Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2535 RSARANG लन्दन-स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर तथा उसमें विराजमान भगवान् महावीर वि.सं. 2065 जनवरी, 2009 मूल्य 15g/library.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RPPT! - आचार्य श्री विद्यासागर जी अरे कंकरो! माटी से मिलन तो हुआ माटी में मिले नहीं तुम! माटी से छुवन तो हुआ पर माटी में घुले नहीं तुम! इतना ही नहीं, चलती चक्की में डालकर तुम्हें पीसने पर भी अपने गुण-धर्म भूलते नहीं तुम! भले ही चूरण बनते, रेतिल, माटी नहीं बनते तुम! जल के सिंचन से भीगते भी हो परन्तु, भूलकर भी फूलते नहीं तुम! माटी सम तुम में आती नमी नहीं क्या यह तुम्हारी है कमी नहीं? तुम में कहाँ है वह जल-धारण करने की क्षमता ? जलाशय में रह कर भी युगों-युगों तक नहीं बन सकते जलाशय तुम! मैं तुम्हें हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा परन्तु पाषाण-हृदय अवश्य है तुम्हारा, दूसरों का दुःख-दर्द देखकर भी नहीं आ सकता कभी जिसे पसीना है ऐसा तुम्हारा .....सीना! मूकमाटी (पृष्ठ ४९-५०) से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 जनवरी 2009 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 | सदस्यता शुल्क 5,00,000रु. 51,000. 5,000रु. 1100 रु. 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक मासिक जिनभाषित काव्य : अरे कंकरो ! • बिहारी की गजल उम्र ● मुनिश्री क्षमासागर जी संस्मरण प्रसंग प्रवचन के पॉइन्ट : प्रस्तुति - सरोज कुमार ● सम्पादकीय वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त • लेख 10 अन्तस्तत्त्व : आचार्य श्री विद्यासागर जी जलवों में बसर हो : स्व. श्री बिहारीलाल जी जैन • वास्तुदेव • गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ वर्ष 8, • मत ठुकराओ, धर्म सिखाओ, गले लगाओ • जिज्ञासा समाधान ● ग्रन्थ समीक्षा : आचार्य श्री विद्यानंदी मुनि • प्रतिमाओं का स्पर्श करना आगम अनुकूल नहीं : आचार्य श्री मेरुभूषण जी • चार अनुयोग : ब्र० कु० प्रभा पाटनी (संघस्थ) वृद्धावस्था जीवन का फाइनल एक्जामीनेशन : पं० बसन्त कुमार जैन, शास्त्री • हमारे नौनिहालो को बीमार करते खिलौने : डॉ० ज्योति जैन • कोशिश करने पर लंदन में भगवान् का समाचार • आपके पत्र : स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया मंदिर मिल ही गया : निर्मलकुमार पाटोदी पं. रतनलाल बैनाड़ा : स० सि० अरिहंत जैन : पं० सनतकुमार विनोदकुमार जैन अङ्क 1 लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। आ. पृ. 2 पृष्ठ आ. पृ. 3 आ. पृ. 4 2 8 10 14 1622 19 24 25 26 28 18 20, 23, 27, 32 31,32 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सम्पादकीय जिनभाषित के प्रस्तुत अंक में हम युवा, अनुभवी, प्रतिष्ठा-प्रवीण एवं सुप्रसिद्ध विद्वद्वय प्रतिष्ठाचार्य पं० सनतकुमार विनोदकुमार जी जैन का वास्तुविज्ञान विषयक एक लेख प्रकाशित कर रहे हैं। उसका शीर्षक है ‘गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ।' इसमें विद्वद्वय ने गृहचैत्यालय निर्माण में अनेक वास्तुशास्त्रीय नियमों का पालन आवश्यक बतलाया है, जो समीचीन है। उक्त नियमों के पालन से गृहचैत्यालय में स्थापित जिनप्रतिमा की अविनय तथा चैत्यालय की अशुद्धि का प्रतीकार होता है। वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त अधोलिखित जिनवचन भी विचारणीय हैं किन्तु उन्होंने और अन्य सभी जैन वास्तुशास्त्रियों ने आर्यिका श्री विशुद्धमति जी कृत वत्थुविज्जा (पृ. १७०) में उद्धृत दो श्लोक उद्धृत कर जो यह बतलाया है कि गृह, देवालय आदि का निर्माण वास्तुशास्त्र के विपरीत होने पर निर्माता एवं गृहवासियों का आयुनाश, मनस्ताप, पुत्रनाश तथा कुलक्षय आदि अनिष्ट होते हैं, वह जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। वत्थुविज्जा में उद्धृत वे श्लोक इस प्रकार हैं प्रासादो मण्डपश्चैव विना शास्त्रेण यः कृतः । विपरीतं विभागेषु योऽन्यथा विनिवेशयेत् ॥ विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते । आयुर्नाशो मनस्तापः पुत्रनाशः कुलक्षयः ॥ आर्यिका श्री ने यह श्लोक किस प्राचीन ग्रन्थ से लिया हे, उसका रचयिता कौन है, वह जैन है या अजैन? इसका उल्लेख नहीं किया । उपर्युक्त विद्वद्वय ने अपने कथन के समर्थन में उमास्वामि- श्रावकाचार के निम्न पद्य भी उद्धृत किये हैं गृहे प्रविशता देवतावसरं नीचैर्भूमिस्थितं नीचैर्नीचैस्ततोऽवश्यं अनुवाद - " घर में प्रवेश करते हुए शल्यरहित वामभाग में डेढ़ हाथ ऊँची भूमि पर देवता का स्थान बनाना चाहिए। यदि देवता का स्थान नीची भूमि पर बनाया जायेगा, तो गृहस्वामी और उसकी सन्तान का उत्तरोत्तर अधःपतन अवश्य ही होगा । " यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि इस ग्रन्थ के कर्त्ता तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी नहीं हैं, अपितु ईसा की सोलहवीं - सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में हुए कोई भट्टारक हैं, जिन्होंने अपने कथन को प्राचीन और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए ग्रन्थ को उमास्वामी द्वारा रचित बतलाया है । (देखिये, 'श्रावकाचारसंग्रह ' भाग ४ / ' ग्रन्थ और ग्रन्थकार का परिचय'- पं० हीरालाल जी जैन शास्त्री / पृ. ३८-४१) । इस ग्रन्थ के रचयिता भट्टारक महोदय के कथन को हम तब तक प्रामाणिक नहीं मान सकते, जब तक वह तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी सदृश किन्हीं प्राचीन आचार्य के वचन से प्रमाणित न हो। वास्तुशास्त्रियों का कथन जिनोपदेश के विरुद्ध जनवरी 2009 जिनभाषित वामभागे शल्यविवर्जिते । कुर्यात्सार्धहस्तोर्ध्व भूमिके ॥ ९८ ॥ कुर्याद् देवतावसरं यदि । सन्तत्यापि समं भवेत् ॥ ९९ ॥ प्रायः सभी जैन- अजैन वास्तुशास्त्री, बतलाते हैं कि गृह का द्वार अमुक दिशा में होना चाहिए, रसोईघर, स्नानगृह, कुआँ - टयूबवेल, सीढ़ियाँ, अध्ययनकक्ष, शयनकक्ष आदि अमुक-अमुक दिशा में होने चाहिए । यदि ये चीजें वास्तुशास्त्रोक्त दिशा से विपरीत दिशा में होती हैं, तो गृहस्वामी की अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय, व्यापार - नौकरी आदि में विफलता या हानि, तथा अन्य अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं। किन्तु वास्तुशास्त्रियों का यह कथन जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। जिनागम क्या Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहता है, इस पर दृष्टिपात किया जाय। __ आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की २५३वी गाथा से लेकर २५६वीं गाथा तक, चार गाथाओं का अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदःख-सौख्यं। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् पुमान् मरणजीवित दुःखसौख्यम्॥ १६८॥ अनुवाद-"जीवों के जन्म, मरण, सुख और दुःख सदा अपने ही कर्मों के उदय से नियत होते हैं। ई दूसरा पुरुष या द्रव्य जीव के जन्म, मरण, सुख और दुःख का कर्ता होता है, ऐसा मानना अज्ञान है। आचार्य अमितगति ने भी कहा है सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा। अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः।। अनुवाद-'जीव को सुख और दुःख कोई दूसरा द्रव्य नहीं देता। दूसरा द्रव्य जीव को सुख-दुःख देता है, ऐसा मानना कुबुद्धि है। अतः 'मैं दूसरे को सुखी-दुखी करता हूँ,' ऐसी मान्यता निरर्थक अभिमान है। लोक के सभी जीव स्वकृत कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं, अर्थात् स्वकृत कर्मों के उदय से ही जीव को सुख-दु:ख होता कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी कहा गया है __ण य को वि देदि लच्छी, ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि॥ ३१९॥ अनुवाद-"न तो कोई दूसरा द्रव्य जीव को लक्ष्मी देता है, न कोई जीव का उपकार करता है। उपकार और अपकार जीव के अपने ही शुभाशुभ कर्म करते हैं।" इन जिनवचनों से सिद्ध है कि वास्तुशास्त्र के अनुकूल या प्रतिकूल निर्मित गृह परद्रव्य है। वह जीव के द्वारा किया गया अपना शुभाशुभ कर्म नहीं है। इसलिए उसमें स्वनिवासी जीव को सुख-दुःख देने की सामर्थ्य नहीं है। वास्तशास्त्र-प्रतिकल गह की प्राप्ति भी सातावेदनीय के उदय से उपर्युक्त तथ्य का निषेध न कर पाने के कारण कुछ जैनवास्तुशास्त्री यह तर्क देते हैं कि जिस मनुष्य के असातावेदनीय का उदय होता है, उसे वास्तुशास्त्र-प्रतिकल गह प्राप्त होता है और जिसके का उदय होता है, उसे वास्तुशास्त्र-अनुकूल गृह की प्राप्ति होती है। इसलिए वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृह में वास करने से अनेक प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति होती है। यह तर्क तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि जिनागम में दुःखनिवारक सामग्री का सम्पादन करनेवाले कर्म को सातावेदनीय कहा गया है- "दुक्खपडिकारहेतुदव्वसंपादयं --- कम्मं सादावेदणीयं णाम।" (धवला / पु.१३ /५,५,८८ / पृ.३५७)। और वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृह भी शीत, आतप, वर्षा आँधी-तूफान, थकान, हिंस्रजीवों के उपद्रव, धनापहरण, प्राणापहरण, शीलापहरण आदि से उत्पन्न दुःखों के निवारण का साधन है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) से सिद्ध है। अतः उसकी प्राप्ति सातावेदनीय के उदय से ही होती है। उसका अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि का कारण होना न तो प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है, न आगमप्रमाण से। जो तत्त्व अतीन्द्रिय होता है, उसकी सत्यता सर्वज्ञ के वचनों से ही सिद्ध होती है, छद्मस्थ के वचनों से नहीं। साता-असाता कर्मों के उदय का निमित्त भी नहीं कुछ जैनवास्तुशास्त्री कहते हैं कि जीवकृत कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से होता है। वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल निर्मित गृह द्रव्य हैं, अतः वे स्वनिवासी जीव के साताअसाता-वेदनीय कर्मों के उदय में निमित्त बनते हैं और इस प्रकार जीव के सुख-दुःख के कारण होते हैं। यह तर्क जिनागम की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इसके निम्न लिखित कारण हैं -जनवरी 2009 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. गोम्मटसार- कर्मकाण्ड के निम्नलिखित गाथांश में उन द्रव्यों का वर्णन किया गया है, जो साताअसातावेदनीय कर्मों के उदय में निमित्त (नोकर्म) होते हैं सादेदरणोकम्मं इाणिगुण्णपाणादि ॥ ७३ ॥ अनुवाद - " सातावेदनीय के उदय के नोकर्म ( निमित्तभूत द्रव्य) इष्ट ( रुचिकर) भोजन - पान आदि तथा असातावेदनीय के उदय के नोकर्म अनिष्ट ( अरुचिकर) भोजन - पान आदि हैं।" I इस गाथांश के अनुसार जिनागम में उन्हीं द्रव्यों को जीव के साता असाता कर्मों के उदय का निमित्त बतलाया गया है, जिनमें इन्द्रियों से सम्पर्क होते ही, या जिनका मन में विचार आते ही, जीव को सुख या दुःख की अनुभूति कराने की योग्यता होती है जैसे रसनेन्द्रिय का मिष्टान्न से संसर्ग होने पर सुख का और नीम के पत्तों की चटनी से संसर्ग होने पर दुःख का अनुभव होता है, अथवा जैसे ग्रीष्म में शरीर से शीतल पवन का स्पर्श होने पर सुख का वेदन होता है और उष्ण पवन का स्पर्श होने पर दुःख की अनुभूति होती है। इसी प्रकार शत्रु का सम्पर्क होने पर द्वेष का उदय होता है, इस कारण वह दु:ख के सवेदन का निमित्त बनता है तथा मित्र का सान्निध्य मिलने पर राग का उदय होता है, इस कारण वह सुखसंवेदन में निमित्त बनता है तथैव किसी प्रिय व्यक्ति, वस्तु या घटना का चिन्तन स्मरण होता है, तब वह सुख की अनुभूति में निमित्त होती है और कोई अप्रिय व्यक्ति, वस्तु या घटना चिन्तन - स्मरण का विषय बनती है, तो वह दुःख की अनुभूति में निमित्त होती है अतः ऐसे द्रव्य ही साता असाता कर्मों के उदय में निमित्त होते हैं, अन्य नहीं । सौन्दर्य और असौन्दर्य भी जीव के लिए इष्ट-अनिष्ट होने से सुख-दुःखानुभूति में निमित्त होते हैं। अतः कोई भवन यदि सुन्दर है, तो भले ही वह वास्तु शास्त्र के अनुसार न बना हो, अर्थात् उसके रसोईघर आदि विभिन्न स्थान वास्तुशास्त्रानुकूल दिशा में न हों, तो भी वह सौन्दर्यप्रेमी दर्शक के सातावेदनीय के उदय में निमित्त बनेगा। इसके विपरीत भले ही कोई भवन वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्मित हो, किन्तु सुन्दर (दृष्टिप्रिय) न हो, तो वह वास्तुशास्त्रप्रेमी को छोड़कर सामान्य दर्शक के सातावेदनीय के उदय का निमित्त नहीं बन सकता। आगरे का ताजमहल और मुंबई का ताजहोटल जैसे वास्तु इसके दृष्टान्त हैं । तात्पर्य यह कि किसी गृह के द्वार, रसोईघर, स्नानघर, कुआँ आदि का वास्तुशास्त्रानुकूल दिशा में होना और न होना मात्र, सामान्य दर्शक की दृष्टि को प्रिय अप्रिय नहीं लग सकता, अतः उसका सामान्य दर्शक के साताअसातावेदनीय के उदय में निमित्त बनना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्रप्रेमी का उपयोग भी वास्तुशास्त्रानुकूल गृह की शास्त्रानुकूलता के दर्शन, चिन्तन और अनुभवन में सदा नहीं लगा रह सकता, अतः वह उसके भी सातावेदनीय के नित्य उदय का निमित्त नहीं हो सकता। यह गोम्मटसार- कर्मकाण्ड की उपर्युक्त गाथा से सिद्ध होता है । अपरंच, भले ही किसी गृह का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर दिशा में न हो, किन्तु खिड़कियाँ पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण आदि दिशाओं में हों, तो उस घर में हवा और प्रकाश के संचार में कोई बाधा नहीं आ सकती, जिससे उस घर के लोग स्वस्थ रह सकते हैं। इस कारण भी वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह असातावेदनीय के उदय का कारण नहीं बन सकता । . २. फिर भी यदि माना जाय कि वास्तुशास्त्र - प्रतिकूल निर्मित गृह अपने निवासियों के असातावेदनीय के उदय में निमित्त बनता है, तो इससे अनेक आगमविरुद्ध सिद्धान्तों का प्रसंग आता है। वास्तुशास्त्रियों ने वास्तुशास्त्र को विज्ञान माना है। भौतिकविज्ञान की यह विशेषता है कि उसके नियमों का कभी उल्लंघन नहीं होता। उससे सदा निरपवादरूप से समान परिणाम की उपलब्धि होती है अतः यदि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में वास असातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त होता है, तो इससे यह सिद्ध होता है कि जो भुनष्य उसमें जन्म से मृत्यु तक निवास करेगा, उसका असातावेदनीय कर्म जन्म से मृत्यु पर्यन्त उदय में आता रहेगा, सातावेदनीय के उदय का अवसर नहीं आयेगा, वह असाता के रूप में संक्रमित होकर उदय में आयेगा। इससे वह मनुष्य पूर्वकृत पुण्यों का फल भोगने से वंचित रह जायेगा और असातावेदनीय के जनवरी 2009 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? सदा उदय में रहने से उसे क्षुधा तृषा की पीड़ाएँ सदा होती रहेंगी, भोजन करने पर भी क्षुधा की पीड़ा शान्त नहीं होगी, पानी पीने पर भी तृषा की वेदना से छुटकारा नहीं मिलेगा। दिन भर के श्रम से थक जाने पर भी उसे नींद नहीं आ पायेगी। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि जो वास्तुशास्त्र प्रतिकूल घर में रह रहे हैं, उनमें से किसी के साथ भी ऐसी प्रकृतिविरुद्ध घटनाएँ घटित नहीं होतीं । आगम में भी इन प्रकृति-विरुद्ध घटनाओं को मान्य नहीं किया गया है। अतः सिद्ध है कि वास्तुशास्त्र विपरीत गृह असातावेदनीय के उदय का निमित्त नहीं है। इसी प्रकार यदि यह माना जाय कि वास्तुशास्त्रानुकूल गृहं स्वनिवासियों के सातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त होता है, तो इससे यह सिद्ध होता है कि जो मनुष्य उसमें जन्म से मृत्यु पर्यन्त रहेगा, उसका सातावेदनीय कर्म जन्म से मृत्यु तक उदय में आता रहेगा, असाता के उदय का अवसर कभी नहीं आयेगा, उसका उदय सातावेदनीय के रूप में संक्रमित होकर होता रहेगा। इसका परिणाम यह होगा कि उसने पूर्व में जो पाप कर्म किये थे, उनका दुःखरूप फल भोगने का अवसर उसे वर्तमान जीवन में कभी नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त सातावेदनीय का नित्य उदय रहने से उसे क्षुधा तृषा आदि की पीड़ाएँ वर्तमान जीवन में कभी नहीं होंगी, फलस्वरूप उसे अन्नजल ग्रहण करने की भी आवश्यकता नहीं होगी, और सातावेदनीय का उदय रहने से उसकी अकालमृत्यु भी नहीं होगी, जैसे सातावेदनीय का उदय रहने से रावण द्वारा प्रयुक्त बहुरूपिणी विद्या से राम और लक्ष्मण की अपमृत्यु नहीं हुई थी किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि जो मनुष्य वास्तुशास्त्रानुकूल निर्मित गृह में रहते हैं, उनके जीवन में ऐसी अतिशयपूर्ण अप्राकृतिक घटनाएँ नहीं घटतीं आगम में भी संसारीजीवों में इन तीर्थंकर सदृश घटनाओं का घटित होना स्वीकार नहीं किया गया है। अतः सिद्ध है कि वास्तुशास्त्रानुकूल निर्मित गृह स्वनिवासियों के सातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त नहीं होता। साता के उदय में अत्यन्त घातक निमित्त भी अकिंचित्कर जिनेन्द्रदेव ने सातवेदनीय आदि पुण्यकर्म में ऐसी शक्ति बतलायी है, जिससे मन्त्रसिद्ध अत्यन्त घातक निमित्त भी अकिंचित्कर हो जाता है। बृहद्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं 44 " रावणेन रामस्वामी - लक्ष्मीधरविनाशार्थं बहुरूपिणी विद्या साधिता, कौरवैस्तु पाण्डवनिर्मूलनार्थं कात्यायनी विद्या साधिता, कंसेन च नारायणविनाशार्थं बह्वयोऽपि विद्याः समारधितास्ताभिः कृतं न किमपि रामस्वामि-पाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निर्विघ्नं जातिमिति । " ( गाथा ४१ / पृ.