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________________ 2 सम्पादकीय जिनभाषित के प्रस्तुत अंक में हम युवा, अनुभवी, प्रतिष्ठा-प्रवीण एवं सुप्रसिद्ध विद्वद्वय प्रतिष्ठाचार्य पं० सनतकुमार विनोदकुमार जी जैन का वास्तुविज्ञान विषयक एक लेख प्रकाशित कर रहे हैं। उसका शीर्षक है ‘गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ।' इसमें विद्वद्वय ने गृहचैत्यालय निर्माण में अनेक वास्तुशास्त्रीय नियमों का पालन आवश्यक बतलाया है, जो समीचीन है। उक्त नियमों के पालन से गृहचैत्यालय में स्थापित जिनप्रतिमा की अविनय तथा चैत्यालय की अशुद्धि का प्रतीकार होता है। वास्तुशास्त्र और कर्मसिद्धान्त अधोलिखित जिनवचन भी विचारणीय हैं किन्तु उन्होंने और अन्य सभी जैन वास्तुशास्त्रियों ने आर्यिका श्री विशुद्धमति जी कृत वत्थुविज्जा (पृ. १७०) में उद्धृत दो श्लोक उद्धृत कर जो यह बतलाया है कि गृह, देवालय आदि का निर्माण वास्तुशास्त्र के विपरीत होने पर निर्माता एवं गृहवासियों का आयुनाश, मनस्ताप, पुत्रनाश तथा कुलक्षय आदि अनिष्ट होते हैं, वह जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। वत्थुविज्जा में उद्धृत वे श्लोक इस प्रकार हैं प्रासादो मण्डपश्चैव विना शास्त्रेण यः कृतः । विपरीतं विभागेषु योऽन्यथा विनिवेशयेत् ॥ विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते । आयुर्नाशो मनस्तापः पुत्रनाशः कुलक्षयः ॥ आर्यिका श्री ने यह श्लोक किस प्राचीन ग्रन्थ से लिया हे, उसका रचयिता कौन है, वह जैन है या अजैन? इसका उल्लेख नहीं किया । उपर्युक्त विद्वद्वय ने अपने कथन के समर्थन में उमास्वामि- श्रावकाचार के निम्न पद्य भी उद्धृत किये हैं गृहे प्रविशता देवतावसरं नीचैर्भूमिस्थितं नीचैर्नीचैस्ततोऽवश्यं अनुवाद - " घर में प्रवेश करते हुए शल्यरहित वामभाग में डेढ़ हाथ ऊँची भूमि पर देवता का स्थान बनाना चाहिए। यदि देवता का स्थान नीची भूमि पर बनाया जायेगा, तो गृहस्वामी और उसकी सन्तान का उत्तरोत्तर अधःपतन अवश्य ही होगा । " यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि इस ग्रन्थ के कर्त्ता तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी नहीं हैं, अपितु ईसा की सोलहवीं - सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में हुए कोई भट्टारक हैं, जिन्होंने अपने कथन को प्राचीन और प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए ग्रन्थ को उमास्वामी द्वारा रचित बतलाया है । (देखिये, 'श्रावकाचारसंग्रह ' भाग ४ / ' ग्रन्थ और ग्रन्थकार का परिचय'- पं० हीरालाल जी जैन शास्त्री / पृ. ३८-४१) । इस ग्रन्थ के रचयिता भट्टारक महोदय के कथन को हम तब तक प्रामाणिक नहीं मान सकते, जब तक वह तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी सदृश किन्हीं प्राचीन आचार्य के वचन से प्रमाणित न हो। वास्तुशास्त्रियों का कथन जिनोपदेश के विरुद्ध जनवरी 2009 जिनभाषित वामभागे शल्यविवर्जिते । कुर्यात्सार्धहस्तोर्ध्व भूमिके ॥ ९८ ॥ कुर्याद् देवतावसरं यदि । सन्तत्यापि समं भवेत् ॥ ९९ ॥ प्रायः सभी जैन- अजैन वास्तुशास्त्री, बतलाते हैं कि गृह का द्वार अमुक दिशा में होना चाहिए, रसोईघर, स्नानगृह, कुआँ - टयूबवेल, सीढ़ियाँ, अध्ययनकक्ष, शयनकक्ष आदि अमुक-अमुक दिशा में होने चाहिए । यदि ये चीजें वास्तुशास्त्रोक्त दिशा से विपरीत दिशा में होती हैं, तो गृहस्वामी की अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय, व्यापार - नौकरी आदि में विफलता या हानि, तथा अन्य अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं। किन्तु वास्तुशास्त्रियों का यह कथन जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। जिनागम क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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