Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 33
________________ आपके पत्र माननीय संपादक जी पूज्य मुनि श्री प्रणम्यसागर जी द्वारा लिखित 'जिनभाषित' नवम्बर २००८ का अंक मिला। पृ० 'षडावश्यक आज क्यों आवश्यक?' आलेख का पठन८ पर प० पृ० उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी महाराज | पाठन हमारे जीवन में अत्यधिक उपयोगी है। पूज्य गुरुवर द्वारा लिखित 'आदिकाल की याद दिलाती दीवाली' भी | ने छह दैनिक कर्तव्यों की आधुनिक ढंग से सहज एवं पढ़ा। वैसे तो आप एवं प्रकाशक जी प्रखर मनीषी हैं, | सरल व्याख्या की है। उन्होंने अपने आलेख में पाश्चात्य सामग्री को अवलोकित सम्यक् प्रकार से करते होंगे। | संस्कृति के सुप्रसिद्ध लेखक डॉ० कैरल के प्रार्थना की फिर भी कुछ प्रश्न जिज्ञासा पैदा करते हैं। महत्ता संबंधी लेख का उद्धरण दिया है। इससे स्पष्ट १. पृ०८, 'युग के आदि में ......... प्रथम तीर्थंकर है कि हमारे मुनिजन भारतीय संस्कृति के साथ-साथ आदिनाथ स्वामी ने पत्थर से पत्थर रगड़कर चिंगारी द्वारा पाश्चात्य संस्कृति का भी अध्ययन, मनन एवं चिंतन अग्नि का आविष्कार कराकर भोजन पकाने एवं रात्रि | करते हैं। के अंधकार से बचने के लिए दीपक जलाने की शिक्षा इसी प्रकार पण्डित समतचन्द्र दिवाकर ने अपने दी।' क्या यह असंगत नहीं है। शास्त्रपरम्परा से द्रष्टव्य आलेख 'कर्म हमारे विधाता नहीं' के माध्यम से हमें पुरुषार्थ करने की प्रेरणा प्रदान की है। २. हिन्दूधर्मानुसार दीपावली के प्रारंभ व प्रचलन हमें यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि पूज्य को यहाँ विस्तार से प्रकाशित करना सम्यग्दर्शन की आचार्य श्री विद्यासागर जी के कालजयी महाकाव्य विराधना का कारण नहीं हैं? क्या इससे जैनसमाज में | मूकमाटी पर लिखित समालोचनासंग्रह ग्रन्थ 'मूकमाटीजैनधर्म-दर्शन-परम्परा से मेल न खानेवाले कथानक मीमांसा' प्रकाशित एवं लोकार्पित हो गया है। इस ग्रन्थ प्रचारित नहीं होंगे? के संपादक सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी ने उपर्युक्त विचारणीय है। ग्रन्थ को साकार रूप देने में पूज्य मुनिश्री अभयसागर पत्रिका श्रेष्ठ रूप में अनवरत प्रकाशित है। आपको | जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका की सराहना की है और उनकी व प्रकाशक जी व समस्त प्रबन्ध को बधाई। उद्भट क्षमता, आस्था एवं निष्ठा की प्रशंसा की है। शिवचरणलाल जैन | सम्पूर्ण राष्ट्र के शीर्षस्थ स्तर पर विराजमान समालोचक श्याम भवन, बजाजा मैनपुरी - २०५००१ | विद्वान् का यह कथन चतुर्विध संघ एवं सम्पूर्ण जैनसमाज (उ.प्र.) | को साहित्यिक प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान करता है। खेद कृपया इसी प्रकार से परिवार के प्रत्येक सदस्य लेख के ऊपर एक उपाध्यायपदधारी मुनिश्री का | के लिए उपयोगी जानकारी अपनी पत्रिका में देकर इस नाम देखकर मैंने समय बचाने के लिए उसे पढ़ना | पत्रिका की ऊँचाई को बढ़ाने में सदैव अपना अमूल्य आवश्यक नहीं समझा। अपने इस प्रमाद के लिए मुझे अवदान प्रदान करते हुए हमें अनुगृहीत करें। खेद है। सुरेश जैन सम्पादक : रतनचन्द्र जैन ३०, निशात, कॉलोनी, भोपाल आदरणीय सम्पादक जी माननीय संपादक जी जिनभाषित (नवम्बर २००८) में स्वाध्याय की | दिसम्बर 2008 के जिनभाषित में जिज्ञासा-समाधान महत्ता को रेखांकित करते हुए शोध-पूर्ण संपादकीय | के अन्तर्गत एक यह जिज्ञासा की गई है कि पंचपरमेष्ठी पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। जैनसंस्कृति ने स्वाध्याय की आरती में क्या 'छट्ठी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक को श्रेष्ठतम तप के रूप में स्वीकार किया है। इस का | बन्दों आनन्दकारी' यह बोलना उचित है? और इसके ही परिणाम है कि सम्पूर्ण जैनसमाज शतप्रतिशत रूप | समाधान में आचार्य कुन्दकुन्दकृत सुत्तपाहुड की 'जग्गो से साक्षर है। विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे' इस गाथा (क्र० जनवरी 2009 जिनभाषित 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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