१५० ) । अनुवाद - " रावण ने राम और लक्ष्मण का विनाश करने के लिए बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी, कौरवों ने पाण्डवों का संहार करने के लिए कात्यायनी विद्या साधी थी और कंस ने कृष्ण को मारने के लिए अनेक विद्याओं की आराधना की थी, किन्तु वे राम, लक्ष्मण, पाण्डवों और कृष्ण का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायीं । और राम आदि ने यद्यपि मिथ्या देवताओं को प्रसन्न नहीं किया, तो भी निर्मल सम्यक्त्व द्वारा उपार्जित पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से सब विघ्न समाप्त हो गये । " यहाँ यह बात स्मृति में रखने योग्य है कि जब सातावेदनीय के उदय में मन्त्रसिद्ध विद्याओं की भी अमोघ घातक शक्ति अकिंचित्कर हो जाती है, तब वास्तुशास्त्र प्रतिकूल निर्मित गृह में यदि कोई घातक शक्ति है, तो सातावेदनीय के उदय में उसके कुछ बिगाड़ पाने की क्या बिसात? सातावेदनीय के प्रबल उदय में निमित्त के स्वरूप में परिवर्तन जिनेन्द्रदेव का उपदेश है कि सातावेदनीय का प्रबल उदय होने पर अत्यन्त घातक निमित्त भी रक्षक बन जाता है। सीताजी की अग्निपरीक्षा के लिए निर्मित अग्निकुण्ड जलसरोवर बन गया। श्रेणिकपुत्र वारिषेण के वध के लिए राजाज्ञा से वधिक के द्वारा चलाई गई तलवार पुष्पहार में परिवर्तित हो गयी। इसी प्रकार यदि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में कोई घातक शक्ति मानी जाय, तो उसके निवासियों के सातावेदनीय के जनवरी 2009 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय से उस घातक शक्ति का रक्षकशक्ति में बदल जाना अनिवार्य है। इस प्रकार जिनोपदिष्ट कर्म-सिद्धान्त के आगे वास्तुशास्त्र अकिंचित्कर सिद्ध होता है। वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में वास से धनक्षय नहीं धन का अलाभ और विनाश असातावेदनीय के उदय से होता है और वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास करने से असातावेदनीय का उदय नहीं होता, अतः जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के अनुसार वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास धनक्षय का कारण नहीं है, यह सिद्ध होता है। वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास अकालमृत्य का भी कारण नहीं गोम्मटसार-कर्मकाण्ड में बतलाया गया है कि जीव की अकालमृत्यु आठ कारणों से होती है-विषभक्षण, वेदनातिशय, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेशपरिणाम, उच्छ्वासनिरोध और आहारनिरोध। (गाथा ५७)। वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में निवास को अपमृत्यु का कारण नहीं बतलाया गया है, न ही यह बतलाया गया है कि उक्त प्रकार के गृह में वास करने से शरीर में विष का संचार होता है या वेदनातिशय, रक्तक्षय आदि होते हैं, न ही ये प्रत्यक्ष प्रमाण से होते दिखाई देते हैं। अतः स्पष्ट है कि वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल निर्मित गृह में वास जिनागम के अनुसार अकालमृत्यु का कारण नहीं है। वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में वास पापकर्म नहीं वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में निवास कोई पापकर्म नहीं है, क्योंकि पाप केवल पाँच ही बतलाये गये हैं। उनमें से उक्त प्रकार के गृह में वास न हिंसारूप है, न असत्यरूप, न स्तेयरूप, न अब्रह्मरूप और न परिग्रहरूप। कुदेवायतन न होने से अशुभपरिणामों का जनक भी नहीं है। अतः उसमें वास करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं हो सकता, अत एव अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि पापफल भी प्राप्त नहीं हो सकते। ऊर्जा के स्रोत प्रत्येक गृह में हैं वास्तुशास्त्री एक यह तर्क देते हैं कि वास्तुशास्त्र-विरुद्ध निर्मित गृह में उन प्राकृतिक ऊर्जाओं का आना अवरुद्ध हो जाता है, जो पर्यावरण में विद्यमान रहती हैं। यह तर्क भी समीचीन नहीं हैं। ऊर्जा का अर्थ है शक्ति। जिनागम के अनुसार शक्ति के स्रोत दो हैं- चैतन्य और पुद्गल। चैतन्यशक्ति वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है और शरीर को पुष्ट और स्वस्थ करनेवाली पौद्गलिक ऊर्जा आहार, जल, प्राणवायु (आक्सीजन) और सूर्यप्रकाश से प्राप्त होती है। शरीर के स्वस्थ और सशक्त रहने के लिये जरूरी विटामिन, आयरन, मिनरल्स आदि सभी तत्त्व इन्हीं चार तत्त्वों में समाविष्ट होते हैं। शरीर को तेज और कान्ति प्रदान करनेवाला तैजस शरीर तो अनादि से जीव के साथ सम्बद्ध है। इनके अतिरिक्त शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा का और कोई स्रोत नहीं है। फिर भी यदि कोई अन्य आवश्यक माना जाय, तो वह पौद्गलिक ही हो सकता है। और सम्पूर्ण पुद्गल पाँच प्रकार की वर्गणाओं में विभक्त हैं, जिनके नाम हैं- आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, तैजसवर्गणा और कार्मणवर्गणा। ये पाँचों वर्गणाएँ सम्पूर्ण लोकाकाश में ठसाठस भरी हुई हैं, उस गृह के आकाश (खाली स्थानों) में भी भरी हुई हैं, जो वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्मित है, और उस गृह के आकाश में भी जो तदनुसार निर्मित नहीं है। अतः वास्तुशास्त्रविपरीत गृह में रहनेवाले मनुष्यों को भी ऊर्जा के सभी स्रोत उपलब्ध होते हैं। हाँ दोनों प्रकार के गृहों में आक्सीजन और सूर्यप्रकाश के संचार के लिए द्वार और खिड़कियाँ आवश्यक हैं केवली के अवर्णवाद से भी केवल दर्शनमोह का बन्ध गृहचैत्यालय का निर्माण पूर्वोक्त विद्वद्वय द्वारा बतलाये वास्तुशास्त्र के अनुसार ही किया जाना चाहिए, ताकि जिनबिम्ब की अविनय और जिनालय अशुद्ध न हो। किन्तु यदि अज्ञानतावश वास्तुशास्त्र के विरुद्ध निर्माण हो जाता है, तो उससे निर्माता की अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि होने का उल्लेख जिनागम में नहीं है। गृहचैत्यालय के निर्माता की जिनदेव में श्रद्धा होती है, तभी वह अपने घर में चैत्यालय बनवाता 6 जनवरी 2009 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, भले ही अज्ञानतावश गलत तरीके से बनवा लेता है। किन्तु जो केवली, श्रुत, संघ और धर्म का अवर्णवाद (निन्दा) करते हैं, उनकी तो केवली आदि में श्रद्धा ही नहीं होती, अपितु घृणा होती है। उनके लिए भी तत्त्वार्थसूत्र में केवल दर्शनमोह का आस्रवबन्ध प्रमुखता से बतलाया गया है (तत्त्वार्थसूत्र/६/१३), अकालमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि रूप फल नहीं बतलाया। तब वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृहचैत्यालय बनवानेवाले को कैसे बतलाया जा सकता है? वह जो श्रद्धापूर्वक जिनदेव की पूजा करता है, उससे उसके पाप भी तो कटते हैं और पुण्यबन्ध होता है। वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में कर्मोदयजनित दुःख के निवारण की शक्ति नहीं जिनागम में जिनभक्ति, जिन-दर्शन-पूजन, दयाभाव आदि में तो कर्मोदयजनित दुःख के निवारण की शक्ति बतलायी गयी है, किन्तु वास्तुशास्त्रानुकूल-गृहवास में नहीं बतलायी गयी। इस प्रकार के गृह में रहने पर भी कर्मजनित दु:खों को भोगना ही पड़ेगा। हिन्दू-वास्तुशास्त्र का भी यही कथन है। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ भवनभास्कर में इसके लेखक श्री राजेन्द्रकुमार धवन लिखते हैं-"वास्तुविद्या के अनुसार मकान बनाने से कुवास्तुजनित कष्ट तो दूर हो जाते हैं, पर प्रारब्धजनित (कर्मोदयजनित) कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं। जैसे औषध लेने से कुपथ्यजनित रोग तो मिट जाता है, पर प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटता। वह तो प्रारब्ध का भोग पूरा होने पर ही मिटता है।" (प्राक्कथन/प्र.७)। जिनागम के अनुसार तो सभी कष्ट स्व-कर्मोदयजनित ही होते हैं, कुवास्तु आदि परद्रव्यजनित कोई भी कष्ट नहीं होता। वास्तुशास्त्रविषयक ग्रन्थों में भी मतभेद उक्त ग्रन्थ में श्री राजकुमार धवन यह भी लिखते हैं कि "इस विद्या (वास्तुविद्या) के अधिकांश ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं और जो मिलते हैं, उनमें भी परस्पर मतभेद है।" (प्राक्कथन/पृ.७)। यह मतभेद सिद्ध करता है कि वास्तुशास्त्र विज्ञान नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक नियमों में मतभेद की गुंजाइश नहीं होती। वास्तुदेव की कल्पना जहाँ सुख दुःख को स्वकीय-कर्मजनित नहीं माना जाता, वहाँ ईश्वर या देवी-देवता द्वारा जनित मानना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जड़ वस्तु में ऐसी विवेक-बुद्धि, ऐसी न्यायशक्ति और दण्डपुरस्कारशक्ति नहीं हो सकती, जो दण्ड के पात्र को दण्डित कर सके और पुरस्कार के पात्र को पुरस्कृत, किसी को अपमृत्यु का दण्ड निर्धारित करे, किसी को कुलक्षय का, किसी को धनक्षय का और किसी को सन्तति और धनधान्य आदि का पुरस्कार नियत कर सके। इसलिए हिन्दू-वास्तुशास्त्र में एक वास्तुपुरुष की कल्पना की गयी है (देखिये, भवनभास्कर / अध्याय १ / पृ.९) और प्रतिष्ठापाठ के कर्ता पं० आशाधर जी तथा प्रतिष्ठातिलक के रचयिता पं० नेमिचन्द्र आदि जैन-वास्तुशास्त्रियों ने वास्तुदेव की कल्पना की है। यही वास्तुपुरुष या वास्तुदेव वास्तुशास्त्र के प्रतिकूल और अनुकूल निर्मित गृहों में रहनेवालों को दण्डित और पुरस्कृत करता है। जीवों को सुख-दुःख देनेवाले ऐसे वास्तुदेव या ईश्वर की सत्ता जिनागम स्वीकार नहीं करता। अतः इस दृष्टि से वास्तुशास्त्र जिनागम के अनुकूल नहीं है और किसी कल्पित देवता के द्वार नियंत्रित होने से विज्ञान भी नहीं है। दिगम्बरजैनमत में वास्तुदेव की कल्पना जिन ग्रन्थों में की गयी है, उनके उद्धरण पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ने अपने लेख वास्तुदेव (जैन निबन्ध रत्नावली, भाग २/प्र.५२३-५२७) में दिये हैं। सन्दर्भ के लिए उसे भी 'जिनभाषित' के प्रस्तुत अंक में उद्धृत किया जा रहा है। जैन वास्तुशास्त्रियों से अनुरोध है कि वे वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल निर्मित गृहों में निवास के जो सुपरिणाम और दुष्परिणाम बतलाते हैं, उनकी जैनकर्मसिद्धान्त से आगमप्रमाणों के द्वारा (भट्टारकीय और अजैन ग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा नहीं) संगति बैठाने की कृपा करें। रतनचन्द्र जैन - जनवरी 2009 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुदेव स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया श्री पं० आशाधर जी ने अपने बनाये प्रतिष्ठापाठ। में गणना की है। पता नहीं आशाधर और नेमिचन्द्र का पत्र ४३ में और अभिषेकपाठ के श्लोक ४४ में वास्तुदेव | वास्तुदेव के विषय में यही अभिप्राय रहा है या और का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है | कोई? फिर भी यह तो स्पष्ट ही है कि जैन कहे जानेवाले श्री वास्तुदेव वास्तूनामधिष्ठातृतयानिशम्। अन्य कितने ही क्रियाकांडी ग्रन्थों में वास्तुदेव को कुर्वन्ननुग्रहं कस्य मान्यो नासीति मान्यसे ।। ४४॥ | जिनगृहदेव के अर्थ में नहीं लिया है। ओं ह्रीं वास्तुदेवाय इदमघु पाद्यं ----1 जैसे कि नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ के परिशिष्ट में अर्थ- हे श्री वास्तुदेव (गृहदेव) तुम गृहों के | वास्तु-बलि-विधान नामक एक प्रकरण छपा है, वह न अधिष्ठातापने से निरन्तर उपकार करते हुये किसके मान्य | मालूम नेमिचन्द्रकृत है या अन्यकृत? उसमें वास्तुदेवों नहीं हो? सभी के मान्य हो। इसी से मैं भी आपको | के नाम इस प्रकार लिखे हैंमानता हूँ। "आर्य, विवस्वत्, मित्र, भूधर, सविंद्र, साविंद्र, ऐसा कह कर वास्तुदेव के लिए अर्घ देवे। | इन्द्रराज, रुद्र, रुद्रराज, आप, आपवत्स, पर्जन्य, जयंत, श्रुतसागर ने वास्तुदेव की व्याख्या ऐसी की है- | भास्कर, सत्यक, भृशुदेव, अंतरिक्ष, पूषा वितथ, राक्षस, 'वास्तुरेव देवो वास्तुदेवः।' घर ही को देव मानना | गंधर्व, शृंगराज, मृषदेव, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंत, असुर, वास्तुदेव है। जैसे लौकिक में अन्नदेव, जलदेव, अग्निदेव | शोष, रोग, नाग, मुख्य, भल्लाट, मृग, आदिति, उदिति, आदि माने जाते हैं। इससे मालूम होता है कि श्रुतसागर | विचारि, पूतना, पापराक्षसी और चरकी ये ४० नाम हैं।" की दृष्टि में वह कोई देवगति का देव नहीं है। वास्तुदेवों के इसी तरह के नाम जैनेतर ग्रन्थों में करणानुयोगी-लोकानुयोगी ग्रन्थों में भी वास्तु नाम के किसी | लिखे मिलते हैं (देखो सर्वदेवप्रतिष्ठाप्रकाश व वास्तुविद्या देव का उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है। आशाधर ने | के अजैन ग्रन्थ) वहीं से हमारे यहाँ आये हैं। वे भी इस देव का नाम क्या है यह भी नहीं लिखा है। यहाँ | आशाधर के बाद के क्रिया-कांडी ग्रन्थों में, पुन्याहवाचन तक कि इसका स्वरूप भी नहीं लिखा है। पाठों में। यह बलिविधान इसी रूप में आशाधर-पूजाप्रतिष्ठातिलक के कर्ता नेमिचन्द्र के सामने भी आशाधर का उक्त श्लोक था। जिसके भाव को लेकर | को भी वास्तुदेवों में गिना है। जैनेतर ग्रन्थों में ऐसा नहीं उन्होंने जो श्लोक रचा है वह प्रतिष्ठातिलक के पृष्ठ | है। ३४७ पर इस प्रकार है एकसंधि-जिनसंहिता में भी वास्तुदेव-बलिविधान सर्वेषु वास्तुषु सदा निवसन्तमेनं, नामक २४ वाँ परिच्छेद है, जिसमें भी उक्त ४० नामों श्री वास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकारं। के साथ दश दिग्पालों के नाम हैं। ऐसा मालूम होता प्रागेव वास्तुविधिकल्पितयज्ञभागमी, है कि वास्तदेवों को बलि देने के पहिले दिग्पालों का शानकोणदिशि पूजनया धिनोमि॥ बलिविधान लिखा हो और लगते ही वास्तुदेवों को बलि ___ अर्थ- सब घरों में सदा निवास करनेवाले और | देने का कथन किया है। इस तरह से भी वास्तुदेवों सबका जिसने उपकार किया है तथा पहिले से ही जिसका | में दिग्पालदेव शामिल हो सकते हैं। अन्य मत में वास्तुदेवों ईशान कोण की दिशा में वास्तुविधि से यज्ञभाग कल्पित | को बलि देने की सामग्री में मधु मांस आदि हैं। जैन है, ऐसे इस वास्तुदेव को पूजता हूँ। | मत में मांस को सामग्री में नहीं लिया है, तथापि मधु अभिषेकपाठसंग्रह के अन्य पाठों में वास्तुदेव का | ठिसग्रह क अन्य पाठा म वास्तुदव का। को तो लिया ही है। उल्लेख नहीं है। हाँ अगर जिनगृहदेव को वास्तुदेव मान एकसंधि-संहिता के उक्त परिच्छेद के १७ वें श्लोक लिया जाये, तो कदाचित् जैनधर्म से उसकी संगति बैठाई | में मजेदार बात यह लिखी है- बलि देते वक्त बलिद्रव्यों जा सकती है. क्योंकि जैनागम में जिनमन्दिर की नवदेवों | को लिये हए आभषणों से भषित कोई कन्या या वेश्या रहा . . 8 जनवरी 2009 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा कोई मदमाती स्त्री होनी चाहिए। यथाबलिप्रदानकाले तु योग्या स्याद् बलिधारणे । भूषिता कन्याका वा स्याद् वेश्या वा मत्तकामिनी ॥ १७ ॥ (परिच्छेद २४) ऐसा कथन नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ में छपे इस प्रकरण के पृष्ठ ४ के श्लोक ११ से भी प्रतिभासित होता है। जिन शास्त्रों में साफ तौर पर अन्यमत के माने हुए देवों की आराधना का कथन किया है और उनकी आराधनाविधि में ऐसी वाहियात बातें वेश्या आदि की लिखी हैं, उन शास्त्रों को हम केवल यह देखकर जिनवाणी मानते रहें कि वे संस्कृत, प्राकृत में लिखे हैं और किन्हीं जैन नामधारी बड़े विद्वान् के रचे हुये हैं, जब तक हमारे में यह आगममूढ़ता बनी रहेगी, तब तक हम जैनधर्म का उज्ज्वल रूप नहीं पा सकेंगे। इन मिथ्या देवों का ऐसा कुछ जाल छाया हुआ है कि पण्डित लोग भी इनके दुर्मोह से ग्रसित हैं। शुद्धाम्नायी पं० शिवजीरामजी राँची वालों का लिखा एक प्रतिष्ठाग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जिसमें इन सभी वास्तुदेवों की उपासना का वर्णन किया है। बलिहारी है उनके शुद्धाम्नाय की । वास्तुदेवों के जो नाम जैन ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं, उनकी अन्यमत के नामों से कहीं २ भिन्नता भी है। जैसे अन्य मत के नाम अर्यमा, सवितृ सावित्र, शेष, दिति विदारि । इनके स्थान में जैनमत के नाम क्रम से ये हैं- आर्य, सविंद्र, साविंद्र, शोष, उदिति और विचारि । इन नामों में थोड़ा सा ही अक्षरभेद है । यह भेद लिखने I पढ़ने की गलती से भी हो सकता है। कुछ नामभेद शायद इस कारण से भी किये हों कि उनमें स्पष्टतः अजैनत्व झलकता है जैसे अर्यमा का आर्य, शेष का शोष, दिति का उदिति बनाया गया है। क्योंकि अन्यमत में अर्यमा का अर्थ पितरों का राजा, शेष का अर्थ शेषनाग, दिति का अर्थ दैत्यों की माता होता है । सविंद्र और साविंद्र शब्दों का कुछ अर्थ समझ नहीं पड़ता है, जरूर ये शुद्ध शब्द सवितृ और सावित्र का बिगड़ा रूप हैं। इसी तरह शुद्ध शब्द विदारि का गलती से विचारि लिखा-पढ़ा गया है। वास्तुदेवों के नामों में रुद्र, जयंत ( यह नाम इन्द्र के पुत्र का है) और अदिति ( यह देवों की माता का नाम है), ये नाम दोनों ही मतों के नामों में हैं। परन्तु मूल में ये नाम साफ तौर पर ब्राह्मणमत के मालूम देते हैं। जैन मान्यता के अनुसार इन्द्र का पुत्र और देवों की माता का कथन बनता नहीं है। जैनमत में देवों के माता-पिता होते ही नहीं हैं, न रुद्र ही कोई उपास्य देव माना गया है। भगवान् महावीर ने ब्राह्मणमत की फैली हुईं जिन मिथ्या रूढ़ियों का जबरदस्त भंडाफोड़ किया था, खेद है उनके शासन में ही आगे चलकर वे रूढ़ियाँ प्रवेश कर गई हैं। संतवाणी से मनुष्य का उद्धार " श्रावकों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चरित्र को जिस पिटारे में रखा जाता है, वह रत्नकरण्डश्रावकाचार कहलाता है आचायों की वाणी का पाठ करने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है। ध्वजा, मंदिर, संत व साधु सभी मंगलसूचक होते हैं। भारत में बायें हाथ की ओर चलने के पीछे भी प्रयोजन है। बायें हाथ की तरफ चलने से सामने से आनेवाला व्यक्ति दायें हाथ की ओर से आएगा, तो मंगलसूचक है तथा सामनेवाले के लिए भी आप मंगलसूचक हो जाएँगे। इसलिए मंदिर की परिक्रमा करते समय भगवान् को भी दाहिनी ओर रखा जाता है। 