि विरचित नीतिसार समुच्चय ग्रन्थ हैं? पर उनके बैठने से क्या वस्तुतत्व का निर्णय हो । में इसप्रकार कहा हैजावेगा? वस्त का स्वरूप तो जो है. वही रहेगा। दक्षिण तस्मै दानं प्रदातव्यं, यः सन्मार्गे प्रवर्तते। और उत्तर का प्रश्न बीच में खड़ा कर देना हित की
पाखण्डिभ्यो ददद्दानं, दाता मिथ्यात्ववर्धकः॥४८॥ बात नहीं।
अर्थ- उसी को दान देना चाहिए जो सन्मार्ग उपयुक्त प्रमाणों के अनुसार क्षुल्लक को किसी | (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग) भी सवारी में बैठना बिल्कुल उचित नहीं है।
में प्रवृत्ति करता हो। पाखण्डी को , जैनधर्म के विनाशक जिज्ञासा- किसी दिगम्बरजैन को दान दे या किसी
को दान नहीं देना चाहिए। क्योंकि पाखण्डी को, दिगम्बर अन्य मतवाले को दान दे, तो समान फल मिलेगा या
धर्म के निन्दक को दान देनेवाला दाता मिथ्यामार्ग का अन्तर है?
पोषक अथवा वर्द्धक होता है। समाधान- इस संबंध में शास्त्रों के निम्न प्रमाणों
उपर्युक्त सभी प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि जब पर विचार करना योग्य है
भी कोई दान देना हो, तब दिगम्बर जैन धर्म के प्रचारश्री धर्मसंग्रहश्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | प्रसार आदि के लिए हा दें। अन्य मत के लोगों को एकोऽप्युपकृतो जैनो वरं नाऽन्ये ह्यनेकशः।
भोजन कराना, उनके मन्दिर, स्कूल, साधु आदि के लिए हस्ते चिन्तामणौ प्राप्ते को गृह्णाति शिलोच्चयान्॥१७६ ॥ |
दान देना, कदापि उचित नहीं है। उसका फल न के ' अर्थ- जैनधर्म के धारक एक भी भव्य पुरुष
बराबर होता है। का उपकार करना अच्छा है, परन्तु हजारों मिथ्यादृष्टियों ।
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी.
आगरा (उ.प्र.) कबीरवाणी गुरु वेचारा क्या करे, हिरदा भया कठोर। नौ नेजा पानी पढ़ा, पथर न भीजी कोर॥ जो दीसै सो विनसि है, नाम धरा सो जाय। कबीर सोई तत गह्यो, सतगुरु दीन्ह बताय॥
30 जनवरी 2009 जिनभाषित
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