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________________ प्रतिमाओं का स्पर्श करना आगम अनुकूल नहीं है आचार्य श्री मेरुभूषण जी करें। "दिगम्बर जैन ज्योति पत्रिका सितम्बर २००८ के। मिल सकेगा। यदि सिद्धशिला पर वास नहीं होगा, तो अंक में पेज ७ पर प्रकाशित गणिनी आर्यिका १०५ / २००० सागर बीतने पर उसे नियम से निगोद ही जाना सुपार्श्वमति माता जी का यह स्पष्टीकरण कि 'क्षुल्लक | होगा। जी को प्रतिमास्पर्श करने का निषेध नहीं' आगम प्रमाण | किसी विद्वान, साधु-साध्वी को भगवान् के चरण नहीं है। पाठकगण स्वयं विवेचना करें कि क्षुल्लक को छने का प्रमाण मिले, तो शास्त्र के आधार पर स्पष्ट मुनि का लघुनन्दन कहा गया है। उसकी आहार सम्बन्धी कुछ क्रियाओं को छोड़कर वह मुनिसमान ही | साधु का कार्य स्व-आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन है। क्षुल्लक केवल आहार को जाता है तभी शुद्ध है, वीतरागता को निहारना, स्वानुभूति, आत्मानुभूति और शेष अवधि अशुद्ध माना गया है। अतः आगम में कहीं आत्मदर्शन करना मात्र है। आत्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है। भी क्षुल्लक को प्रतिमा के चरण छूने का उल्लेख नहीं आत्मदर्शन साक्षात् मोक्ष है। जो वीतराग-समता सहित है। इतना ही नहीं आचार्य, उपाध्याय, मुनि, एलक, क्षुल्लक है। ज्ञान-दर्शन-चेतना स्वरूप है। को भी आगम में चरण छूने को नहीं कहा गया। यदि गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से पूछा कि मुनि को भगवान् के चरण छूने का प्रावधान होता, तो | भगवन् ! मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही मुनि के २८ मूलगुणों में उसका प्रावधान होता। २८ मूलगुणों | है, तो भगवान् ने बतलाया कि तुम्हें मुझसे राग हो गया में मुनि को ६ आवश्यक कार्य प्रतिदिन करने होते हैं, | है, जिससे परद्रव्य-आसक्तिभाव से तुम्हारा गुणस्थान गिर जिनमें सामायिकी, स्तुति, वन्दना, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण | गया, जब कि केवलज्ञान की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में और प्रत्याख्यान हैं। मंदिर जी में मुनि स्तुति, वन्दना, | होती है। भगवान् महावीर को दीपावली के दिन प्रात:काल कायोत्सर्ग करते हैं। स्तुति का आशय है २४ तीर्थंकरों की वेला में मोक्ष हो गया, तो परद्रव्य-आसक्तिभाव का अथवा उनमें से किसी एक तीर्थंकर के गुणों का स्तवन | माध्यम हट गया, तो गौतम गणधर को, उसी दिन सायंकाल करना, वन्दना का आशय है तीन परिक्रमा करना, की वेला में केवलज्ञान हो गया और भगवान् कहलाये। कायोत्सर्ग का मतलब है अपने पुद्गल से ममत्वभाव | अतः आचार्य, उपाध्याय, मुनि, एलक, क्षुल्लक छोड़कर अपनी आत्मा के वीतराग स्वरूप को निहारना, | को परद्रव्य-आसक्तिभाव एवं अचेतन द्रव्य-आसक्तिभाव स्वानुभूति, आत्मानुभूति और आत्मदर्शन करना। प्रतिमा के दोष से बचने के लिये अपने पुद्गल में बैठे अपनी के चरण छूने का स्पष्ट आशय है परद्रव्य में आसक्तिभाव | चैतन्यआत्मा के वीतराग स्वरूप का दर्शन करना चाहिए, तथा अचेतन प्रतिमा में आसक्तिभाव। मोक्षमार्गी वह है, उससे स्वानुभूति, आत्मानुभूति एवं आत्मदर्शन होगा। जो अपने पुद्गल में बैठे अपने चैतन्यआत्मा के वीतराग- | आत्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है, आत्मदर्शन ही साक्षात् मोक्ष | है.जो वीतरागता-समता सहित है। जिसका ज्ञानदर्शन चेतना दर्शन करे, क्योंकि निश्चय से मेरी आत्मा ही सिद्धात्मा | स्वरूप है। है, वीतराग है, निरंजन एवं परमात्मा है। फिर मोक्षाभिलाषी __ आजकल हमारे कुछ साधु-साध्वी बहुत से कार्य को अचेतन प्रतिमा के चरण छूने परद्रव्य-आसक्ति एवं आगम की अनदेखी कर करने लगे हैं। जैसे श्रावकअचेतन-आसक्तिभाव का दोष आवेगा। श्रावकों के व्यवहार | श्राविका के हाथ में मौली बाँधना और केशर से टीका धर्मपालन हेतु आचार्यों ने सूरि-मंत्र देकर श्रावकों के | करना, प्राचीनकाल में वैष्णवमत के पंडित इस कार्य लिये मूर्तिपूजन, स्तुति, वन्दना के योग्य बना दिया है, को करते थे, उन्हें दक्षिणा मिलती थी. मगर वैष्णवों ताकि श्रावकों के व्यवहारधर्म का पालन हो सके और | के साधु नहीं करते थे। मगर वीतरागता की दुहाई देनेवाले उनको मोक्ष का मार्ग मिल सके। यदि श्रावक का | साधुओं ने वैष्णव पंडितो का कार्य अपने हाथ में ले व्यवहारधर्म ही लोप हो गया, तो उसे मोक्षमार्ग ही नहीं। लिया, जन्मपत्री बनवाना, विवाह का मुहूर्त बताना, विवाह -जनवरी 2009 जिनभाषित 19 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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