'जैन निबन्ध रत्नावली' (भाग २) से साभार मनुष्य सांसारिक वृत्तियों में उलझा रहता है। इसके कारण ही उसका कल्याण नहीं हो पाता है। पापक्रिया से निवृत्त होने पर ही सम्यग्दर्शन होता है। समाज में सब को अपनी ही पड़ी है, स्वार्थ के कारण ही मनुष्य मेलमिलाप करता है वह तो पशुओं से भी बदतर हो गया है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं सच्चे गुरु की शरण में जाने से ही मनुष्य का उद्धार हो सकता है। संकलन : सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस, मदनगंज किशनगढ़ जनवरी 2009 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ पं० सनतकुमार विनोदकुमार जैन, प्रतिष्ठाचार्य पिछले दिनों जब मुझे महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में | २. यस्यांगुष्ठप्रमाणापि जैनेन्द्रीप्रतियातना। विभिन्न स्थानों पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ, तो मैंने गहे तस्य न मारी स्यात्तार्क्ष्यभीता यथोरगी॥ ७६ ॥ देखा कि वहाँ गृहचैत्यालय बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध पद्मपुराण सर्ग ९२। हैं, जबकि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि में अर्थात् जिसके घर में अंगुष्ठ प्रमाण भी जिनप्रतिमा गृहचैत्यालय की परम्परा नगण्य है। परन्तु मैंने यह भी | होगी, उसके घर में गारुड़ी से डरी हुई सर्पिणी के समान देखा कि महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में गृहचैत्यालयों का | मारी का प्रवेश नहीं होगा। स्वरूप वास्तु-शास्त्रानुसार नहीं है.तथा असावधानियाँ बहुत श्री मुनिसुव्रत भगवान् के समय में शत्रुघ्न के शासन हैं, जो दुर्भाग्य एवं आपत्तियों को प्रदान करनेवाली हैं। में मथुरा नगर में रोग फैला था, तब सप्त ऋषियों के अत: यह लेख लिखा जा रहा है ताकि विशेषरूप से | निमित्त से वह संकट दूर हुआ था। उन ऋषियों ने गृह कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में गृहचैत्यालयों के स्वरूप तथा | चैत्यालय का उपर्युक्त उपदेश दिया था। हो सकता है असावधानियों में तदनुसार सुधार किया जा सके। तब से ही कृत्रिम गृह चैत्यालय बनाने की परम्परा हो। १. परिभाषा परन्तु गृहचैत्यालय गृह में कहाँ बनाना, कैसी 'दृषदिष्टकाकाष्ठादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञ- प्रतिमा स्थापित करना एवं उसकी कैसी मर्यादा करना वीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं।' बोधपाहुड। आदि का ज्ञान न होने से हम अज्ञानता वश अनेक संकटों अर्थात् जो ईंट पत्थर व काष्ठादि से बनाये जाते | को आमंत्रण देते रहते हैं। हैं तथा जिनमें भगवत-सर्वज्ञ वीतराग की प्रतिमा रहती | २. गहचैत्यालय की दिशा है वे चैत्यालय हैं। चैत्यालय का अस्तित्व अनादिकाल | गृह पूर्व या उत्तरमुखी ही बनाये जाने चाहिये, से है। चैत्यालय कृत्रिम और अकृत्रिम के भेद से दो | इनमें गृह चैत्यालय भी पूर्व या उत्तर मुखी बनाना और प्रकार के हैं। उसमें प्रतिमा भी पूर्व या उत्तरमुखी स्थापना करना श्रेष्ठ चैत्यालयों के अन्य दो भेद भी हैं- १. सार्वजनिक | है। चैत्यालय २. गृह चैत्यालय। इन चैत्यालयों की परम्परा गृहे प्रविशता वामभागे शल्यवर्जिते। भी अनादि काल से है। तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों देवतावसरं कुर्यात्सार्धहस्तोर्ध्वं भूमिके॥ ९८॥ की जो नियत संख्या है वह सार्वजनिक चैत्यालयों की नीचैर्भूमिस्थितं कुर्याद्देवतावसरं यदि। संख्या है। भवनत्रिकों के निवास स्थानों में गृहचैत्यालयों नीचैर्नीचैस्ततोऽवश्यं सन्तत्यापि समं भवेत्॥९९।। की संख्या असंख्यात है। जैसा कहा भी है उमास्वामी-श्रावकाचार __ 'ज्योतिय॑न्तरभावनामरगहे............।' (मंगलाष्टक) __ अर्थात् गृह में प्रवेश करते हुए बायें भाग की अर्थात् ज्योतिष्क, व्यन्तर, भवनवासी आदि देवों | ओर शुद्ध भूमि पर डेढ़ हाथ ऊँची भूमि पर देवस्थान के गृहों में जिनगृह अर्थात् चैत्यालय हैं। ये अकृत्रिम बनाना चाहिये। यदि देवस्थान नीची भूमि पर बनाया हैं। कृत्रिम गृहजिनालयों की परम्परा का जैनागम में अनेक जायेगा, तो वह गृहस्थ अवश्य ही संतानहानि के साथस्थानों पर उल्लेख है। जैसे साथ हीन-हीन अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। १. जिनेन्द्रभक्तश्रेष्ठिनः सप्ततलप्रासादोपरि बहु- | गृह में निवास स्थान की तरफ जिनेन्द्रदेव की रक्षकोपयुक्तपार्श्वनाथप्रतिमा छत्रत्रयोपरि पीठ एवं बायाँ हाथ नहीं होना चाहिये। जिनेन्द्रदेव की (रत्नकरण्डकश्रावकाचर १/२० टीका : प्रभाचन्द्राचार्य)। पीठ एवं बायें भाग की ओर गृहस्थ का निवास गृहस्थ ___अर्थात् जिनेन्द्र भक्त सेठ के सतखण्डा महल के | को शुभ फल नहीं देता है। उन्नति रुक जाती है। दरिद्रता ऊपर अनेक रक्षकों से सहित पार्श्वनाथ भगवान के ऊपर | का साम्राज्य हो जाता है। जिनके घर छोटे हैं और जो तीन छत्र लगे थे......। और भी गृह और देवालय के मध्य खाली स्थान छोड़ने में असमर्थ 10 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, उन्हें गृहचैत्यालय नहीं बनाना चाहिये। जो विस्तृत क्षेत्र में गृहनिर्माण कराना चाहते हैं, वे शिल्प शास्त्रानुसार पूर्व या उत्तर दिशा में विपुल स्थान छोड़कर दक्षिण पश्चिम में गृहनिर्माण करके ईशान कोण में गृहचैत्यालय बनावें । 'ऐशान्यां देवसद्गृहम् ।' उमास्वामी श्रावकाचार में गृहचैत्यालय की दिशा भी ईशान कही है। गृहचैत्यालय शिल्पशास्त्रानुसार ही बनाना चाहिये। इसके बिना उसके विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। शास्त्रमार्ग परित्यज्य आत्मबुद्धिर्यदा भवेत् । तत्फलं सर्वतो नास्ति प्रासादमठमंदिरम् ॥ १५३ ॥ शिल्परत्नाकर / पंचमरत्न अर्थात् जो शास्त्र की मर्यादा और विधि को छोड़कर अपनी बुद्धि का उपयोग कर देवालय, मठ, आश्रम या घर आदि बनवाता है, उसके उस निर्माण का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। प्रासादो मण्डपश्चैव विना शास्त्रेण यः कृतः । विपरीतं विभागेषु योऽन्यथा विनिवेशयेत् ॥ विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते । आयुर्नाशो मनस्तापः पुत्रनाशः कुलक्षयः ॥ वत्थुविज्जा / पृ. १७० अर्थात् शास्त्रप्रमाण के बिना, यदि देवालय, मण्डप (वेदी), गृह और तलभाग आदि का विभाग विपरीत स्वभाव से कर लिया जायेगा, तो उस देवालय आदि से विपरीत फल ही मिलेगा। अर्थात् अरिष्ट उत्पन्न होगा, आयु का नाश होगा, मनस्ताप बना रहेगा, पुत्रनाश होगा और कुलक्षय होगा । वर्तमान समय में नगर के बाह्य भागों में जो कॉलोनी बनती हैं, वे प्रायः दिग्मूढ़ होती हैं । जब गृह ही दिग्मूढ़ बना हो, तब गृह चैत्यालय पूर्व या उत्तरमुखी कैसे बनाया जा सकता है? ऐसे गृह सुख-शांति नहीं दे सकते हैं। यदि दिग्मूढ़ गृहों में गृह चैत्यालय बनाना पड़े, तो अष्टकोणी कक्ष बनाकर उसमें पूर्व या उत्तरमुखी भगवान् विराजमान करके गृह चैत्यालय बनाना चाहिये । दिग्मूढ़ दिशा में मुख करके कभी भी भगवान् विराजमान नहीं करना चाहिये। ३. गृहचैत्यालय का विस्तार गिहदेवालयं कीरइ दारुमयविमाणपुप्फयं नाम । उववीढ पीठ फरिसं जं हुत्त चउरसं तस्सुवरिं ॥ ६३ ॥ वास्तुसार अर्थात् गृहचैत्यालय में पुष्पकविमान-आकार सदृश लकड़ी का गृहचैत्यालय बनाना चाहिये । उपपीठ, पीठ और उसके ऊपर समचौरस फरस आदि बनाना चाहिये । चउ थभं चउ द्वारं चउ तोरण चड दिसेहिं छज्जउडं । पंचकण वीर सिहरं एग दुति वारेग सिहरं वा ॥ ६४ ॥ वास्तुसार अर्थात् चारों कोणों पर चार स्तम्भ, चारों दिशाओं में चार द्वार, चार तोरण, चारों ओर छज्जा और कनेर के पुष्प जैसा पाँच शिखर (एक मध्य में गुम्बज, उसके चारों कोणों पर एक एक गुमटी) करना चाहिये। एक द्वार, दो द्वार अथवा तीन द्वारवाला और एक शिखरवाला भी बना सकते हैं I समचउरंसं गब्भे तत्तो असवाउ उदयसु ॥ ६५ ॥ वास्तुसार गर्भगृह समचौरस और गर्भगृह के विस्तार से सवाई ऊँचाईवाला होना चाहिये । आलयमज्झे पडिमा छज्जय मज्झम्मि जलवट्टं ॥ ६७ ॥ वास्तुसार गृह मंदिर के मध्य में प्रतिमा रखें और छज्जा बाहर निकलता हुआ जल निकलने का द्वार बनावें । न कदापि ध्वजादण्डो स्थाप्यो वै गृहमंदिरे। कलशामलशारौ च शुभदौ परिकीर्तितौ ॥ २०८ ॥ शिल्परत्नाकर १२ अर्थात् गृह चैत्यालय पर ध्वज चढ़ाना शुभ नहीं है, अत्यन्त हानिकारक है । मात्र कलश चढ़ाना शुभ है। शिखरसहित देवालय घर में स्थापित करना और पूजना योग्य नहीं, यदि तीर्थयात्रा में साथ ले जाया जाय, तो दोष नहीं है। (शिल्परत्नाकर - श्लोक-२०९) ४. गृहचैत्यालय में प्रतिमा का स्वरूप - भित्तिसंलग्नबिम्बश्च पुरुषः सर्वथाऽशुभाः । चित्रमयाश्च नागाद्या भित्तौ चैव शुभावहाः ॥ २०४ ॥ शिल्परत्नाकर अर्थात् गृहचैत्यालय में दीवार से स्पर्शित मूर्ति स्थापित करना सर्वथा अशुभ है। यदि चित्र दीवार पर बने हों तो शुभ है। प्रतिमाकाष्ठलेपाश्म दन्तचित्रायसा गृहे । मानाधिका परिवारसहिता नैव पूज्यते ॥ १९ ॥ शिल्परत्नाकर अर्थात् काष्ठ, पाषाण, लेप, हाथीदाँत, लोहा और जनवरी 2009 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंग से चित्रित की गयी चित्राम की प्रतिमा और ग्यारह | दीवारस्थित आले में, अलमारी में भी प्रतिमा स्थापित अंगुल से अधिक बड़ी तथा अपने परिवार युक्त प्रतिमा | नहीं करना चाहिये। गृह चैत्यालय में भी माप के अनुसार गृह चैत्यालय में पूजने योग्य नहीं है। यहाँ पाषाणमूर्ति वेदी बनाकर प्रतिमा स्थापित करना चाहिये। अन्यायोका निषेध इसलिये किया है, ताकि असावधानी वश | पार्जित द्रव्य से निर्मित प्रतिमा भी अशुभ होती है। खण्डित न हो जावे। कहा भी हैगृह चैत्यालय में किन तीर्थंकरों की मूर्ति विराजमान अन्यायद्रव्यनिष्पन्ना वास्तुदलोद्भवा मता। न करें, इस सम्बन्ध में दो मत हैं हीनाधिकांगिनी प्रतिमा स्वपरोन्नतिनाशिनी॥१४२॥ १. मल्लिनेमीवीरो गिहभवणे सावए ण पूइज्जइ। (शिल्पस्मृतिवास्तुविद्यायाम् उत्तरार्ध) इगवी संतित्थयरा संतगरा पूइया वंदे॥ ___ अर्थात् अन्याय से उपार्जित द्रव्य से या अन्य किसी प्रतिष्ठाकल्प (उपा. सकलचन्द्र) | कार्य हेतु लाये हुए द्रव्य से प्रतिमा का निर्माण कराया __ अर्थात् गृह चैत्यालय में मल्लिनाथ, नेमिनाथ एवं | हो अथवा प्रतिमा हीनाधिक अंगोपांगवाली हो, तो स्वमहावीर स्वामी की प्रतिमा अति वैराग्यकारक होने के | पर की उन्नति का विनाश होता है। अतः देवालय और कारण नहीं रखनी चाहिये। शेष २१ तीर्थंकरों की प्रतिमा प्रतिमा शास्त्रानुसार माप से बनवाकर स्थापित करना ही रखें। इसी प्रकार शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्-श्लोक- | चाहिये, तभी सद्फल की प्राप्ति होती है, अन्यथा परेशान ६३ में भी कहा है। होना पड़ता है। २. बालब्रह्मचारी वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, देवतानां गृहे चिन्त्य मायाद्यंगचतुष्टयम्। पार्श्वनाथ और महावीर, ये पाँच तीर्थंकर वैराग्यकारक नवांगनाडीवेधादि स्थापकामरयोर्मिथः॥ हैं। इनकी प्रतिमा श्रावक गृहचैत्यालय में स्थापित न करें। वत्थुविज्जा, पृ.१७० (वास्तुसार पृ. ९७) अर्थात् देवालय में आय, व्यय, अंश और नक्षत्र गृहचैत्यालय में एक से ग्यारह अंगुल की विषम | इन चार अंगों का तथा देव, देवालय, और देव को स्थापन अंगुल प्रमाण प्रतिमा ही शुभकारक होती है। ग्यारह | करनेवाले यजमान के परस्पर में नाड़ी वेध, योनि, गण, अंगुल से बड़ी प्रतिमा गृह चैत्यालय में स्थापित न करें। राशि, वर्ण वश्य, तारा, वर्ग और राशि स्वामी इन नव वास्तुसार प्रकरण (१,२,३,४) में भी इस प्रकार कहा अंगों का विचार अवश्य करना चाहिये, तभी गृहचैत्यालय शुभप्रद होता है। 'गृह चैत्यालय में एक अंगुल ऊँची प्रतिमा श्रेष्ठ, भावार्थ- देवालय में प्रतिष्ठाचार्य से पूछकर अपने दो अंगुल ऊँची धननाशक, तीन अंगुल वृद्धिकारक, चार | नाम, राशि आदि के अनुसार नामवाले तीर्थंकर की अंगुल पीड़ाकारक, पाँच अंगुल बुद्धिप्रदा, छह अंगुल | मूर्ति विराजमान करना योग्य है। उद्वेगकारक, सात अंगुल ऊँची वृद्धिकारक, आठ अंगुल | | ५. गृहचैत्यालय सम्बन्धी सावधानियाँ बुद्धिहानिकारक, नव अंगुल पुत्रप्रदा, दस अंगुल धननाशक १. गृह चैत्यालय में शुद्ध वस्त्र पहनकर ही पूजा, और ग्यारह अंगुल ऊँची प्रतिमा गृह चैत्यालय में सर्व अभिषेक आदि करना चाहिये। यदि भगवान् के बहुमान अर्थ सिद्धिकारक है।' (उमास्वामी श्रावकाचार-१०१ से | एवं मर्यादाओं का ध्यान नहीं रखा जायेगा, तो वह गृहस्थ १०३ एवं शिल्परत्नाकर १२/१४९-१५१)। के पतन, दरिद्रता एवं कुलक्षय का कारण बनेगा। · अचल प्रतिमा गृह चैत्यालय में स्थापित नहीं करना २. गृह चैत्यालय में प्रतिदिन अभिषेक एवं पूजन चाहिये। होना अति आवश्यक है। सूतक पातक के दिनों मे किसी नैक हस्तादितोऽन्यूने प्रासादे स्थिरता नयेत्। अन्य जैनी भाई को बुलाकर अभिषेक पूजा करानी चाहिये। स्थिरं न स्थापयेद् गेहे गृहीणां दुःख कृद्धयत्॥१३०॥ ३. चैत्यालय में सूर्यास्त के समय भगवान् की . (षष्ठमोऽधिकारः शिल्पस्मति-वास्तुविद्यायाम) | आरती अवश्य करनी चाहिये। अर्थात् एक हाथ से छोटी वेदी एवं गृह चैत्यालय | ४. पूजन के द्रव्य बनाते समय चावल पीले करने में स्थिर (अचल) प्रतिमा स्थापित करना दुःखकारक है।। के लिए केसर अथवा हरसिंगार के फूल प्रयोग करने 12 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये, हल्दी या पीले रंग का प्रयोग कदापि न करें।। १६. रसोईघर में, बैठक में, शयनकक्ष में, स्टोर ५. बाजार की धूप अशुद्ध होती है, चन्दन का | में चैत्यालय कदापि न बनायें। ये अत्यन्त दोष को उत्पन्न बुरादा भी प्रासुक नहीं होता, अतः इनको या तो घर | करनेवाले तथा अशान्ति, दरिद्रता एवं ऋद्धि-सिद्धि को पर तैयार करें या लोंग कूटकर धूप बनायें। अगरबत्ती | समाप्त करनेवाले होते हैं। भी शुद्ध होनी चाहिये। १७. यदि हमारा निवास छोटा है, घर में जगह ६. किसी भी रथयात्रा या उत्सव के अवसर पर | ही नहीं है, चैत्यालय को वास्तुशास्त्रानुसार निर्मित नहीं मूर्ति स्पर्श करनेवाले को शुद्ध धुला हुआ धोती-दुपट्टा | कर पा रहे हैं, तो चैत्यालय नहीं बनाना चाहिये। अविनय पहनना आवश्यक है। पेन्ट-शर्ट पहनकर मूर्ति स्पर्श कदापि | पूर्वक जिनबिंब विराजमान करना उनकी पूज्यता एवं न करें। पवित्रता का ध्यान नहीं रख पाना हमारे जीवन में अनिष्ट ७. चैत्यालय में टेलीफोन, खण्डित मूर्ति, कागज- करनेवाला है। प्लास्टिक-काँच एवं एल्यूमिनियम आदि की मूर्तियाँ न १८. वास्तुशास्त्र के विपरीत निर्मित मंदिर समस्त रखें। ये पूजनीय नहीं होती हैं। समाज को भी प्रभावित करते हैं और गृहस्वामी पर भी ८. स्वर्गस्थ एवं जीवित गृहस्थों के तथा बीड़ी-| विपरीत प्रभाव डालते हैं, अतः गृहचैत्यालय बनाते समय साबुन आदि के विज्ञापनसहित भगवान् और मुनिराजों | वास्तु एवं प्रतिष्ठाशास्त्रों के निर्देशों का पूर्ण ध्यान रखना के चित्र नहीं लगावें। हिंसक पशुपक्षियों के चित्र भी | चाहिये। न लगायें। १९. चैत्यालय में दिगम्बर, वीतरागी प्रतिमाओं के ९. चैत्यालय में झाड़, कचरा, डस्टबीन, भोजन | साथ सरागी देवीदेवताओं की प्रतिमा कदापि स्थापित न करें। सम्बन्धी कच्ची पक्की सामग्री, गृहस्थी सम्बन्धी हल्की | २०. जिन घरों में गृहचैत्यालय तो हैं, परन्तु उनकी भारी वस्तुएँ, तिजोरी आदि न रखें। सिर्फ मंदिर से | पूजा व्यवस्था उचित रूप से नहीं की जा रही है, उनको संबन्धित वस्तुयें ही रखें। चाहिये कि वे उन प्रतिमाओं को निकटस्थ जिनमंदिर १०. जूंठे हाथ एवं मुँह सहित या जूता-चप्पल | में स्थापित करके उनकी पूजा भक्ति वहीं जाकर करें। पहनकर, निद्रा के एवं शौच के कपड़े पहनकर, अधूरे | वर्तमान समय में उपर्युक्त सावधानियाँ रखना वस्त्र पहनकर चैत्यालय में प्रवेश न करें। रजस्वला | अत्यन्त कठिन हो गया है। लोगों ने बताया कि घर स्त्रियाँ कदापि प्रवेश न करें और दरवाजे पर भी न बैठें। | में जो वृद्ध माता-पिता हैं, वे मंदिर तक नहीं जा सकते, इनकी मंदिर पर छाया पडना भी महा अशभ है। अतः उनके दर्शन पूजन के लिए ये चैत्यालय बनाये ११. चैत्यालय से लगा हुआ शौचालय, मूत्रालय, जाते हैं। उन महानुभावों से निवेदन है कि अत्यन्त कचराघर, जूते-चप्पल रखने का स्थान न हो। | मजबूरी की हालत को छोड़कर गृह चैत्यालय न बनाना १२. चैत्यालय के ऊपर की छत पर किसी को | ही श्रेयस्कर है। जिनप्रतिमा की भक्ति-पूजन यद्यपि परम्परा चलना फिरना नहीं चाहिये और उस छत पर अन्य सामान | से मोक्ष का कारण है, परन्तु यदि अविनय या अशुद्धि भी नहीं रखना चाहिये। रखी जाये, तो वही प्रतिमा नरकादि-गमन का कारण १३. सीढ़ियों के नीचे अथवा सेप्टिक टैंक के | बनती है। अतः अपने गृहचैत्यालय के सम्बंध में इस ऊपर चैत्यालय नहीं बनायें। लेख के अनुसार निर्माण तथा शुद्धि-सम्बन्धी समस्त १४. चैत्यालय में धूल, गंदगी एवं मकड़ी के | कमियों को तुरन्त दूर करें। इस लेख का यही सद्अभिप्राय जाले न लगने दें तथा पूजन के समय टेलीविजन एवं | है। यदि कोई कमी अथवा जिज्ञासा हो, तो उसे अपने फिल्मी संगीत की आवाज नहीं आनी चाहिये। । परिचित किसी भी प्रतिष्ठाचार्य को बुलाकर शीघ्र से १५. शास्त्रभण्डार नैऋत्य या दक्षिण दिशा में बनायें | शीघ्र ठीक कराना ही अपने परिवार एवं समाज के लिए और इसमें स्कूल की पुस्तकें, व्यापार की रसीदबुक, | कल्याणकारी होगा। बहीखाते आदि लौकिक पुस्तकें या अन्य धर्म के शास्त्र रजवाँस (जिला-सागर) म. प्र. पिन- ४७०४४० बिल्कुल न रखें। मात्र जिनवाणी ही रखें। मो. ९४२५६७२१५४, ९४०६५१८९७१ जनवरी 2009 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत ठुकराओ धर्म सिखाओ गले लगाओ आचार्य विद्यानंद मुनि धर्म में श्रद्धा बनाए रखिए। यदि श्रद्धा से डिग | है। श्रावक, जो रुचिपूर्वक गुरुमुख से श्रवण करे, स्वयं जाएँ, तो फिर क्या बचेगा? वीतराग प्रभु में, श्रद्धा व | वाचना करे, स्वाध्याय करे, अध्ययन करे, प्रथमानुयोग भक्ष्य-अभक्ष्य के विचार पर दृढ़ रहेंगे, तो समाज को | आदि चारों अनुयोगों का अध्ययन करे। बाधा नहीं आएगी। प्रायः कहा जाता है- देश के निर्माण व उन्नति यदि आप समतावादी हैं, धर्मात्मा हैं, तो किसी | के लिए आदर्श नागरिक होने चाहिए। जनपद में रहनेवाले का तिरस्कार मत करो, द्वेष मत करो। तिरस्कार से हमने | सभी नागरिक तो होते हैं, पर उन्हें 'आदर्श' होना चाहिए। बहुत हानि उठाई है। गलत कार्य का प्रायश्चित्त ही उसका | नागरिक के साथ 'आदर्श' और जोड़ा जाता है, यह सार्थक दण्ड है। जाति-बहिष्कार से समाज को ही हानि होती है। सामान्यतः देश के सभी वासी नागरिक हैं, पर आदर्श है। अरे, प्रेम नहीं कर सकते हो, तो द्वेष भी मत करो।। देश के नागरिक ही आदर्श हैं, अथवा जहाँ के नागरिक वह आज नहीं तो कल आपके प्रेमव्यवहार से अवश्य | आदर्श हैं, वह देश भी आदर्श है। जैसे देश की उन्नति, सुधर जाएगा। प्रगति के लिए 'आदर्श' नागरिक की आवश्यकता है, पहले स्वयं आदर्श बनकर दिखाएँ, स्वयं मार्ग पर | वैसे ही समाज की प्रगति, उन्नति के लिए भी आदर्श चलकर दिखाएँ, तो दूसरे उसे स्वयं अपनायेंगे, आपका | लोगों की आवश्यकता तो होती ही है। इसके अतिरिक्त अनुकरण करने लगेंगे। कुछ अन्य आवश्यकताएँ भी होती हैं। भगवान् ऋषभदेव इस धरातल पर उत्पन्न हुए, | कोई समाज एक दिन में नहीं बनता। उसकी परम्परा उन्होंने प्रजापति के रूप में शासन कर यहाँ के नागरिकों | अविच्छिन्न काल से चली आती है, तभी वह समाज को जीवन-यापन की विधि बताई। असि, मसि, कृषि, सुदृढ़ बनता है। जैसे हमारे समाज की परम्परा भगवान वाणिज्य, व्यापार और कला से षड्विध विद्याएँ सिखायीं। ऋषभदेव से चली आ रही है। पहले कल्पवृक्ष का युग जब राज-काज छोड़कर तपस्या की और केवलज्ञान प्राप्त | था। उस युग से निकल कर हम कृषियुग में आये, किया तब, दिव्यध्वनि के माध्यम से गृहस्थों को, श्रावकों | वहाँ से निकलकर आज के विज्ञान व कलयुग में आ को उनके षड्आवश्यक कर्तव्य बताये गये। काल बदलता रहता है, युग बदलता है। समय देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। बदलता है, क्षण-प्रतिक्षण पर इनमें जो अविच्छिन्न चला दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने॥ | आ रहा है वह है 'धर्म'। उस 'धर्म' की परम्परा के दैनिकचर्या के दोष-निवारण हेतु ये छः उपाय | कारण ही हम भगवान् ऋषभदेव से आज तक अविच्छिन्न (कर्तव्य) बताये। उनके समय में श्रमण, श्रमणी, श्रावक, | चले आ रहे हैं। हमारा समाज परम्परागत रूप से चला श्राविका इस चतुर्विध संघ की स्थापना हो चुकी थी, | आ रहा है। देश में अनेक महापुरुष हुए, उन्होंने अनेक जैसे चार दिशाएँ होती हैं, वैसे ही समाज की ये चार | सम्प्रदाय चलाये, उनमें से अधिकांश आज, काल के दिशाएँ हैं। यह चतुर्विध संगठन सामाजिक व्यवस्था व | | गोद में समा गये। उनके ग्रन्थ, उनके अनुयायी आज संगठन-शक्ति के लिए था। श्रमण अर्थात् साधु, श्रमणी | नहीं रहे, केवल उनके नामोल्लेख ही मिलते हैं, जैसे अर्थात् साध्वी, श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ और श्राविका | चार्वाक के ग्रन्थ 'तत्त्वोपलब्धि' का केवल उल्लेख ही अर्थात् सद्गृहस्थ महिला। ये चारों पारिभाषिक धार्मिक | मिलता है, सांख्यमत का 'सांख्यसूत्र' मिलता है, वैशेषिक शब्द हैं। श्रावक शब्द का कोष में अर्थ है 'आस्तिक', का 'वैशेषिकसत्र' मिलता है पर उनके अनुयायी नहीं आस्तिक अर्थात् जिसको आत्मा पर विश्वास है। श्रावक | मिलते। अर्थात् श्रद्धायुक्त, श्रद्धालु आदि। इस शब्द की अनेक | श्रावकों के साथ ऐसा नहीं है। श्रावक संख्या में परिभाषाएँ, अर्थ हैं, पर 'आस्तिक' अर्थ सर्वाधिक प्रमुख | अवश्य घट-बढ़ गये, पर उनकी परम्परा अविच्छिन्न 14 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से चली आ रही है, बाधाएँ अनेक आई, पर वे खत्म नहीं कर सकी, हम तब भी चट्टान की तरह खड़े रहे। प्रत्येक समाज में काल के अनुसार, काल के प्रभाव से दोष उत्पन्न हो जाते हैं, वे दूर भी होते हैं। चौबीस तीर्थंकरों के काल के बीच में छः बार मुनि नहीं रहे, छः बार मुनिपरम्परा क्षीण हुई, केवल गृहस्थ ही रहे, तो समाज में भी शिथिलताएँ आ गईं, कुछ दोष उत्पन्न हो गए। श्रावक व साधु धर्म-रथ के दो पहिये हैं, दोनों की गति एक-दूसरे पर आधारित है। जब तक ये एक दूसरे पर अवलम्बित हैं, तब तक धर्म की स्थिति मजबूत है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज कहते थे, आहार के समय श्रावक का हाथ ऊँचा रहता है और साधु का हाथ नीचा । आहार समाप्त होने के बाद गृहस्थ प्रणाम करते हैं, तब गृहस्थ का हाथ नीचे व आशीर्वाद देने के लिए साधु का हाथ ऊँचा हो जाता है, इस प्रकार कभी श्रावक का, तो कभी साधु का हाथ ऊँचा रहता है, दोनों एक दूसरे से बँधे हुए हैं। इसके लिए कहासाधु सदाचारी गृहस्थ से ही आहार ले और गृहस्थ भी साधु देखकर आहार दें। दोनों की क्रिया पर एक दूसरे का अंकुश है। यदि ऐसा नहीं होगा तो अंकुश समाप्त हो जाने से सामाजिक व्यवस्था खत्म हो जाएगी। साधु सद्गृहस्थ से आहार न ले, कहीं भी होटल बाजार में खा ले, तो वह अपने मार्ग से भटक जाएगा, स्वैराचारी हो जाएगा। चित्रं जैनी तपस्या हि, स्वैराचारविराधिनी । इसी परम्परा के कारण आज कलियुग में साधु स्वैराचारी नहीं हैं, वह श्रावक के घर जाकर ही आहार लेते हैं और इसलिए श्रावक भी उनको आहार देने के लिए तत्पर रहते हैं। दोनों आहार और ज्ञान का आदानप्रदान करते हैं। जिस घर में कोई अभक्ष्य पदार्थ पड़ा हो, साधु वहाँ आहार नहीं लेगा, इस विचार से गृहस्थ सावधान रहता है और कई बुराइयों से बच जाता है। इसी प्रकार साधु की आहर सम्बन्धी कोई गलत क्रिया श्रावक देखते हैं, तो श्रावक उसे बतावें कि आपकी चर्या में यह नहीं होना चाहिए। इस प्रकार एक दूसरे पर अंकुश की परिपाटी चली आ रही है। न्याय से धनोपार्जन करना श्रावक का कर्त्तव्य है । 'अन्याय करो या झूठ बोलो' कोई धर्म ऐसा नहीं कहता । 'सत्य बोलो' सब यही कहते हैं। यह बात पृथक् है कि हर व्यक्ति का सत्य पृथक् होता है। सर्वथा सत्य कोई नहीं बोलता, उसमें असत्य का अंश होता है और इसी प्रकार सर्वथा असत्य भी कोई नहीं बोलता, उसमें भी सत्य का अंश अवश्य होता है। कोई सर्वथा सत्य व सर्वथा झूठ नहीं बोलता पूर्ण सत्य तो कभी बोला ही नहीं जा सकता, शब्दों में इतनी क्षमता इतनी ताकत ही नहीं है, शब्द पूर्ण सत्य बोलने में असमर्थ हैं। जो भी मुँह से बोला जाएगा वह द्वितीय श्रेणी का असत्य होगा । पूर्ण सत्य तो आत्मानुभव आत्म-साक्षात्कार विषय है। इसीलिए "सत्यं शिवं सुन्दरं" का क्रम रखा जो सत्य है, वही शिव है अर्थात् कल्याणकर और सुन्दर है, वही मोक्ष का कारण है। श्रावक, यह एक सामान्य शब्द है, नाम है। पं० आशाधरसूरि ने सागारधर्मामृत में कहा नामतः स्थापनातोऽपि जैन: पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः ॥ ५४ ॥ समाज में कुछ लोग नामधारी होते हैं अर्थात् कुछ लोग नामधारी जैन हैं, जो न कभी मंदिर जाते हैं, न कभी किसी सामाजिक समारोह आयोजन में, वे तो बस जैनपरिवारों में जन्म होने से जैन हैं । 2 'प्रतिष्ठातिलक' में तीर्थंकर, श्रमण श्रावक सभी के नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव के आधार पर चार प्रकार से विभाग किये गये हैं। नाम श्रावक वे हैं, जो जैनकुल में जन्में हैं, जिनका आचरण श्रावक के अनुकूल नहीं है। किसी मूर्ति - चित्र आदि में श्रावक की स्थापना करना स्थापना श्रावक है, जैसे किसी श्रावक का चित्र । द्रव्य श्रावक वह है, जो श्रावक की परिपाटी व परम्परा निभाता है, परन्तु उसमें श्रद्धा नहीं होती है जैसे मंदिर जाना, चावल चढ़ाना आदि क्रिया करे, किन्तु तत्त्वों पर श्रद्धा न हो भाव भावक वह है जिसे धर्म पर दृढ़ आस्था होती है, श्रद्धा होती है, जो आचरण में, आचारविचार में सतर्क रहता है, रागी देवी-देवताओं को नहीं पूजता । जैसे भारत का संविधान है, वैसे ही हमारा भी संविधान है। इन्द्रनन्दि श्रावकाचार में लिखा हैसगुणो निर्गुणो वापि श्रावको मन्यते सदा । जनवरी 2009 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - । नावज्ञा क्रियते तस्य तन्मूला धर्मवर्तना ॥ ९॥ ताऊजी ने कहा सभी चुप रहे, वहाँ कोई नहीं जाना श्रावक में यदि कुछ कमी है, आचरणगत कोई चाहता था। ताऊजी समझ गये। वे स्वयं चुपचाप चल दोष हो, तो उसका तिरस्कार मत कीजिये उसे समझाइये, पड़े वहाँ जाकर उस बेटे को पुकारा। उसने देखा। वात्सल्यभाव से उसका हृदयपरिवर्तन कीजिए। जैसे बेटा ताऊजी स्वयं आये हैं मेरे पास बहुत आश्चर्य हुआ ! कोई गलत काम कर देता है, तो पिता उसे प्यार से उसे नीचे उतर कर आया। ताऊजी ने कहा- चलो, घर समझाता है- बेटे! ऐसा मत करो। वह वात्सल्य से उसका में आज विवाह है। वह ताऊजी को इन्कार नहीं कर हृदयपरिवर्तन करता है। इसी प्रकार का व्यवहार पथ सका और साथ चल दिया। घर पहुँचकर ताऊजी उसे से विचलित श्रावक के साथ करना चाहिये चारित्र मोहनीय अपने साथ मंदिर ले गये, तिलक लगाया। खाना खाने । - कर्म के उदय से कुछ दोष उसमें आ गये हैं, इसलिए बैठे तो उसे अपने पास बैठाया। सब खाने लगे पर उसका तिरस्कार मत कीजिए । पापी को धर्म समझाइये | वह रो रहा था । मन में सोच रहा था- मैं इतना पापी, पापी को ही तो सुधारना है। पुण्यात्मा, जो धर्म से विमुख मैंने घर की मान मर्यादा खो दी और ताऊजी मुझे अपने नहीं है, उसे क्या सुधारेंगे? मैले कपड़े को ही तो साफ पास बैठा कर भोजन करा रहे हैं! मन पश्चात्ताप से करना है। जो साफ है उसे क्या साफ करेंगे? इसीलिए भरा था। विवाह सम्पन्न हो गया। ताऊजी ने कहा जाओ, कभी किसी अशुभ कर्म के तीव्र उदय से कोई श्रावक अब तुम जा सकते हो वह रोने लगा, ताऊजी के कुछ भटक जाता है, तो उसका तिरस्कार मत कीजिये। पैर पकड़ लिये। ताऊजी ! अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा, आपको एक घटना बताता हूँयहीं रहूँगा। मैंने आप सभी को बहुत दुःखी किया है, मुझे माफ कीजिये, प्रायश्चित्त दीजिए। उसने धीरे-धीरे व्रत धारण कर लिये और फिर साधु हो गया। समाधिमरण द्वारा देहत्याग किया। बहेरा गाँव में आज भी उसकी समाधि बनी हुई है, जहाँ बड़े-बड़े आचार्य, मुनि वगैरह जाते हैं। फलटण में एक परिवार था। उसके सभी सदस्य धार्मिक प्रवृत्ति के थे । दुर्योग से उस परिवार का एक लड़का व्यसनों में फँस गया। कुछ समय बाद वह घर छोड़कर चला गया और एक वेश्या के घर रहने लगा। दस-बारह वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उसके घर में विवाह का अवसर आया। घर के प्रमुख बहुत धार्मिक थे, प्रतिमाधारी और बहुत समझदार, उन्होंने घर के अन्य सदस्यों से कहा- अरे! शादी में तो उसे बुलाओ। निमंत्रण पत्र देकर आओ। लड़कों ने कहा- हम उसे वहाँ जाकर निमन्त्रण-पत्र दें ? हम नहीं जाते। उन्होंने कहा- अच्छा! घर के बाहर से आवाज लगाकर कह देना कि हमारे घर में शादी है, तुम्हें ताऊजी ने बुलाया है। आखिर उससे खून का सम्बन्ध है। घर का एक सदस्य गया और बाहर रास्ते से कह कर आ गया- तुम्हें ताऊजी ने बुलाया है, घर में शादी है। वह लड़का सोचता रहा ताऊजी ने मुझ जैसे पापी को क्या याद किया होगा ? वे स्वयं कितने धर्मात्मा हैं। उन्होंने याद नहीं किया होगा, यह मुझे बहका गया है। यह सोचकर वह विवाह में नहीं गया। विवाह के दिन ताऊजी ने देखा वह नहीं आया। उन्होंने उस लड़के से पूछा, जो उसे बुलाने गया था- तुमने उसे सूचना दी थी या नहीं? उसने बतायाताऊजी, कह तो आया था । जाओ अभी बुलाकर लाओ। चाहता हूँ । शास्त्रीजी ने उसे बुलाकर बात की । तस्कर लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल की बात है। एक तस्कर था, उन दिनों उस पर केस चल रहा था । उसी काल में भारत-पाक युद्ध हुआ। उस तस्कर ने शास्त्री जी को कहलवाया मैं आप से बात करना चाहता हूँ। मैं आपको युद्ध-सम्बन्धी कोई गुप्त बात बताना 16 जनवरी 2009 जिनभाषित इसलिए इन्द्रनन्दि आचार्य ने कहा- कोई निर्गुणी है, तो भी उसका तिरस्कार मत कीजिए। वात्सल्य से उसे परिवर्तित कीजिये जो नामधारी जैन हैं, वह भी समाज के काम आता है। अच्छे प्रशासक की भी यही नीति होती है। छोटा अपराधी है उसे कुछ समय के लिए सजा देकर छोड़ देते हैं, ताकि वह सुधर जाय । उसे फाँसी तो नहीं दे देते। हमारे संविधान में भी यही कहा- सगुण तो आदरणीय हैं ही, पर निर्गुण भी निरादरणीय नहीं है। वह तिरस्कार करने योग्य नहीं है। आप समतावान् हैं, धर्मात्मा हैं, तो उससे द्वेष मत करो। अरे प्रेम नहीं कर सकते हो, तो द्वेष भी मत करो । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने बताया-पानी की जो नहर उधर से गुजरती है, उसका | उसी प्रकार का सात्त्विक भोजन करते हैं। वह दिन हमें रास्ता बदल दीजिये। इससे शत्रु-पक्ष की एकत्र सारी | स्मरण कराता है कि हम भी कभी जैन थे। शस्त्र-सामग्री पानी में डूब जायेगी। शास्त्रीजी ने जवाब सोचिये! तिरस्कार करने के कारण हमने कितनी दिया- ठीक है। पता लगाकर ऐसा करेंगे। यदि इस | हानि उठाई है। यदि कोई गलत कार्य करता है, तो कार्य में तुम्हारे बताये अनुसार सफलता मिलती है, तो उसे सजा दे देनी चाहिए, प्रायश्चित्त कराना चाहिए। जाति तुम्हारे दोष माफ कर दिये जायेंगे। पत्रकारों ने इसकी | बहिष्कार से समाज को कितनी हानि होती है। टिप्पणी में लिखा- कभी-कभी खोटा पैसा भी काम इसी प्रकार अहमदाबाद में भी एक 'साराभाई' आ जाता है। इसलिए उसे भी कूड़े में मत फेंकिये। | परिवार है, जो पहले जैन था। पर किसी कारणवश बहिष्कृत इसी प्रकार कोई श्रावक थोड़ी सी गलती करता | हो जाने से वे भी अन्य धर्म मानने लगे। है, तो उसका तिरस्कार, बहिष्कार मत कीजिये। उसे | मानव-जीवन विचित्र है, अनेक संकल्प-विकल्पों सीने से लगाइये, समझाइये। आज. नहीं तो कल, वह से भरा है यह। यदि भूल से कोई गलत कार्य कर प्रेमपूर्ण-व्यवहार से अवश्य सुधर जायेगा। जब उसका | लिया, तो उसे बहिष्कृत मत कीजिए। हम नित्य ही चारित्रमोहनीय कर्म का उदय समाप्त होगा, तब वह | तो शास्त्र में पढ़ते हैं कि अंजन चोर, विद्युत चोर आदि सुधरेगा। यह मत समझिये कि वह बिल्कुल बेकार है। बड़े-बड़े अपराधियों को, गलती करनेवालों को हमारे महिलाएँ ये सोचकर फटा कपड़ा भी सहेज कर रख | आचार्यों ने मार्गदर्शन दिया, सुधारा, उन्हें कुपथ से सुपथ लेती हैं कि जमीन पोंछने के काम आएगा, पर मोड़ा। पर आज हम इस बात को नहीं अपनाते। सम्यग्दृष्टि कभी किसी का तिरस्कार नहीं करता। | केवल इन घटनाओं को पढ़ लेते हैं। आज समाज संकुचित हम तिरस्कार करने के अधिकारी भी नहीं हैं। दूसरों | हो गया है। इतिहास और आज की परिस्थिति दोनों को के जीवन को आदर्श बनाने की चेष्टा मत कीजिये।| देखकर कार्य कीजिये। मेरा यह सब कहने का तात्पर्य दूसरों के पीछे लग गये, तो स्वयं ठन-ठन रह जायेंगे। यह नहीं है कि आप जान-बूझ कर गलती करते जायें पहले स्वयं आदर्श बन कर दिखायें, स्वयं उस मार्ग | और फिर समाज से वात्सल्यभाव की अपेक्षा करें। साथ पर चल कर दिखायें, तो दूसरे आपको देखकर उस | में कहें कि हमें तो महाराज जी ने छूट दे दी। मेरा मार्ग को स्वयं अपना लेंगे, आपका अनुकरणकर लेंगे। यही अभिप्राय है- श्रावकों के नियमों का पालन करते कुछ वर्ष पहले की बात है, एक दिन जनता | हुए एक आदर्श मानव बनिये। यदि उसमें भूल से कोई पार्टी के नेता श्री के.के. हेगड़े की पत्नी आईं। उनके | दोष आ जाय तो प्रायश्चित्त कराइये। साथ धर्मस्थल के हेगड़े परिवार की महिला भी थीं।। | आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- जितनी शक्ति है धर्मस्थल का हेगड़े परिवार जैनपरिवार है और श्री के.के. | उतना कीजिये। यदि नहीं कर सकते तो श्रद्धा कीजिये, हेगड़े का परिवार वैष्णव परिवार है। मैंने उनसे पूछा- | श्रद्धा से मत डिगिये। आप भी हेगड़े, ये भी हेगड़े। पर एक जैन हैं, एक | जदि सक्कदि कादं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं। वैष्णव, यह कैसे? इस पर श्रीमती के.के. हेगड़े ने बताया- सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ॥ १५४॥ सौ वर्ष पूर्व हमारा परिवार भी जैन-धर्मावलम्बी था। उस नियमसार समय हमारे परिवार के एक व्यक्ति ने शिकार कर दिया, कोई व्यक्ति स्वयं रात में भोजन करना नहीं छोड़ जिसके कारण समाज ने उनका (जाति) बहिष्कार कर | सकता, तो वह यह नहीं कहे कि क्या रखा है दिन दिया। हमारा परिवार प्रभावशाली परिवार था। हमारे | में भोजन करने में? रात में भोजन करने से क्या हो परिवार के साथ दस हजार अन्य व्यक्ति भी जैनधर्म | जाता है? वह यह कहे- रात में भोजन नहीं करना त्याग वैष्णव बन गये। किन्तु वर्ष भर में एक दिन जिस चाहिये, पर मैं मजबूर हूँ इसलिए करता हूँ। अपनी दिन हम जैन से वैष्णव बने थे, उस दिन हम अभी कमजोरी या गलती के कारण धार्मिक मान्यता, परम्परा भी जैनपरम्परा का निर्वाह करते हैं, जैनमंदिर जाते हैं. | व सिद्धान्त का उपहास न करें, अवमानना न करें। आचार्यों -जनवरी 2009 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने कहा है | कहाँ देनी चाहिएकीजे शक्ति प्रमाण, शक्ति बिना सरधा धरे। | कुलं च शीलं वयुर्वयश्च विद्या च वित्तं च सनातनं च। धर्म में श्रद्धा बनाये रखिये। यदि श्रद्धा से डिग वर अच्छे कुल का हो, शीलवान् हो, वय भी गए तो कठिन हो जाएगा। यदि श्रद्धा से भ्रष्ट हो गये | मेल खाती हुई हो (सुमेल हो), विद्यावान् हों, आजीविका तो फिर क्या बचेगा? सहित हो, नीरोगी हो और धार्मिक प्रवृत्तिवाला हो। ये आचार्य सोमदेवसूरि से कुछ लोगों ने पूछा अभी | सात गुण जिसमें हो, वह उपयुक्त वर है, उसके साथ तो शासक अच्छे हैं। उनके संरक्षण से आपका धर्म चल | कन्या अपने जीवन को सुखी बना लेगी और निर्बाधरूप रहा है। जब कलियुग आयेगा, शासक भी धर्मपरायण | से श्रावकधर्म का पालन कर सकेगी। नहीं होंगे, तब आपका धर्म कैसे चलेगा? _ आज समाज में बहुत सी रूढ़ियाँ व दोष. फैल सर्व एव हि जैनानाम्, प्रमाणं लौकिकोविधिः।। रहे हैं, उन पर भी ध्यान देना चाहिए। सिद्धान्तों पर यत्र सम्यक्त्वहानिर्नो, यत्र नो व्रतदूषणम्॥ दृढ़ रहें। नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव के अनुसार जितना श्रद्धा से मत डिगिये, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार | बने उतना निभाइये। दुनिया में कितने ही परिवर्तन हों, रखिये, मद्य-मांस आदि का सेवन मत कीजिये। यदि | यदि हम वीतराग प्रभु में श्रद्धा व भक्ष्याभक्ष्य के विचार ये दो नियम भी आप पालेंगे, तो कैसा भी काल हो, | पर दृढ़ रहेंगे, तो समाज को बाधा नहीं आयेगी और कैसा भी शासक हो, आप निराबाधरूप से अडिग रह | वह उन्नतशील होगा। सकते हो, पर ये दो बातें दृढ़ होनी चाहिये। 'सन्तसाधना' (मई-जून २००८) हमारा संविधान बहुत विशाल है विस्तृत है। जीवन से साभार के सारे अंग हैं उसमें। यह भी उल्लेख है कि कन्या ग्रन्थ-समीक्षा तीर्थक्षेत्र-पर्वादि-वंदनाष्टक शतक कृति- 'तीर्थक्षेत्र पर्वादि वंदनाष्टक शतक' (पूर्वार्द्ध), कृतिकार- प्रतिष्ठाचार्य पं० पवन कुमार जैन शास्त्री, 'दीवान' प्रकाशक-अ.भा.दि. जैन शास्त्रि परिषद्, संस्करण- प्रथम। सहयोग राशि 50 रुपया (आगामी प्रकाशनार्थ) प्राप्ति स्थान- श्रीमती मनोरमा 'दीवान', श्री महावीर भवन महिमा लेडीज एवं स्टेशनरी सेन्टर, पीपलवाली माता, स्वामी स्कूल के पास, दत्तपुरा मोरेना (म.प्र.) फोन 07532-228397 मो. 9425364534, 9981648844 । प्रस्तुति कृति में श्री दीवान जी द्वारा रचित 100 । होने पर उनका वंदनाष्टक उत्तरार्द्ध कृति में प्रस्तुत किया अष्टक काव्य हैं। जिसमें भारतवर्ष के समग्र प्रान्तों के | जायेगा। कृति क्षेत्रवंदना व पर्व माहात्म्य विषयक होने 80, (सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, कला क्षेत्रादि का) क्षेत्र | से सर्वोपयोगी है, संग्रहणीय, पठनीय है। प्रादुर्भाव, महत्त्व, सरंचना / आगामी कार्ययोजना-परक विशेष- जो भी पुस्तकालय, वाचनालय सरस्वती काव्य वर्णन किया गया है। 20 अष्टकों में जैनसंस्कृति भण्डार के व्यवस्थापकगण या अन्य श्रद्धालु पाठकगण के शाश्वत एवं समसामयिक पर्यों एवं श्रमण स्वरूप कृति प्राप्ति के इच्छुक हों, वे कृपया पूरा, पता फोन व सराकादि का उल्लेख है। इनमें वही क्षेत्र सम्मिलित | नं., मोबाईल नं. लिखकर 30 रूपया पोस्टेज भेज कर हैं जिनके विवरण / परिचयादि पूर्व में प्राप्त हुये थे। जो | कृति मँगा लेवें। क्षेत्र अवशिष्ट रह गये हैं, उनके सांगोपांग विवरण प्राप्त । स० सिं० अरिहंत जैन, मुरैना 18 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाओं का स्पर्श करना आगम अनुकूल नहीं है आचार्य श्री मेरुभूषण जी करें। "दिगम्बर जैन ज्योति पत्रिका सितम्बर २००८ के। मिल सकेगा। यदि सिद्धशिला पर वास नहीं होगा, तो अंक में पेज ७ पर प्रकाशित गणिनी आर्यिका १०५ / २००० सागर बीतने पर उसे नियम से निगोद ही जाना सुपार्श्वमति माता जी का यह स्पष्टीकरण कि 'क्षुल्लक | होगा। जी को प्रतिमास्पर्श करने का निषेध नहीं' आगम प्रमाण | किसी विद्वान, साधु-साध्वी को भगवान् के चरण नहीं है। पाठकगण स्वयं विवेचना करें कि क्षुल्लक को छने का प्रमाण मिले, तो शास्त्र के आधार पर स्पष्ट मुनि का लघुनन्दन कहा गया है। उसकी आहार सम्बन्धी कुछ क्रियाओं को छोड़कर वह मुनिसमान ही | साधु का कार्य स्व-आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन है। क्षुल्लक केवल आहार को जाता है तभी शुद्ध है, वीतरागता को निहारना, स्वानुभूति, आत्मानुभूति और शेष अवधि अशुद्ध माना गया है। अतः आगम में कहीं आत्मदर्शन करना मात्र है। आत्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है। भी क्षुल्लक को प्रतिमा के चरण छूने का उल्लेख नहीं आत्मदर्शन साक्षात् मोक्ष है। जो वीतराग-समता सहित है। इतना ही नहीं आचार्य, उपाध्याय, मुनि, एलक, क्षुल्लक है। ज्ञान-दर्शन-चेतना स्वरूप है। को भी आगम में चरण छूने को नहीं कहा गया। यदि गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से पूछा कि मुनि को भगवान् के चरण छूने का प्रावधान होता, तो | भगवन् ! मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही मुनि के २८ मूलगुणों में उसका प्रावधान होता। २८ मूलगुणों | है, तो भगवान् ने बतलाया कि तुम्हें मुझसे राग हो गया में मुनि को ६ आवश्यक कार्य प्रतिदिन करने होते हैं, | है, जिससे परद्रव्य-आसक्तिभाव से तुम्हारा गुणस्थान गिर जिनमें सामायिकी, स्तुति, वन्दना, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण | गया, जब कि केवलज्ञान की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में और प्रत्याख्यान हैं। मंदिर जी में मुनि स्तुति, वन्दना, | होती है। भगवान् महावीर को दीपावली के दिन प्रात:काल कायोत्सर्ग करते हैं। स्तुति का आशय है २४ तीर्थंकरों की वेला में मोक्ष हो गया, तो परद्रव्य-आसक्तिभाव का अथवा उनमें से किसी एक तीर्थंकर के गुणों का स्तवन | माध्यम हट गया, तो गौतम गणधर को, उसी दिन सायंकाल करना, वन्दना का आशय है तीन परिक्रमा करना, की वेला में केवलज्ञान हो गया और भगवान् कहलाये। कायोत्सर्ग का मतलब है अपने पुद्गल से ममत्वभाव | अतः आचार्य, उपाध्याय, मुनि, एलक, क्षुल्लक छोड़कर अपनी आत्मा के वीतराग स्वरूप को निहारना, | को परद्रव्य-आसक्तिभाव एवं अचेतन द्रव्य-आसक्तिभाव स्वानुभूति, आत्मानुभूति और आत्मदर्शन करना। प्रतिमा के दोष से बचने के लिये अपने पुद्गल में बैठे अपनी के चरण छूने का स्पष्ट आशय है परद्रव्य में आसक्तिभाव | चैतन्यआत्मा के वीतराग स्वरूप का दर्शन करना चाहिए, तथा अचेतन प्रतिमा में आसक्तिभाव। मोक्षमार्गी वह है, उससे स्वानुभूति, आत्मानुभूति एवं आत्मदर्शन होगा। जो अपने पुद्गल में बैठे अपने चैतन्यआत्मा के वीतराग- | आत्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है, आत्मदर्शन ही साक्षात् मोक्ष | है.जो वीतरागता-समता सहित है। जिसका ज्ञानदर्शन चेतना दर्शन करे, क्योंकि निश्चय से मेरी आत्मा ही सिद्धात्मा | स्वरूप है। है, वीतराग है, निरंजन एवं परमात्मा है। फिर मोक्षाभिलाषी __ आजकल हमारे कुछ साधु-साध्वी बहुत से कार्य को अचेतन प्रतिमा के चरण छूने परद्रव्य-आसक्ति एवं आगम की अनदेखी कर करने लगे हैं। जैसे श्रावकअचेतन-आसक्तिभाव का दोष आवेगा। श्रावकों के व्यवहार | श्राविका के हाथ में मौली बाँधना और केशर से टीका धर्मपालन हेतु आचार्यों ने सूरि-मंत्र देकर श्रावकों के | करना, प्राचीनकाल में वैष्णवमत के पंडित इस कार्य लिये मूर्तिपूजन, स्तुति, वन्दना के योग्य बना दिया है, को करते थे, उन्हें दक्षिणा मिलती थी. मगर वैष्णवों ताकि श्रावकों के व्यवहारधर्म का पालन हो सके और | के साधु नहीं करते थे। मगर वीतरागता की दुहाई देनेवाले उनको मोक्ष का मार्ग मिल सके। यदि श्रावक का | साधुओं ने वैष्णव पंडितो का कार्य अपने हाथ में ले व्यवहारधर्म ही लोप हो गया, तो उसे मोक्षमार्ग ही नहीं। लिया, जन्मपत्री बनवाना, विवाह का मुहूर्त बताना, विवाह -जनवरी 2009 जिनभाषित 19 - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा या नहीं, विवाह के दोष गुण बतलाना, हस्तरेखा । रहे हैं। 30-40 साल बाद इन नये तीर्थों पर असामाजिक देखना, संकटमोचन करना, तंत्र-मंत्र, वैद्य की क्रियाएँ | तत्त्वों द्वारा कब्जा किया जावेगा और दिगम्बर-समाज को करना, दवा देना, शान्तिधारा बोलना, विधान कराना, मंदिर | इन तीर्थों की रक्षा हेतु सदैव मुकदमों का ही सामना बनवाना, सट्टे-बट्टे के नम्बर बतलाना, लॉटरी के नम्बर | करना होगा। जैनसमाज सोया हुआ है, अथवा चन्द लोग बतलाना, घर-घर जाकर पंडितों की तरह विधान कराना, | अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधु-साध्वी से जन्मजयन्ती, दीक्षाजयन्ती मनवाना, बड़े-बड़े पोस्टर, | मिलकर शिथिलाचार कर रहे हैं। साधुओं के नाम पर पैम्पलेट, फोटो छपवाना, रथयात्रा में जाना, ख्यातिलाभ | मंच बन रहे हैं। वे ही साधु की प्रशंसा, ख्याति फैलाने के लिये धन खर्च करना, आराम का जीवन बिताने के | में संलग्न हैं। कुछ साधु गाड़ी में ही सामायिकी-चौका, लिए धनसंग्रह करना, रात्रि में बोलना, मन्दिर जी में | आहार आदि करने लगे हैं। गर्म-गर्म खाना खाते हैं, नौ-दस बजे तक बैठकर बाते करना, रात्रि में अपनी बर्फ खाते हैं, गैस, अँगीठी जलती रहे, पंखा चलता एवं भगवान की आरती कराना, अपनी प्रशंसा के मुक्तक | रहे, बिजली जलती रहे, आहार के समय अन्तराय सुनना। इसके लिये बड़े-बड़े पोस्टर, पैम्पलेट छपने लगे। | नहीं पालते, पंखा के नीचे आहार करने लगे, तकिया शास्त्र-स्वाध्याय छूट गया, परिणामस्वरूप जैनधर्म के | लगाने लगे आदि। आज जो साधु आगमविरोधी आचरण वीतरागभाव का लोप हो रहा है। वीतरागता केवल नग्न अपना रहे हैं, नियम से निगोद जावेंगे तथा 56 करोड़ रहना मात्र रह गई, बल्कि गृहस्थ से अधिक परिग्रह | श्रावक, जो इन कार्यों की अनुमोदना कर रहे हैं, निगोद आज के दिगम्बर साधु-साध्वी, एलक, क्षुल्लक के पास | जावेंगे। अब वैष्णव- मत एवं जैनधर्म में केवल नग्नता रहने लगा, क्षुल्लक-एलक हवाई जहाज की यात्रा करने | का अन्तर रह गया है। लगे। मोबाइल पर कुछ साधु-साध्वी, एलक, क्षुल्लक विद्वानों से मेरा आग्रह है कि निजी स्वार्थों को घंटों वार्ता करने लगे। फ्रिज, कूलर, पंखा, ए.सी. आदि छोड़कर शिथिलाचार की प्रक्रिया रोकने के लिए कठोर का इस्तेमाल होने लगा, दूरदर्शन, देखने लगे, कम्प्यूटर कदम उठावें, संघ की संख्या बढ़ाने को बिना परीक्षण का उपयोग करने लगे। परिणाम स्वरूप 50 से 100 | के दी जा रही दीक्षा को रोका जाय। पुनर्दीक्षा पूर्व आचार्य पिच्छी ऐसी हैं, जिनके कुशील की चर्चा व्यक्तिगत चर्चाओं | की राय के बिना न दी जाय। 90 प्रतिशत पुनर्दीक्षा में श्रावक करने लगे। दिखावा मात्र को दिगम्बर-स्वरूप | उनको दी गई, जो चारित्र से भ्रष्ट हैं। कहने लगे कि रह गया है। एक आचार्य रात्रि दो बजे अपने संघ के | हम बीमार हो गये थे, इसलिये कपड़ा पहने थे। कुछ साधुओं और श्रावकों को लेकर सम्मेदशिखर जी की साधु महिलाओं से पैर छुवाने लगे। यहाँ तक वैय्यावृत्ति वन्दना को गये। रात्रि में ही भगवान् पद्मप्रभु की टोंक कराने लगे हैं। माता जी पुरुषों से पैर छुवाने लगी हैं। पर विधान कराया, महाव्रत और समिति का पालन केवल ऐसे आचरण को वे शीलभंग का दोष नहीं मानते हैं। जिह्वा पर रह गये, आचरण में नहीं। अपने नाम की | अतः शिथिलचार रोकने को कड़े कदम उठाना आवश्यक ख्याति के लिये क्षेत्र घोषित कर जहाँ समाज नहीं है, | है। वहाँ करोड़ों रु. पानी की तरह बहाया जा रहा है। पुराने त्यागी-व्रती आश्रम, मधुवन शिखर जी तीर्थों की रक्षा नहीं हो पा रही है, नये तीर्थ बनाये जा । जिला-गिरीडीह (झारखण्ड) पूज्य क्षमासागर की जीवनी सन्तशिरोमणि प० पू० आचार्य विद्यासागर जी के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी के २८वें संयमदिवस पर विद्यासागर-शिक्षा-समिति शीघ्र ही एक पुस्तिका का प्रकाशन करने जा रही है। जहाँ जहाँ मुनिश्री के चातुर्मास, ग्रीष्मकाल, शीतावकाश सम्पन्न हुए हों, उनके व्यक्तित्व और कर्त्तव्य से संबंधित संस्मरण, गोष्ठियाँ, उपलब्धियाँ निम्न पते पर भेजकर इस सुकृत्य में अपनी सहभागिता अवश्य बनाएँ। कृपया जानकारी निम्न पते पर भेजने का कष्ट करें। श्री विद्यासागर शिक्षा समिति, १५३६/५ सिद्धनगर, पुरवा, नागपुर रोड, जबलपुर (म.प्र.) 20 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार अनुयोग तीर्थादाम्नाय निध्याय युक्त्याऽन्तः प्रणिधाय च । श्रुतं व्यवस्येत् सद्विश्वमनेकान्तात्मकं सुधीः ॥ ७ ॥ (धर्मा., तृ.अ.) बुद्धिशाली मुमुक्षु को गुरु से श्रुत को ग्रहण करके तथा युक्ति से परीक्षण करके और उसे स्वात्मा में निश्चलरूप से आरोपित करके अनेकान्तात्मक अर्थात् द्रव्यपर्याय रूप और उत्पाद व्यय- ध्रौव्यात्मक विश्व का निश्चय करना चाहिए । । I श्रुतज्ञान प्राप्त करने की यह विधि है कि शास्त्र को गुरुमुख से सुना जाये या पढ़ा जाये। गुरु अर्थात् शास्त्रज्ञ जिसने स्वयं गुरुमुख से शास्वाध्ययन किया हो। गुरु की सहायता के बिना स्वयं स्वाध्यायपूर्वक प्राप्त किया श्रुतज्ञान कभी-कभी गलत भी हो जाता है। शास्त्रज्ञान प्राप्त करके युक्ति से उसका परीक्षण भी करना चाहिए कहा भी है कि 'इस लोक में जो युक्तिसम्मत है, वही परमार्थ सत् है क्योंकि सूर्य की किरणों के समान युक्ति का किसी के भी साथ पक्षपात नहीं है, जैसे सब अनेकान्तात्मक है सत् होने से, और जो सत् नहीं है वह अनेकान्तात्मक नहीं है, जैसे आकाश का फूल। इसके बाद उस श्रुत को अपने अन्तस्तल में उतारना चाहिए। गुरुमुख से पढ़कर और युक्ति से परीक्षण करके भी उस पर अन्तस्तल से श्रद्धा न हुई, तो वह ज्ञान कैसे हितकारी हो सकता है। श्रुतज्ञान का बड़ा महत्त्व है। उसे केवलज्ञान के तुल्य कहा है। समन्तभद्र स्वामी ने आप्त मीमांसा में कहा है स्याद्वाद - केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ॥ स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व जीवादि तत्त्वों के प्रकाशक हैं। दोनों के भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष हैं। जो दोनों में से किसी का भी ज्ञान का विषय नहीं है, वह वस्तु ही नहीं है । गणधरों ने भगवान् की दिव्य देशना का विभाजन किया, विषयों की तालिका बनी, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदि आत्मोपयोगी विषयों का विश्लेषण हुआ। वीतराग प्रभु की वाणी को जनोपयोगी बनाने में अनुपम मेघावी, निर्ग्रन्थ गणधरों का प्रमुख हाथ था। पूजा में भी आया ब्र. कु. प्रभा पाटनी ( संघस्थ ) - गणधर गूँथे बारह सु अंग' अर्थात् भगवान् की दिव्यवाणी को गुम्फित करने का श्रेय गणधरों को ही था। वाणी द्वादशांग रूप में सीमित हुई, गूँथी गयी और कालक्रम से आचार्य परम्परा में आयी। वर्तमान में जितना भी शास्त्र साहित्य उपलब्ध है, उसमें राग-द्वेष मोह से रहित, कषायों से रहित वीतरागता का वर्णन है, अनादिकालीन मिथ्यात्व को दूर करनेवाली बन्धन से मुक्त करनेवाली उपदेशात्मक वाणी का वर्णन है। । समस्त प्राणियों की प्रवृत्ति एवं जिज्ञासा अलगअलग है किन्हीं प्राणियों को तो संक्षिप्त शैली में समझ आता है, किन्हीं प्राणियों को विस्तार से वर्णन करने पर समझ में आता है । अतः पंचेन्द्रियों में आलिप्त सांसारिक प्राणियों को आत्मोन्मुख किया जाय, यह समस्या पूर्वाचार्यों व सभी धर्माचार्यों के समक्ष रही है उचित समाधान भी समयानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को जानकर किया गया। 1 कथन-प्रणालियाँ जैनसाहित्य में अनुयोगरूप में पायी जाती हैं। श्रुत की वन्दना करते समय 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' यह वाक्य पाया जाता है। इससे इनके क्रम का भी पता चलता है। का तीर्थ और आम्नायपूर्वक श्रुत का अभ्यास करने उपदेश देते हुए कहा गया हैश्रुतकेवलबोधश्च विश्वबोधात् समं द्वयम् । स्यात्परोक्षं श्रुतज्ञानं प्रत्यक्षं केवलं स्फुटम् ॥ परमागमरूपी समुद्र से प्राप्त करके भगवज्जिनसेनाचार्य आदि सत्पुरुषरूपी मेघों के द्वारा बरसाये गये प्रथमानुयोग आदि रूप जल को भव्यरूपी चातक बार-बार प्रीतिपूर्वक पान करें। मेघों के द्वारा समुद्र से ग्रहीत जल बरसने पर ही चातक अपनी चिरप्यास को बुझाता है। यहाँ भव्य जीवों को उसी चातक की उपमा दी है, क्योंकि चातक की तरह भव्य जीवों को भी चिरकाल से उपदेशरूप जल नहीं मिला है। परमागम को समुद्र की उपमा दी है और परमागम से उद्धृत प्रथमानुयोग, करुणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों को जल की उपमा दी है, क्योंकि जल से तृषा दूर होती है। उन शास्त्रों की रचना करनेवाले भगवज्जिनसेनाचार्य आदि जनवरी 2009 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यों को मेघ की उपमा दी है, क्योंकि मेघों की । उस करणानुयोग को हृदय में धारण करना चाहिए। तरह वे भी विश्व का उपकार करते हैं। करणानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों में चार गति आदि प्रथमानुयोग का वर्णन होता है। नरकादि गति नामकर्म के उदय से पुराणं चरितं चार्थाख्यानं बोधिसमाधिदम्। होनेवाली जीव की पर्याय को गति कहते हैं। उत्सर्पिणीतत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम्॥ ७॥ अवसर्पिणी कालों के परिवर्तन को युगावर्त कहते हैं। हेय और उपादेय रूप तत्त्व के प्रकाश का इच्छुक | जिसमें जीव आदि छहों पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक भव्यजीव बोधि और समाधि को देनेवाले तथा परमार्थ कहते हैं। अर्थात् तीन सौ तैंतालीस राजु प्रमाण आकाश सत् वस्तुस्वरूप का कथन करनेवाले पुराण और चरितरूप | का प्रदेश लोक है। उसके चारों ओर अनन्तानन्त प्रमाण प्रथमानुयोग को अन्य तीन अनुयोगों से भी अधिक प्रकाश | केवल आकाश अलोक है। इन सबका वर्णन करणानुयोग में लायें अर्थात् उनका विशेष अध्ययन करें। | में होता है। लोकानुयोग, लोक-विभाग, पंचसंग्रह आदि तिरेसठ शलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, | ग्रन्थ उसी अनुयोग के अर्न्तगत हैं। ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र) की कथा जिस चरणानुयोग शास्त्र में कही गयी हो उसे पुराण कहते हैं। उसमें आठ सकलेतरचारित्र जन्म-रक्षाविवृद्धिकृत्। बातों का वर्णन होता है। कहा है- लोक, देश, नगर, विचारणीयश्चरणानयोगश्चरणादूतैः॥ ११॥ राज्य, तीर्थ, दान तथा अन्तरंग और बाह्य तप से आठ (अ.धर्मा.) बातें पुराण में होती हैं। चारित्रपालन के लिए तत्पर पुरुषों को सकलचारित्र ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है-'जिसमें सर्ग-कारणसृष्टि, | और विकलचारित्र की उत्पत्ति, रक्षा और विशिष्ट वृद्धि प्रतिसर्ग-कार्यसृष्टि, वंश, मन्वन्तर और वंशों के चरित | को करनेवाले चरणानुयोग का चिन्तन करना चाहिए। हिंसा हों उसे पुराण कहते हैं।' पुराण के पाँच लक्षण हैं। जिसमें | आदि के साथ रागद्वेष की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। एक पुरुष की कथा होती है उसे चरित्र कहते हैं। पुराण | उसके दो भेद हैं- सकलचारित्र और विकलचारित्र। इन और चरित विषयक शास्त्र प्रथमानुयोग में आते हैं। प्रथम | चारित्रों को कैसे धारण करना चाहिए, धारण करके कैसे नाम देने से ही इसका अर्थ स्पष्ट है। अन्य अनुयोगों | उन्हें अतिचारों से बचाना चाहिए और फिर कैसे उन्हें में जो सिद्धान्त आचार आदि वर्णित हैं, उन सबके बढ़ाना चाहिए- इन सबके लिए आचारांग, उपासकाध्ययन प्रयोगात्मक रूप से दृष्टान्त प्रथमानयोग में ही मिलते आदि चरणानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों को पढना आवश्यक हैं। इसलिए इसके अध्ययन की विशेष रूप से प्रेरणा | है। की है। इसके अध्ययन से हेय क्या है और उपादेय | क्या है, इसका सम्यक् रीति से बोध होता है, साथ | द्रव्यानुयोग ही बोधि और समाधि की भी प्राप्ति होती है। बोधि जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ पुण्यपापे च वेदितुम्। का अर्थ है- अप्राप्त सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति। और द्रव्यानुयोगसमयं समयन्तु महाधियः॥ अ.धर्मा.॥ प्राप्त होने पर उन्हें उनकी चरम सीमा तक पहुँचाना तीक्ष्ण बुद्धिशाली पुरुषों को जीव-अजीव, बन्धसमाधि है अथवा समाधि का अर्थ है धर्म्यध्यान और | मोक्ष और पुण्य-पाप का निश्चय करने के लिए सिद्धान्तशुक्लध्यान। सूत्र, तत्त्वार्थ-सूत्र, पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोग-विषयक करणानुयोग शास्त्रों को सम्यक् रीति से जानना चाहिए। चतुर्गति युगावर्त लोकालोक-विभागवित्। इस प्रकार चारों अनुयोगों में संग्रहीत जिनागम की हृदि प्रणेयः करणानुयोगः करणातिगैः॥ १०॥| उपासना का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिनागम (अ.धर्मा.) पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित होने से अमल है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप चार गतियों, युग | लोक-अलोकवर्ती पदार्थों का कथन करनेवाला होने अर्थात् सुषमा-सुषमा आदि काल के विभागों का परिवर्तन | से विपुल है, सूक्ष्म अर्थ का दर्शक होने से निपुण है, तथा लोक और अलोक का विभाग जिसमें वर्णित है | अर्थतः अवगाढ़-ठोस होने से निकाचित है। सबका 22 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। हितकारी है, परम उत्कृष्ट है और पाप का हर्ता है। ऐसे जिनागम की जो सदा अच्छी रीति से उपासना करता है उसे सात गुणों की प्राप्ति होती है ४. प्रति समय संसार से नये-नये प्रकार की भीरुता होती है । १. त्रिकालवर्ती अनन्त द्रव्यपर्यायों के स्वरूप का ज्ञान होता ५. व्यवहार और निश्चयरूप रत्नत्रय में अवस्थिति होती है। है। 1 २. हित की प्राप्ति, अहित के परिहार का ज्ञान होता है। ३. मिथ्यात्व आदि से होनेवाले आस्रव का निरोधरूप भावसंवर होता है अर्थात् शुद्ध स्वात्मानुभूतिरूप परिणाम ६. रागादि का निग्रह करनेवाले उपायों में भावना होती है। ७. पर को उपदेश देने की योग्यता प्राप्त होती है। 'वात्सल्यरत्नाकर' (द्वितीय खण्ड) से साभार डॉ० सुरेन्द्र जैन भारती ( सहयोगी सम्पादक : 'जिनभाषित' ) की मातृश्री का निधन डॉ० सुरेन्द्र जैन 'भारती' (सहयोगी सम्पादक 'जिनभाषित') की पूजनीया मातृश्री (धर्मपत्नी श्री सिंघई शिखरचन्द्र जैन सोंरया) का स्वर्गवास दिनांक 10.12.08 बुधवार को दोपहर 1 बजे हो गया है। आप डॉ० रमेशचन्द्र जैन (बिजनौर), डॉ० अशोककुमार जैन (वाराणसी), डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन ( सनावद ) एवं श्री वीरेन्द्रकुमार जैन (मड़ावरा) की भी माता थीं। 'जिनभाषित' - परिवार अपनी शोक- समवेदना प्रेषित करता है। रतनचन्द्र जैन समाधि तंत्र - अनुशीलन संगोष्ठी सम्पन्न टोड़ी - फतेहपुर (झाँसी, उ. प्र.) दि. 26 से 28 दिसम्बर 2008 तक श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र टोड़ी फतेहपुर में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी के ससंघ मंगल सान्निध्य एवं डॉ० श्री श्रेयांस कुमार जी जैन बड़ौत व डॉ० सुदीप जैन दिल्ली के संयोजकत्व में आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित आध्यात्मिक कृति 'समाधितंत्र व इष्टोपदेश अनुशीलन' कृति पर प्रथम संगोष्ठी, क्षेत्र पर प्रथम बार एवं आचार्य श्री के ससंघ सान्निध्य में भी प्रथम बार सम्पन्न हुई। देश के करीब 30 मूर्धन्य विद्वानों ने भाग लिया, जिनमें डॉ० जयकुमार जी मु० नगर, डॉ० कमलेश जी वाराणसी एवं जयपुर, डॉ० फूलचंद जी प्रेमी वाराणसी, डॉ० शीतलचंद जी जयपुर, डॉ० वृषभप्रसाद जी लखनऊ, पं० पवन दीवान मोरेना, डॉ० नलिन के जैन, डॉ० विजय जैन एवं डॉ० श्रीमती राका जैन लखनऊ, पं० श्री लालचंद जी राकेश- गंजबासौदा, प्राचार्य निहालचंद जी बीना, डॉ० अशोक जैन वाराणसी, पं० सनत कुमार, विनोद कुमार रजवाँस, पं० सुनील संचय, पं० पंकज जैन, पं० अशीष शास्त्री, पं० वीरेन्द्र जी बिलासपुर, पं० छोटेलाल जी झाँसी आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे । इसी अवसर पर श्री सेठी जी व डॉ० जयकुमार जी मु. नगर के कर कमलों से श्री दीवान जी की बहुचर्चित उपयोगी कृति 'तीर्थक्षेत्र पर्वादि वंदनाष्टक शतक पूर्वार्द्ध' का भी भव्य लोकार्पण सम्पन्न हुआ । भवदीय पं० पवन कुमार शास्त्री 'दीवान' डॉ० सुशील, सौरभ जैन नए निवास में मैनपुरी, शास्त्री परिषद् के उपाध्यक्ष, वाग्भारती पुरस्कार के स्थापक, प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० सुशील जैन, डॉ० सौरभ जैन ने २४ नवम्बर २००८ को अपने नये भवन 'सर्वतोभद्र' 6 / 81 आवास विकास, कचहरी रोड में गृह प्रवेश किया । इस उपलक्ष्य में 11000/- की दान की भी घोषणा की गई जो विभिन्न तीर्थों व पत्र पत्रिकाओं को प्रेषित की गई जिसमें से रूपये 100 की राशि 'जिनभाषित' को भी प्राप्त हुई है। धन्यवाद । डॉ० सुशील जैन का पत्र व्यवहार का पता पूर्व की भाँति ही रहेगा। डॉ० स्वाती जैन जैन नसिंग होम सिटी पोस्ट ऑफिस के सामने मैनपुरी (उ.प्र.) जनवरी 2009 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धावस्था जीवन का फाइनल-एक्जामीनेशन पं० बसन्त कुमार जैन शास्त्री, शिवाड़ जीवन एक परीक्षा-पत्र (पेपर) होता है। इसे हल | आदि सताते रहते हैं। और यह कुछ भी नहीं कर पाता। करने के लिए तीन घण्टे-बचपन, युवा और वृद्धावस्था बस यहीं से तो फाइनल-एक्जामीनेशन प्रारम्भ हो मिलते हैं। हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन एक | जाता है। सहनशीलता, धैर्य, धर्मध्यान, एकान्तता, चिन्तन, पूरी आयु की अध्ययनशाला है। जिसकी परीक्षा प्रथम मनन, सरलता, शान्ति, संयम आदि इस एक्जामीनेशन टेस्ट, द्वितीय हाफइयरली (माध्यमिक) और तृतीय | के सब्जेक्ट होते हैं इसी को हल करना होता है। इस फाइनल (वृद्धावस्था) रूप में होती है। अवस्था में परिवार परिजन से अनासक्ति, धन दौलत . प्रथम टेस्ट में आचरण का निर्माण हुआ करता से निवृत्ति अपने आपसे समझौता, आत्मा से परमात्मा है, हाफइयरली एक्जामीनेशन में आचरण का आचरण | बनने की कला, और उस समय की प्रतीक्षा बनी रहती किया जाता है, और फाइनल में आचरण का आस्वादन | है, जब पीरियड समाप्त होनेवाला है। किया जाता है। पूरे जीवन की सफलता और असफलता अब इस फाइनल-एक्जामीनेशन में पास होना है इसी एक्जामीनेशन से मिलती है। | या फेल, इसी के हाथ में रहता है। यहाँ किसी की वृद्धावस्था से पूर्व के जीवन में परिवार-संचय, नकल भी नहीं चलती। अपना ज्ञान, अपना अनुभव, अपना धन-संचय, वस्तु-संचय, प्रतिष्ठा-संचय, ज्ञान-संचय, आदि | चिन्तन, अपना मनन, अपनी ही सूझबूझ काम में आती में व्यतीत होता है। यह भी मेरा, वह भी मेरा, मैं इसका, | है। और जीवन के इस एक्जामीनेशन में पास होनेवाला मेरे, इसके के राग-द्वेष, मोह, माया, लोभ-प्रलोभन में | जीवन के एक्जामीनेशन-हाल में बैठा सोचता है। रचा-पचा रहता है। इस समय जोश तो रहता है, किन्तु "देख लिया परिवार-परिजन का मोह, देख लिया होश नहीं रहता। इनका स्वार्थ भरा प्रेम, देख लिया इनका सेवाभाव, खूब अपनी, अपने परिवार, अपने देश, अपने समाज, | पसीना बहाया है, मैंने इनको सम्पन्न बनाने के लिए। अपने सम्प्रदाय, अपने समूह की विजय, सफलता, उन्नति | न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, नीति-अनिति, सदाचारआदि के नारे लगाता है, जुलूस महोत्सव आदि की योजना | कदाचार, भक्ष्य-अभक्ष्य, रात-दिन, भूख-प्यास सबको करता है और यो जोश के खरोश में चलते-चलते फाइनल | भूलकर- रचा-पचा रहा अब तक .... कौन जायेगा इनमें स्टेज (वृद्धावस्था) पर कदम रख देता है। से मेरे साथ? मेरी इस जर्जर अवस्था में कौन देगा सहारा? जो संरचना इसने यहाँ तक पहुँचने से पूर्व की | सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं, किस को है परवाह थी, आज उसका आस्वादन लेना चाहता है, क्योंकि यहाँ | मेरी? इन सबकी सुध लेते-लेते मैं अपनी ही सुध भूल आते-आते शरीर थक जाता है, जोश ठण्डा हो जाता | गया था। अब तो मुझे अपनी सुध लेनी चाहिए। एकान्त है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और जिनकी संरचना | मिल गया, भीड़ भरे माहौल से छुट्टी मिल गई, खाने की थी अब वे जवान हो जाती हैं, ध्वस्त हो जाती | कमाने की चिन्ता नहीं रही, शान्त मन से सरल परिणाम | रख कर उन तत्त्वों का अब चिन्तन, मनन कर लेना तब इसकी अवहेलना सी होने लगती है, इसके | चाहिए, जिनकी परिभाषाएँ सीखी थीं। अब तो मुझे किसी पुरुषार्थ को लोग, परिवार, परिजन भूलने लग जाते हैं | पर भी आक्रोश, चिड़चिड़ाहट नहीं करना चाहिए। अरे और इसके कार्यों पर अपनी मोहर लगाने लग जाते हैं। जब यह शरीर ही मेरा साथ छोड़ रहा है, तो शरीर इस अवस्था में एक अकेला पड़ जाता है, इसकी | से दूर रहनेवाले कैसे साथ दे सकते हैं? सब नदीसारी सेवाएँ धूमिल पड़ने लग जाती हैं। बेटे, बहुएँ, | नाव के संयोग जैसे, सब एक ट्रेन के मुसाफिर जैसे, पोते-पोती सब कन्नी काटने लग जाते हैं- खाने-पीने | सब एक धर्मशाला में रहनेवाले जैसे. सब रात को एक की लालसा तो रहती है, पर खाया-पिया नहीं जाता, | पेड़ पर एकत्रित हो जानेवाले पक्षियों जैसे, सब पूर्वभवी आये दिन वी.पी., कफ, खाँसी, घटनों, कमर का दर्द, | संयोग जैसे हैं, जिनसे विलग होना ही है। तत्त्व-कृतत्त्व, 24 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-दु:ख, अपना-पराया, अच्छाई-बुराई, मन की दौड़, जा सकती है। तन की होड़, सबका अनुभव हो गया । हे मन ! अब अपने आपको सँम्भाल । अन्तिम क्षणों में याद कर ले अपने आतम राम को । वैभाविक परणति छोड़कर आ जा स्वभाविक परणति में ।" इस तरह चिन्तन करके शान्त मन से इस फाइनल एक्जामीनेशन में उत्तीर्णता प्राप्त की हम सब आगे बस आगे बढ़ने की होड़ में लगे हैं । इस होड़ से उपजी त्रासदियाँ भी हम सबको ही झेलनी पडेंगी। जी हाँ! हम अपने प्यारे बच्चों को, जिगर के टुकड़ों को, अपने लाड़ले को आधुनिकता की चमकदमक लिये लेटेस्ट खिलौने की जो रेंज दे रहे हैं, क्या वह हमारे बच्चों को ठीक है? क्या वे उनकी सेहत पर कोई गलत असर तो नहीं डाल रहे हैं? माता-पिता व अन्य पारिवारिक - जन इस विषय पर अवश्य ध्यान दें । हमारे नौनिहालों को बीमार करते खिलौने छोटे बड़े सभी बच्चों को खिलौनों से बड़ा प्यार होता है। उनकी दुनिया ही खिलौनों में बसती है। आज का बाजार बच्चों के विभिन्न खिलौनों से अटा पड़ा है। रोज तरह-तरह के आकर्षक खिलौने देखने मे आ रहे हैं। हम सब भी बच्चों को खिलौने खरीदते रहते हैं। पर ध्यान रखें, सचेत रहें कि हम जो खिलौना खरीद रहे हैं या किसी बच्चे को गिफ्ट में दे रहे हैं, उसके कलर उसकी गुणवत्ता कहीं बच्चे को या हमारी इस पीढ़ी को बीमार तो नहीं बना रही है? पर्यावरण पर नजर रखनेवाले एक संगठन 'टॉक्सिकलिक' ने अपने शोध के आधार पर खुलासा किया है कि आकर्षक दिखनेवाले, चमक-दमक लिये ये आधुनिक खिलौने अनेक समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। एक सर्वे के बाद संगठन ने पाया कि 'पोली विनाइल क्लोराइड यानी पी.वी.सी. या साफ्ट खिलौनों से खेल खेल में सीसा और केडमियम जैसे घातक तत्त्व बच्चों के शरीर में पहुँच रहे हैं। अक्सर छोटे बच्चे खिलौने मुँह में डालते हैं, जिससे ये रसायन शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं, यदि लम्बे समय तक शरीर में इनका असर रहे तो यकृत- कैंसर, गुर्दे में खराबी, स्मरणशक्ति में कमी तथा अनेक मानसिक रोग घर कर लेते हैं। ये लक्षण तुरंत प्रकट न भी हों, पर जब असर दिखाते हैं, तो यह परीक्षा कोई गृहस्थावस्था में रहकर, तो कोई सन्तअवस्था में रहकर देता है। सबका सब्जेक्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसा ही होता है। इस प्रकार के शान्त मन अनासक्त पूर्वक चिन्तन करने से स्वतः ही समाधि मरण हो जाता है, जो इस पर्याय की सम्पूर्ण सफलता का प्रतीक है। डॉ० ज्योति जैन घातक सिद्ध होते हैं । खिलौनों को आकर्षक एवं नैचुरल बनाने में जिस तरह से सीसा, कैडमियम और अन्य घातक एवं नुकसानदेह रसायनों का इस्तेमाल होता है, वह उपभोक्ता सुरक्षा आयोग के मानकों के हिसाब से सुरक्षित नहीं है। मुश्किल तो यह है कि हमारे देश में नुकसानदेह धातुओं ( रसायनों) के इस्तेमाल को लेकर कोई सख्त मानक तय नहीं है। यह भी एक विडम्बना ही है कि आज हमारा बाजार सस्ते चीनी खिलौनों से अटा पड़ा है। सस्ते एवं आकर्षक होने के कारण लोकप्रिय भी हैं। चीन पूरे विश्व में सबसे सस्ते खिलौने का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। विश्व खिलौने बाजार में उसकी हिस्सेदारी लगभग सत्तर फीसदी है। चीन के ही गुणवत्ता अधिकारियों ने यह खुलासा किया कि सस्ते बनाने के चक्कर में अनेक कम्पनियाँ मापदण्डों पर सही नहीं हैं और औद्योगिक कचरे आदि से ये सस्ते खिलौने बनाये जा रहे हैं। इन खिलौनों के दुष्प्रभाव को देखते हुए अमेरिका के उत्पाद सुरक्षा आयोग, यूरोपीय संघ, स्पेन, डेनमार्क आदि देशों ने इन पर पाबंदी लगा दी है। हमारे यहाँ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टर अनूप सराया ने भी इन खिलौनों को स्वास्थ्य की दृष्टि से खतरनाक बताया है। हमारे यहाँ अनेक कम्पनियाँ हैं, जो छोटे बच्चों के विशेष खिलौने निकालती हैं। नये युग के नये खिलौनों की चाहत तो हर बच्चे में है ही, परंतु अभिभावक खिलौनों में भी अपना स्टेटस ढूँढ़ने लगे हैं। इसी मनोवृत्ति ने हमारे पारम्परिक और देशी खिलौनों को नुकसान पहुँचाया है। अंत में बच्चों को ऐसे खिलौने न दें, जो उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचायें । शिक्षक आवास 6, डिग्री कॉलेज कैम्पस खतौली - 251201 (उ.प्र.) जनवरी 2009 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोशिश करने पर लंदन में भगवान् का मंदिर मिल ही गया। निर्मलकुमार पाटोदी हम पति-पत्नी (श्रीमती इन्द्रा पाटोदी) सोमवार । भगवान् महावीर स्वामी की पद्मासन सफेद पाषाण की २ जून से मंगलवार २४ जून २००८ तक यूरोप के ९ | एकदम बेदाग लगभग ४ फुट ऊँची चित्ताकर्षक प्रतिमा देश व दुबई पर्यटन यात्रा पर गये थे। यात्रा पर जाने | पर सीधा ध्यान गया, देखते ही मन को शांति मिली से पूर्व ज्ञात हो गया था कि लन्दन के हैरो ऑन द | और भगवान् के दर्शन किये। महावीर भगवान् की इस हिल इलाके में जैनमंदिर है। स्वभाविक ही विदेश में | प्रतिमाजी के आगे की ओर छोटी-छोटी चॉकलेटी रंग पहली बार भगवान् के दर्शन करने की भावना प्रबल | की पाषाण की चार पद्मासन तथा दायीं तथा बायीं ओर थी। लंदन के इयस्टन क्षेत्र की होटल में ठहरना हुआ स्थित स्तंभ में दो और पाषाण की प्रतिमाएं विराजमान था। लंदन के भू-गर्भ में तीव्रगति से दौड़नेवाली ट्यूब | थीं। दीवार में बने पाँच आलों में एक-एक जिनवाणी रेल से हैरो ऑन द हिल स्टेशन पर उतर गये। यहाँ । विराजमान थी। वेदीजी के अग्रभाग में आचार्य भगवंत से मंदिर तक कैसे पहुँचे, यह समस्या सामने आ गई | कुंदकुंद स्वामीजी का चित्र लगा हुआ था। प्रतिमाजी के तीन-चार भारतीय लोगों को रोककर पूछा, सभी जैनमंदिर | सामने के खुले भाग में ५० फुट लम्बा और ३० फुट के नाम-पते से अनभिज्ञ थे। तब किसी भारतीय ने सुझाया | चौड़ा स्वाध्याय सभागृह था। जिसमें बायीं ओर की दीवार टिकिट खिड़की के बाबू गुजराती हैं, शायद वे बता पावेंगे। पर सुप्रसिद्ध धर्मात्मा राजचन्द्रजी का फोटो टँगा हुआ पहले तो वे भी कुछ बता नहीं सके, फिर कुछ सोचकर | था। प्रतिमाजी चित्र, स्वाध्याय सभागृह तथा शिखर आदि बोले-पड़ोस में टिकट चेकर हैं- उनसे मिल लीजिये। के चित्र उतार लिये। टिकट चेकर अपने कक्ष के सामने स्थित कार्यालय में | दर्शन के बाद देखा सभागृह में सभी आयु समूह गये। कम्प्यूटर पर मंदिर संबंधी जानकारी तलाशी। उन्हें की महिलाएँ एक ओर तथा पुरुष दूसरी ओर सुन्दर भी निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद उन्होंने टेलिफोन | बिछात, कारपेट, कुर्सियों पर सुविधानुसार बैठे हैं। उनके डॉयरेक्टरी में खोजबीन की। इतने प्रयास के बाद सुफल | हाथ में समयसार (गुजराती) था। वे टेप पर चल रहे निकला। हैरो ऑन द हिल इलाके में जैनमंदिर है, तत्संबंधी कहानजी स्वामी के प्रवचन का श्रवण कर रहे थे। एकदम इतना पता चल गया। एक पर्ची पर मंदिर क्षेत्र का पता | शांत वातावरण था। पूरे एक घण्टा प्रातः ९.३० से १०.३० लिख कर दे दिया। बताया कि रेल्वे स्टेशन से लगे बजे तक कहानजी स्वामी का टेप पर प्रवचन चलता बायें भाग में सिटी बस स्टैन्ड पर बस नं. १४० या रहा। इस अवधि में मैं भी हिन्दी समयसार का वाचन १८२ से उस इलाके में उतर जाएँ। पूछताछ करके जैन- | करता रहा। इसके बाद १०.३० से ११.३० बजे तक मंदिर तक पहुँच जाओगे। बताये गये वस स्टॉप पर उतर समाज के एक विद्वजन का स्वाध्याय प्रारंभ हुआ। इसी गये और पछते-तलाशते प्रातः १० बजे के लगभग दिगम्बर के साथ में प्रश्नोत्तर भी चलता रहता है। मंदिर के प्रथम जैनमंदिर तक पहुँचने में सफल हो गये। तल पर एक और बड़ा सभागृह है। मंदिर में भगवान बाहर सड़क से ही मंदिर के पाँच शिखर और का प्रक्षाल करने के लिये शुद्ध धुले वस्त्र बदलने का मान-स्तंभ को देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। बाहर | स्थान अलग से है। अन्य सभी आवश्यक सुविधाएँ भी का प्रवेश द्वार बन्द था। मंदिर में प्रवेश करने की नयी | हैं। मंदिर प्रातः ११.३० बजे तक दर्शन के लिये खुला समस्या उपस्थित हो गयी। इलेक्टोनिक ताला लगा था। रहता है। जिन साधमी श्रद्धालु से प्रथम परिचय हुआ खी. तो उसका बटन दबाया।| था वे गजराती हैं। ३० साल तक नैराबी में रहे हैं और वद्ध सज्जन ने दरवाजा खोला। जय जिनेन्द्र | १५-१७ साल से पुत्र के साथ लंदन में हैं। उन्होंने बताया के साथ भावनाएँ व्यक्त की। उन्हें बताया इण्डिया से | कि यहाँ जितने भी जैनपरिवार हैं, वे सभी गुजराती हैं। आये हैं, दर्शन करना चाहते हैं। तत्काल वे हमें बायें | पहले हम श्वेताम्बर थे। कहानजी स्वामी के साथ दिगम्बर द्वार से मंदिर में ले गये। गर्भगृह में प्रवेश करते ही | धर्मावलम्बी हो गये। ईसाई राज्य होने से मंदिर बनाने 26 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। भगवान् की २२, जॉय बिल्डर्स कॉलोनी प्रतिमाएँ व अन्य कलात्मक निर्माण कार्य जयपुर से कराकर (रानीसती गेट के अंदर) इन्दौर (म.प्र.) यहाँ बुलवाया गया है। तीन साल पहले प्रतिष्ठा हुई | | लंदन के मंदिरजी का पताहै। हम सब एकसाथ नियमित धर्म-ध्यान, स्वाध्याय करते Shri Mahavir Swami Jain Temple The Broad Way, Wealdstone, Harrow, Middlesex, हैं। भोजन संबंधी सभी सामान घर का बना हुआ खाते HA3, 7EH, London. U.K. हैं। रेस्टोरेन्ट या अन्यत्र कुछ भी नहीं खाते हैं। पर्युषण E-mail.digamberjain.london@yahoo.co.uk पर्व पर भारत से पण्डितजी/विद्वान् को आमंत्रित करते Contact Address46, Bideford Avenue, Perivale, Middlesex UB6 7QB. U.K. दूसरे दिन भी पुनः मंदिर जी में भगवान् के दर्शन Tel.-+44(20)85667100] करने की इच्छा को फिर पूर्ण किया। Fax - +44 (20) 85667200 आचार्य विशुद्धसागर जी के सान्निध्य में टोड़ी फतेहपुर में पंचकल्याण-प्रतिष्ठा एवं त्रिगजरथ-महोत्सव ललितपर। परम पूज्य अध्यात्म योगी आचार्य श्री १०८ विशद्धसागर जी महाराज ससंघ के मंगल सान्निध्य मे सुप्रसिद्ध चामत्कारिक अतिशय तीर्थक्षेत्र टोड़ी फतेहपुर (झाँसी) में २७ जनवरी २००९ से ०२ फरवरी २००९ तक श्री मज्जिनेन्द्र-पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा एवं त्रिगजरथ-महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। जिसमें लाखों श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना है। आयोजन की तैयारियाँ युद्धस्तर पर चल रही हैं। आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज अपने पूरे संघ के साथ टोड़ी फतेहपुर पहुंच चुके हैं। चामत्कारिक घटनाएँ होने से यह तीर्थ श्रद्धालुओं को अपनी ओर बरबस ही खींच लेता है। अनेक लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होते हुए यहाँ साक्षात् देखी जा सकती हैं। ऐसे में यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठामहोत्सव का आयोजन देखने योग्य होगा। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में जैन-प्रत्याशियों की जीत पर हर्ष नरवाँ (सागर) मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की ८ दिसम्बर २००८ को हुई मतगणना में अनेक जैनप्रत्याशी भी निर्वाचित हुये हैं। प्राप्त सूचना के अनुसार सागर से श्री शैलेन्द्र जैन, जबलपुर से श्री शरद जैन, कोलारस से श्री देवेन्द्र जैन, विदिशा से श्री राघव जी भाई, दमोह से श्री जयंत मलैया, रतलाम से श्री पारस जैन, श्री ओमप्रकाश सखलेचा जैन प्रत्याशी निर्वाचित हए हैं। धर्मप्रभावना जनकल्याण परिषद ने सभी विजयी विधायकों को हार्दिक बधाई दी है। उक्त सभी विधायक भाजपा से निर्वाचित हये हैं। श्रुत-सेवा-यंग-अवार्ड-२००८ श्री आशीष शास्त्री को ___शाहगढ़ (सागर)। धर्म-प्रभावना जनकल्याण परिषद् द्वारा युवा-विद्वानों के प्रोत्साहन हेतु स्थापित श्रुत सेवा-यंग-अवार्ड का समर्पण-समारोह एवं अधिवेशन परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य परम पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज एवं एलक श्री विवेकानंद सागर जी महाराज के सान्निध्य में ९ दिसम्बर २००८ को दोपहर ३.०० बजे से समारोह पूर्वक आयोजित किया गया। वर्ष २००८ के लिए यह पुरस्कार युवा विद्वान् श्री आशीष शास्त्री शाहगढ़ को प्रदान किया गया। सुनील जैन 'संचय' शास्त्री -जनवरी 2009 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नकर्त्ता श्रीमती पुष्पा बैनाड़ा आगरा। जिज्ञासा - मुनिराज खड़े होकर ही भोजन क्यों करते हैं, तथा भोजन करते समय पैरों की स्थिति कैसी रहनी चाहिए, बतायें ? समाधान- दिगम्बर साधु के आहार के सम्बन्ध में श्री मूलाचार ग्रन्थराज में इसप्रकार कहा हैअंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ विवज्जणेण समपायं पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदि भोयर्ण णाम ॥ ३४ ॥ । अर्थ- दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथों की अंजली बनाकर भोजन करना स्थिति - भोजन नाम का व्रत है। जिज्ञासा समाधान इसकी आचारवृत्ति में कहा है कि दीवाल का भाग या खंभे आदि का सहारा न लेकर पैरों में चार अंगुल प्रमाण का अन्तर रखकर खड़े होकर अपने कर पात्र में आहार लेना स्थितिभोजन है। प्रश्न- किसलिए स्थिति भोजन का अनुष्ठान किया जाता है ? 1 उत्तर - यह दोष नहीं है, क्योंकि जब तक मेरे हाथ-पैर चलते हैं, तब तक ही आहार ग्रहण करना योग्य है, अन्यथा नहीं, ऐसा सूचित करने के लिए मुनि खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं बैठकर दोनों हाथों से या वर्तन में लेकर या अन्य के हाथ से मैं भोजन नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा के लिए भी, खड़े होकर आहार करते हैं। दूसरी बात यह भी है कि अपना पाणिपात्र शुद्ध रहता है तथा अन्तराय होने पर बहुत सा भोजन छोड़ना नहीं पड़ता है, अन्यथा थाली में खाते समय अन्तराय हो जाने पर भोजन से भरी हुई पूरी थाली को छोड़ना पड़ेगा, इससे दोष लगेगा तथा इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम का परिपालन करने के लिए भी स्थितिभोजन मूलगुण कहा गया है। यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में इस प्रकार कहा है न स्वर्गाय स्थितेर्भुक्तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः । किं तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥ १३३ ॥ पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुज्जेहाम्याहारमन्यथा ॥। १३४ ।। 28 जनवरी 2009 जिनभाषित - पं० रतनलाल बैनाड़ा अर्थ- बैठकर भोजन करने से स्वर्ग नहीं मिलता और न खड़े होकर भोजन करने पर नरक में जाना पड़ता है किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए ही खड़े होकर भोजन करते हैं। मुनि भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि 'जब तक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरे खड़े होकर भोजन करने की शक्ति है, तब तक मैं भोजन करूँगा, अन्यथा आहार को छोड़ दूँगा । इसी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं' ॥ १३३-१३४ ॥ श्री श्रावकाचार सारोद्धार ग्रन्थ में भी इस प्रकार कहा है- 'ज्ञान नेत्रवाले संयमीजनों की यह प्रतिज्ञा होती है कि जब तक मेरे दोनों हाथ परस्पर मिले हुए रहें और जब तक खड़े होकर भोजन करने की सामर्थ्य है, तब तक ही मैं भोजन की क्रिया करूँगा, अन्यथा सामर्थ्य के अभाव में परलोक की सिद्धि के लिए मैं भोजन की क्रिया को छोड़ दूंगा ॥ ३१२-३१३ ॥ I विशेष वर्तमान में कुछ दिगम्बर साधु, दोनों पैरों के बीच चार अंगुल से अधिक अन्तर रखकर आहार करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार आहार करना उपर्युक्त श्री मूलाचार के कथनानुसार उचित नहीं है । प्रश्नकर्त्ता - श्रीमती चमेलीदेवी, सागर । जिज्ञासा- मैं अपने पुत्र के साथ रहती हूँ। मैंने पूज्य आचार्यश्री से पाँच प्रतिमा ले रखी हैं। मेरे पुत्र का ट्रांसफर ऐसे स्थान पर हो गया है, जहाँ न तो मंदिर है और न कुँआ । अब मुझे क्या करना चाहिए? समाधान- आपने पूज्य आचार्यश्री से जो प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए हैं, उनका उसी रूप में पालन करना आपका कर्त्तव्य हो जाता है। श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है व्रतभङ्गोऽथवा यत्र देशे न जिनशासनम् ॥ क्वचित्तत्र न गन्तव्यं तदपीदं व्रतं भवेत् ॥ ३८ ॥ यत्र देशे जिनावासः सदाचारा उपासकाः । भूरिवारीन्धनं तत्र स्थातव्यं व्रतधारिणा ॥ ४० ॥ अर्थ- जहाँ अपना व्रतभङ्ग होता हो तथा जिस देश में जिनधर्म न हो, उस देश में कभी नहीं जाना चाहिए। इसे भी देशावकाशिक शिक्षाव्रत कहते हैं ॥ ३८ ॥ जिस देश में जिनालय हो, उत्तम आचरण के धारक - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक हों, तथा जल एवं ईंधन की जहाँ प्रचुरता हो,। भावार्थ- विषयसुख के लिए धन साधन है। स्त्री उसी देश में व्रती पुरुषों को रहना चाहिए।॥ ४०॥ | विषयसुख का मुख्य अवलम्बन है। महल, मकान, बाग उपर्युक्त शास्त्राज्ञा के अनुसार आप यदि लिखे | बगीचा आदि विषय सुखों के गौण साधन हैं। अतः अनुसार स्थान पर जाती हैं, तो आपका व्रत कैसे रह | विषयसुख का साधन स्त्री मानी गई है। यदि उसकी पायेगा? आपको या तो जहाँ अभी रह रही हैं, वहाँ | अभिलाषा से जिसका अन्त:करण विमुख हो जायेगा, तो ही रहना चाहिए अथवा किसी महिलाश्रम में रहना उचित | | फिर विषयसुख के गौण साधनभूत धनादिक इच्छा की है। ली हई प्रतिज्ञा को भंग करने में तो महान् दोष | निष्फलता स्वयं हो जाती है। जब साध्य ही नहीं चाहिए है। धर्मसंग्रहश्रावकाचार में कहा है तो फिर साधन की क्या जरूरत हे? जैसे मुर्दे को आभूषण धार्मिकः प्राणनाशेऽपि व्रतभङ्गं करोति न। । पहनाकर सजाना व्यर्थ है, वैसे ही स्त्री से विरक्त पुरुष प्राणनाशः क्षणे दुःखं व्रतभश्चिरं भवे॥ ८७॥ के लिए धन की इच्छा निरर्थक मानी जाती है। (टीका अर्थ- धर्मात्मा पुरुषों को अपने ग्रहण किये हुए | आ० सुपार्श्वमती जी) व्रत का भंग कभी नहीं करना चाहिए, चाहे प्राणों का प्रश्नकर्ता- प्रवीणचन्द्र जैन, देहली। नाश ही क्यों न हो जाये। क्योंकि प्राणों के नाश होने जिज्ञासा- क्या क्षुल्लक मोटरकार या ट्रेन आदि से तो उसी समय दुःख होता है, परन्तु व्रतभंग होने | सवारी में बैठ सकते हैं? पर चिरकाल पर्यन्त संसार में असहनीय दुःख उठाने समाधान-२०वीं शताब्दी के उच्च कोटि के विद्वान् पड़ते हैं। ८७॥ श्री रतनचन्द्र जी मुख्तार से, वर्तमान के उद्भट विद्वान प्रश्नकर्ता- पं० राजेशकुमार शास्त्री, इन्दौर। | पं० जवाहरलाल जी शास्त्री भिण्डर ने यही प्रश्न पूछा जिज्ञासा- क्या ब्रह्मचारी भाइयों द्वारा धन एकत्र | था, जिसका उत्तर 'पं० रतनचन्द्र जैन मुख्तार- व्यक्तित्व करना आगम के अनुसार उचित है? और कृतित्व ग्रन्थ' में पृष्ठ ७१९ पर इस प्रकार दिया समाधान- पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज | गया है, 'क्षुल्लक समस्त परिग्रह का त्यागी होता है। के द्वारा प्रवचनों में मैंने कई बार सुना है कि ब्रह्मचारियों | यदि वह सवारी में बैठता है, तो उसके किराये के लिए को धन एकत्र नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में भी इसके | उसको पैसा अर्थात् परिग्रह रखना पड़ेगा तथा उस पैसे विभिन्न प्रमाण पाये जाते हैं के लिए याचना करनी पड़ेगी। दूसरे, क्षुल्लक के सर्व यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन (श्लोक ३८९) | | प्रकार के आरम्भ का भी त्याग है, अतः यदि वह सवारी में इस प्रकार कहा है, का उपयोग करता है, तो उसको आरम्भसम्बन्धी दोष - देह-द्रविण-संस्कार-समुपार्जनवृत्तयः । लगता है। तीसरे, सवारी में बैठकर सामायिक आदि करने जितकामे वृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक्॥ | से क्षेत्रपरिमाण नहीं बनता, अतः सामायिक में दोष लगता अर्थ- जिसने काम को जीत लिया, उसका देह | है। सारतः क्षुल्लक को सवारी में नही बैठना चाहिए। का संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में तो आठवीं आरम्भत्याग हैं. क्योंकि काम ही इन दोषों की जड़ है॥ ३८९॥ । प्रतिमा को धारण करनेवालों के लिए भी सवारी पर सागारधर्मामृत (अध्याय ६/३६) में इस प्रकार कहा | चढ़ना निषेध किया है, कहा है रथाद्यारोहणं निन्द्यं स्थूलजीवविघातकम्। स्त्रीतश्चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमीहसे। । प्राणान्तेऽपि न कर्तव्यं त्यक्तारम्भैः कदाचन॥ १०७॥ मृतमण्डनकल्पो हि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः॥ ३६॥ अर्थ- आरम्भत्याग प्रतिमा धारण करनेवाले व्रतियों अर्थ- हे मन, यदि तू निश्चित ही स्त्री से निवृत्त | के प्राण नष्ट होने पर भी स्थूल जीवों की हिंसा करनेवाले हो गया है, तो फिर धन को क्यों चाहेगा? क्योंकि स्त्री | निंद्य रथ आदि सवारियों पर चढकर कभी नहीं चलना की इच्छा नहीं रहने पर धन को ग्रहण करना अथवा | चाहिए। धन की इच्छा करना मरे हुए मुनष्यों को आभूषण पहनाने | आचार्य सूर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य में संवत् के समान व्यर्थ है। २००७ में फिरोजाबाद में बहुत भारी उत्सव हुआ था है -जनवरी 2009 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमें मुनिसंघ विराजमान था, तथा बाहर से ७०-७५ | का उपकार करना अच्छा नहीं है। जैसे जब हाथ में व्रती भी पधारे हुए थे। उस सम्मेलन की चर्चा क्षल्लक | चिन्तामणि रत्न आ जावे, तो फिर ऐसा कौन दुर्बुद्धि श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ने 'मेरी जीवन गाथा' में इस | होगा जो उसे छोड़कर पत्थरों को स्वीकार करेगा? कोई प्रकार लिखी है- "इस व्रती सम्मेलन में एक विषय | नहीं करेगा। यह आया कि क्या क्षुल्लक वाहन पर बैठ सकता है? स्फुरत्येकोऽपि जैनत्व-गुणो यत्र सतां मतः। महाराज ने कहा कि जब क्षुल्लक पैसे का त्याग कर तत्राप्यनैः सप्पात्रोत्यं खद्योतवद्रवौ॥ ५२॥ चुका है, तथा ईर्यासमिति से चलने का अभ्यास कर वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्त्रशः। रहा है, तब वह वाहन पर कैसे बैठ सकता है? पैसे दलादिसिद्धान् कोऽन्वेति रससिद्धे प्रसेदषि॥५३॥ के लिए उसे किसी से याचना करनी पड़ेगी तथा पैसों अर्थ- जिस जैन में सज्जनों को प्रिय ऐसा एक की प्रतिनिधि जो टिकिट आदि है, वह अपने साथ रखनी | भी जैनत्व गुण प्रकट है, उस जैन के सामने ज्ञान और पडेगी। आखिर विचार करो मनुष्य क्षुल्लक हुआ क्यों? तप स आधक अजन पुरुष, सूय क सामन जुगनू का इसीलिए तो हआ कि इच्छाएँ कम हों? यातायात कम | तरह प्रकाशित होते हैं। ५२॥ हो, सीमित स्थान में विहार हो। फिर क्षुल्लक बनने पर | उपकार किया हुआ एक भा जन उत्कृष्ट ह, जब भी इन सब बातों में कमी नहीं आई. तो क्षल्लक पद | कि अन्यमतवाले मिथ्यादृष्टि हजार भी अच्छे नहीं हैं। किसलिए रखा? --- यथार्थ में जो कौतुकभाव क्षुल्लक । | क्योंकि रस की सिद्धि करनेवाले परुष के प्राप्त हो जाने होने के पहले था, वह अब भी गया नहीं। यदि नहीं | पर, सार रहित कृत्रिम सुवर्ण बनानेवाले पुरुषों की कौन गया, तो कौन कहने गया था कि तम क्षल्लक हो जाओ | खोज करता है? ---- । लोग कहते हैं कि दक्षिण के क्षुल्लक तो बैठते श्री इन्द्रनन्दि सूरि विरचित नीतिसार समुच्चय ग्रन्थ हैं? पर उनके बैठने से क्या वस्तुतत्व का निर्णय हो । में इसप्रकार कहा हैजावेगा? वस्त का स्वरूप तो जो है. वही रहेगा। दक्षिण तस्मै दानं प्रदातव्यं, यः सन्मार्गे प्रवर्तते। और उत्तर का प्रश्न बीच में खड़ा कर देना हित की पाखण्डिभ्यो ददद्दानं, दाता मिथ्यात्ववर्धकः॥४८॥ बात नहीं। अर्थ- उसी को दान देना चाहिए जो सन्मार्ग उपयुक्त प्रमाणों के अनुसार क्षुल्लक को किसी | (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग) भी सवारी में बैठना बिल्कुल उचित नहीं है। में प्रवृत्ति करता हो। पाखण्डी को , जैनधर्म के विनाशक जिज्ञासा- किसी दिगम्बरजैन को दान दे या किसी को दान नहीं देना चाहिए। क्योंकि पाखण्डी को, दिगम्बर अन्य मतवाले को दान दे, तो समान फल मिलेगा या धर्म के निन्दक को दान देनेवाला दाता मिथ्यामार्ग का अन्तर है? पोषक अथवा वर्द्धक होता है। समाधान- इस संबंध में शास्त्रों के निम्न प्रमाणों उपर्युक्त सभी प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि जब पर विचार करना योग्य है भी कोई दान देना हो, तब दिगम्बर जैन धर्म के प्रचारश्री धर्मसंग्रहश्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | प्रसार आदि के लिए हा दें। अन्य मत के लोगों को एकोऽप्युपकृतो जैनो वरं नाऽन्ये ह्यनेकशः। भोजन कराना, उनके मन्दिर, स्कूल, साधु आदि के लिए हस्ते चिन्तामणौ प्राप्ते को गृह्णाति शिलोच्चयान्॥१७६ ॥ | दान देना, कदापि उचित नहीं है। उसका फल न के ' अर्थ- जैनधर्म के धारक एक भी भव्य पुरुष बराबर होता है। का उपकार करना अच्छा है, परन्तु हजारों मिथ्यादृष्टियों । १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी. आगरा (उ.प्र.) कबीरवाणी गुरु वेचारा क्या करे, हिरदा भया कठोर। नौ नेजा पानी पढ़ा, पथर न भीजी कोर॥ जो दीसै सो विनसि है, नाम धरा सो जाय। कबीर सोई तत गह्यो, सतगुरु दीन्ह बताय॥ 30 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र माननीय संपादक जी पूज्य मुनि श्री प्रणम्यसागर जी द्वारा लिखित 'जिनभाषित' नवम्बर २००८ का अंक मिला। पृ० 'षडावश्यक आज क्यों आवश्यक?' आलेख का पठन८ पर प० पृ० उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी महाराज | पाठन हमारे जीवन में अत्यधिक उपयोगी है। पूज्य गुरुवर द्वारा लिखित 'आदिकाल की याद दिलाती दीवाली' भी | ने छह दैनिक कर्तव्यों की आधुनिक ढंग से सहज एवं पढ़ा। वैसे तो आप एवं प्रकाशक जी प्रखर मनीषी हैं, | सरल व्याख्या की है। उन्होंने अपने आलेख में पाश्चात्य सामग्री को अवलोकित सम्यक् प्रकार से करते होंगे। | संस्कृति के सुप्रसिद्ध लेखक डॉ० कैरल के प्रार्थना की फिर भी कुछ प्रश्न जिज्ञासा पैदा करते हैं। महत्ता संबंधी लेख का उद्धरण दिया है। इससे स्पष्ट १. पृ०८, 'युग के आदि में ......... प्रथम तीर्थंकर है कि हमारे मुनिजन भारतीय संस्कृति के साथ-साथ आदिनाथ स्वामी ने पत्थर से पत्थर रगड़कर चिंगारी द्वारा पाश्चात्य संस्कृति का भी अध्ययन, मनन एवं चिंतन अग्नि का आविष्कार कराकर भोजन पकाने एवं रात्रि | करते हैं। के अंधकार से बचने के लिए दीपक जलाने की शिक्षा इसी प्रकार पण्डित समतचन्द्र दिवाकर ने अपने दी।' क्या यह असंगत नहीं है। शास्त्रपरम्परा से द्रष्टव्य आलेख 'कर्म हमारे विधाता नहीं' के माध्यम से हमें पुरुषार्थ करने की प्रेरणा प्रदान की है। २. हिन्दूधर्मानुसार दीपावली के प्रारंभ व प्रचलन हमें यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि पूज्य को यहाँ विस्तार से प्रकाशित करना सम्यग्दर्शन की आचार्य श्री विद्यासागर जी के कालजयी महाकाव्य विराधना का कारण नहीं हैं? क्या इससे जैनसमाज में | मूकमाटी पर लिखित समालोचनासंग्रह ग्रन्थ 'मूकमाटीजैनधर्म-दर्शन-परम्परा से मेल न खानेवाले कथानक मीमांसा' प्रकाशित एवं लोकार्पित हो गया है। इस ग्रन्थ प्रचारित नहीं होंगे? के संपादक सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी ने उपर्युक्त विचारणीय है। ग्रन्थ को साकार रूप देने में पूज्य मुनिश्री अभयसागर पत्रिका श्रेष्ठ रूप में अनवरत प्रकाशित है। आपको | जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका की सराहना की है और उनकी व प्रकाशक जी व समस्त प्रबन्ध को बधाई। उद्भट क्षमता, आस्था एवं निष्ठा की प्रशंसा की है। शिवचरणलाल जैन | सम्पूर्ण राष्ट्र के शीर्षस्थ स्तर पर विराजमान समालोचक श्याम भवन, बजाजा मैनपुरी - २०५००१ | विद्वान् का यह कथन चतुर्विध संघ एवं सम्पूर्ण जैनसमाज (उ.प्र.) | को साहित्यिक प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान करता है। खेद कृपया इसी प्रकार से परिवार के प्रत्येक सदस्य लेख के ऊपर एक उपाध्यायपदधारी मुनिश्री का | के लिए उपयोगी जानकारी अपनी पत्रिका में देकर इस नाम देखकर मैंने समय बचाने के लिए उसे पढ़ना | पत्रिका की ऊँचाई को बढ़ाने में सदैव अपना अमूल्य आवश्यक नहीं समझा। अपने इस प्रमाद के लिए मुझे अवदान प्रदान करते हुए हमें अनुगृहीत करें। खेद है। सुरेश जैन सम्पादक : रतनचन्द्र जैन ३०, निशात, कॉलोनी, भोपाल आदरणीय सम्पादक जी माननीय संपादक जी जिनभाषित (नवम्बर २००८) में स्वाध्याय की | दिसम्बर 2008 के जिनभाषित में जिज्ञासा-समाधान महत्ता को रेखांकित करते हुए शोध-पूर्ण संपादकीय | के अन्तर्गत एक यह जिज्ञासा की गई है कि पंचपरमेष्ठी पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। जैनसंस्कृति ने स्वाध्याय की आरती में क्या 'छट्ठी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक को श्रेष्ठतम तप के रूप में स्वीकार किया है। इस का | बन्दों आनन्दकारी' यह बोलना उचित है? और इसके ही परिणाम है कि सम्पूर्ण जैनसमाज शतप्रतिशत रूप | समाधान में आचार्य कुन्दकुन्दकृत सुत्तपाहुड की 'जग्गो से साक्षर है। विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे' इस गाथा (क्र० जनवरी 2009 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23) को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि कुन्दकुन्द । श्रावकधर्म के पालक भी होते हैं, उन्हें उन्मार्गी कैसे के अनुसार "नग्नवेश ही मोक्षमार्ग है, शेष सब उन्मार्ग कहा जा सकता है? यदि श्रावकधर्म उन्मार्ग होता, तो हैं। ग्यारह प्रतिमाधारी एलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका और | आचार्य अमृतचन्द्र उसे पुरुषार्थसिद्धयुपाय (मोक्षपुरुषार्थ आर्यिकाएँ सभी वस्त्रधारी होने के कारण मोक्षमार्गी नहीं | की सिद्धि का साधन) न कहते और उसे सागारधर्म हैं, अतः पूजा, आरती के योग्य भी नहीं हो सकते।" | तथा परम्परया मुनिधर्म और मोक्ष का साधक भी न कहा आचार्य कुन्दकुन्द की उक्त गाथा का यह अर्थ | जाता। यद्यपि श्रावक संयमधारी न होने से निश्चयनय समीचीन प्रतीत नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द ने जो से मोक्षमार्गी नहीं कहा जा सकता, तथापि मोक्षमहल वस्त्रधारियों को उन्मार्गी कहा है, वह श्वेताम्बर आदि | की सम्यग्दर्शनरूप प्रथम सीढ़ी पर उसके चरण स्थित सम्प्रदायों के साधुओं को दृष्टि में रखकर कहा है। यह | होने के कारण वह व्यवहारनय से मोक्षमार्गी ही है, उन्मार्गी टीकाकार श्रुतसागर सूरि के निम्नलिखित वचनों से सिद्ध | नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि पञ्चपरमेष्ठी ही वन्दनीय "नग्नो वस्त्राभरणरहितो विमोक्षमार्गः ज्ञातव्यः। । हैं, अतः एलक, क्षुल्लक एवं आर्यिका वन्दना के योग्य शेषाः सितपटादीनां मार्गाः सर्वेऽपि उन्मार्गका: कुत्सिता | नहीं हैं, इच्छाकार के ही योग्य हैं, तथापि वे उन्मार्गी मिथ्यारूपा मार्गा जानीया विद्वद्भिरित्यर्थ।" नहीं हैं। और दीपकपूजा तो सचित्तपूजा है, अतः उसका अर्थ- जो वस्त्राभरणरहित नग्नत्व है, उसे विद्वानों | तो तेरापन्थ आम्नाय में निषेध है। इसलिए तेरापन्थ में को मोक्षमार्ग जानना चाहिए, शेष श्वेताम्बर आदि सम्प्र- | तो पंचरमेष्ठी की भी आरती निषिद्ध है। यही कारण दायों के जितने भी मार्ग हैं, उन सबको उन्मार्ग, कुत्सितमार्ग, | है कि तेरापन्थी-पूजापद्धति में दीपक के स्थान में नारियल मिथ्यामार्ग समझना चाहिये। की पीली चिटकें भगवान को चढायी जाती हैं। इन वचनों से सिद्ध है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने मिथ्यादृष्टियों के मार्ग को ही उन्मार्ग कहा है, सम्यग् इंजी० धर्मचन्द्र वाझल्य दृष्टियों के मार्ग को नहीं। आर्यिका, एलक, क्षुल्लक ए-92, शाहपुरा, भोपाल-462 039 एवं क्षुल्लिका न केवल सम्यग्दृष्टि होते हैं, अपितु दूरभाष 0755-2424755 श्रीसेवायतन द्वारा आयोजित व्यक्तित्व विकास । में लगी सम्पूर्ण राशि श्री राजकुमार जी ने वहन की। कार्यक्रम सम्पन्न | श्रीसेवायतन मधुबन पारसनाथ को दान देने हाल ही में श्री सेवायतन संस्थान द्वारा श्री सम्मेद | पर आयकर में छट शिखर जी में मधुबन पंचायत के 14 गाँवों में से चुनित श्रीसेवायतन संस्थान मधुबन पारसनाथ को आयकर 140 लोगों के व्यक्तित्व-विकास कार्यक्रम के अंतर्गत | आयुक्त धनबाद ने जाँचोपरांत आयकर अधिनियम की जीवन जीने की कला एवं योगशिक्षा कार्यक्रम सम्पन्न | धारा 80 जी. के अंतर्गत दान-दाताओं को दान की राशि हुआ। एक सप्ताह तक चले इस कार्यक्रम से प्रशिक्षित | देने में आयकर छूट देने की स्वीकृति प्रदत्त की है। युवा महिलाएँ एवं युवक पूर्ण शाकाहारी एवं मद्यपान | यहाँ पर उल्लेखनीय है कि श्रीसेवायतन संस्थान गिरिडीह रहित बने एवं संकल्प लिया कि पावन तीर्थराज की | जिले के पीरटांड प्रखण्ड अंतर्गत मधुबन पंचायत के पवित्रता बनी रहे, वे सभी इसके लिए श्रीसेवायतन के | 14 गाँवों को सर्वांगीण विकास के लिए चुना है और साथ पूरी निष्ठा से जुड़े रहेंगे। इस संस्थान द्वारा मानवसेवा एवं ग्रामीणविकास के इस अवसर पर 10 महिलाओं को सिलाई मशीनें | अनेकानेक सृजनात्मक कार्यक्रम कर एक मिसाल पैदा श्री राजकुमार जैन धनबाद एवं उनकी धर्मपत्नी ने वितरित | की है, जो अपने आप में एक ऐतिहासिक उदाहरण की। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि श्री राजकुमार जी जैन | है। श्रीसेवायतन की पिछली बैठक में अनेक कार्य किये धनबादवालों के पूर्ण सहयोग से एक सप्ताह का 140 जाने का निर्णय लिया गया है। लोगों का यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस आदर्श कार्यक्रम | विमल (सेठी) गया प्रचार मंत्री- श्रीसेवायतन, मधुबन 32 जनवरी 2009 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहारी की गज़ल उम्र जलवों में बसर हो स्व० श्री बिहारीलाल जी जैन श्री बिहारीलाल जी जैन मध्यप्रदेश के सिवनी नगर में एक दिगम्बर जैन परिवार में जन्मे (23 मई 1905) तथा अमेरिका के वर्जीनिया प्रान्त के ब्लूफील्ड नगर में चिर निद्रा में सोए। (5 अप्रैल 1992) उनकी लेखनी की भव्यता पर उन्हें न केवल मातृभाषा हिंदी में, बल्कि अँगरेजी कविताओं पर भी विश्व प्रसिद्ध सर्वोच्च सम्मान 'गोल्डन पोयट' (स्वर्णकवि) पुरस्कार 2 सितम्बर 1989 को वाशिंगटन हिल्टन में प्रदान किया गया। उम्र जलवों में बसर हो ये जरूरी तो नहीं। हर शबे गम की सहर हो ये जरूरी तो नहीं॥ न पियो, मांस न खाओ, परहेज़गार रहो। गैर को मार कर खाओ, ये जरूरी तो नहीं॥ नींद तो दर्द के बिस्तर पै भी आ जाती है। नींद लाने को दवा खाओ, जरूरी तो नहीं॥ कर्म का जीव से संबंध तो अनादि है। पर वो अनंत तक भी हो, ये जरूरी तो नहीं॥ सही अकीदा अमल, इल्म तो नियामत हैं। इश्क में उम्र बसर हो, ये जरूरी तो नहीं॥ विषय-कषाय घटाना ही शुद्धि मारग है। पाप करके उसे छोड़ो ये जरूरी तो नहीं। साफ जल से नहाना, जिस्म की सफाई है। पहले कीचड़ में लिपट लो, ये जरूरी तो नहीं॥ कमाई धर्म की शुभ में लगे, ये पुण्य ही है। पाप कर पैसा कमा, 'धर्म' जरूरी तो नहीं॥ फर्ज इंसान का बेशक नज़ात हासिल हो। तपे उल्फत में ही जलना, ये जरूरी तो नहीं॥ जिस्म से रूह गैर है, ये 'बिहारी', समझो। परिस्तिश जिस्म की ताउम्र जरूरी तो नहीं॥ 'बिहारी की गजलें' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 प्रवचन के पॉइन्ट मुनि श्री क्षमासागर जी : संस्मरण प्रसंग * सरोजकुमार इंदौर जैनसमाज के सर्वमान्य नेता पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी की यह इच्छा सदैव रही है, कि अच्छे उद्बोधन देनेवाले विद्वान् जैनमुनियों का, नगर के सर्वसाधारण नागरिकों की सभाओं में, प्रवचन हो। श्री पाटोदी ने मुनिश्री विद्यानंदजी के अनेक प्रवचन नगर के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए थे, जिन्हें सुनने विशाल जन-समुदाय एकत्रित होता था। वर्ष 1996में इंदौर में संपन्न मुनि श्री क्षमासागर जी के चातुर्मास के समय जब पाटोदी जी ने देखा, कि मुनिश्री के प्रवचन अत्यंत प्रभावशाली होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति का फलक अत्यंत विस्तृत होता है, तब उनके मन में विचार आया कि मुनिश्री के प्रवचन नगर के विभिन्न समुदायों के नागरिकों के बीच भी होना चाहिए। चातुर्मास प्रारंभ होने के कुछ ही समय बाद से यह सभी को ज्ञात होता जा रहा था, कि मुनिश्री न केवल प्रखर वाग्मी हैं, अपितु उद्भट विद्वान् भी हैं। पाटोदी जी ने मुनिश्री से जवाहर मार्ग स्थित वैष्णव महाविद्यालय के प्रांगण में प्रवचन हेतु स्वीकृति प्राप्त की। प्रवचन की पूर्व संध्या श्री पाटोदी मुनिश्री की वंदना हेतु उपस्थित हुए। दूसरे दिन सुबह होनेवाले मुनिश्री के प्रवचन को लेकर संभवतः श्री पाटोदी के मन में कुछ बातें होंगी। अतः बातों ही बातों में वे मुनिश्री को सुझाने लगे कि महाराज, आप प्रवचन के पूर्व अपना अत्यंत प्रभावशाली ओंकार का उच्चारण अवश्य निनादित कीजियेगा। लम्बी साँस में आपके मुख से ओंकार ध्वनि चारों दिशाओं को बाँध लेती है। मुनिश्री ने शांतभाव से यह बात सुनी, और यथावत् मौन बैठे रहे। श्री पाटोदी ने पुनः कहा, महाराज, आप अपने प्रवचन में अंगुलिमाल की कथा अवश्य सुनाइयेगा। कंचनबाग के प्रांगण में इस कथा को सुनकर सभी उपस्थितों की आँखें भींग गई थीं। मुनिश्री इस सुझाव के बाद भी कुछ नहीं बोले। श्री पाटोदी ने मुनिश्री के प्रवचनों के विषयों को लेकर कुछ और सुझाव भी दिए। मुनिश्री गंभीर मुद्रा में आदर्श श्रोता की तरह सारे सुझाव सुनते रहे। फिर श्री पाटोदी के सुझावों के बाद, अपनी चुप्पी तोड़ते हुए अत्यंत सरल भाव से बोले, 'पाटोदी जी! और भी बता दीजिए, मुझे सभा में और क्या-क्या बोलना है....?' श्री पाटोदी मुनिश्री के कथन में व्याप्त चुटकी सुनकर पानी-पानी हो गए, और यही कह पाए, 'महाराज, आपकी जय हो।' -का मनोरम, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर, म.प्र. स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, ___ Jain Education internatiभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। ,