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________________ चार अनुयोग तीर्थादाम्नाय निध्याय युक्त्याऽन्तः प्रणिधाय च । श्रुतं व्यवस्येत् सद्विश्वमनेकान्तात्मकं सुधीः ॥ ७ ॥ (धर्मा., तृ.अ.) बुद्धिशाली मुमुक्षु को गुरु से श्रुत को ग्रहण करके तथा युक्ति से परीक्षण करके और उसे स्वात्मा में निश्चलरूप से आरोपित करके अनेकान्तात्मक अर्थात् द्रव्यपर्याय रूप और उत्पाद व्यय- ध्रौव्यात्मक विश्व का निश्चय करना चाहिए । । I श्रुतज्ञान प्राप्त करने की यह विधि है कि शास्त्र को गुरुमुख से सुना जाये या पढ़ा जाये। गुरु अर्थात् शास्त्रज्ञ जिसने स्वयं गुरुमुख से शास्वाध्ययन किया हो। गुरु की सहायता के बिना स्वयं स्वाध्यायपूर्वक प्राप्त किया श्रुतज्ञान कभी-कभी गलत भी हो जाता है। शास्त्रज्ञान प्राप्त करके युक्ति से उसका परीक्षण भी करना चाहिए कहा भी है कि 'इस लोक में जो युक्तिसम्मत है, वही परमार्थ सत् है क्योंकि सूर्य की किरणों के समान युक्ति का किसी के भी साथ पक्षपात नहीं है, जैसे सब अनेकान्तात्मक है सत् होने से, और जो सत् नहीं है वह अनेकान्तात्मक नहीं है, जैसे आकाश का फूल। इसके बाद उस श्रुत को अपने अन्तस्तल में उतारना चाहिए। गुरुमुख से पढ़कर और युक्ति से परीक्षण करके भी उस पर अन्तस्तल से श्रद्धा न हुई, तो वह ज्ञान कैसे हितकारी हो सकता है। श्रुतज्ञान का बड़ा महत्त्व है। उसे केवलज्ञान के तुल्य कहा है। समन्तभद्र स्वामी ने आप्त मीमांसा में कहा है स्याद्वाद - केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ॥ स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व जीवादि तत्त्वों के प्रकाशक हैं। दोनों के भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष हैं। जो दोनों में से किसी का भी ज्ञान का विषय नहीं है, वह वस्तु ही नहीं है । गणधरों ने भगवान् की दिव्य देशना का विभाजन किया, विषयों की तालिका बनी, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदि आत्मोपयोगी विषयों का विश्लेषण हुआ। वीतराग प्रभु की वाणी को जनोपयोगी बनाने में अनुपम मेघावी, निर्ग्रन्थ गणधरों का प्रमुख हाथ था। पूजा में भी आया Jain Education International ब्र. कु. प्रभा पाटनी ( संघस्थ ) - गणधर गूँथे बारह सु अंग' अर्थात् भगवान् की दिव्यवाणी को गुम्फित करने का श्रेय गणधरों को ही था। वाणी द्वादशांग रूप में सीमित हुई, गूँथी गयी और कालक्रम से आचार्य परम्परा में आयी। वर्तमान में जितना भी शास्त्र साहित्य उपलब्ध है, उसमें राग-द्वेष मोह से रहित, कषायों से रहित वीतरागता का वर्णन है, अनादिकालीन मिथ्यात्व को दूर करनेवाली बन्धन से मुक्त करनेवाली उपदेशात्मक वाणी का वर्णन है। । समस्त प्राणियों की प्रवृत्ति एवं जिज्ञासा अलगअलग है किन्हीं प्राणियों को तो संक्षिप्त शैली में समझ आता है, किन्हीं प्राणियों को विस्तार से वर्णन करने पर समझ में आता है । अतः पंचेन्द्रियों में आलिप्त सांसारिक प्राणियों को आत्मोन्मुख किया जाय, यह समस्या पूर्वाचार्यों व सभी धर्माचार्यों के समक्ष रही है उचित समाधान भी समयानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को जानकर किया गया। 1 कथन-प्रणालियाँ जैनसाहित्य में अनुयोगरूप में पायी जाती हैं। श्रुत की वन्दना करते समय 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' यह वाक्य पाया जाता है। इससे इनके क्रम का भी पता चलता है। का तीर्थ और आम्नायपूर्वक श्रुत का अभ्यास करने उपदेश देते हुए कहा गया हैश्रुतकेवलबोधश्च विश्वबोधात् समं द्वयम् । स्यात्परोक्षं श्रुतज्ञानं प्रत्यक्षं केवलं स्फुटम् ॥ परमागमरूपी समुद्र से प्राप्त करके भगवज्जिनसेनाचार्य आदि सत्पुरुषरूपी मेघों के द्वारा बरसाये गये प्रथमानुयोग आदि रूप जल को भव्यरूपी चातक बार-बार प्रीतिपूर्वक पान करें। मेघों के द्वारा समुद्र से ग्रहीत जल बरसने पर ही चातक अपनी चिरप्यास को बुझाता है। यहाँ भव्य जीवों को उसी चातक की उपमा दी है, क्योंकि चातक की तरह भव्य जीवों को भी चिरकाल से उपदेशरूप जल नहीं मिला है। परमागम को समुद्र की उपमा दी है और परमागम से उद्धृत प्रथमानुयोग, करुणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों को जल की उपमा दी है, क्योंकि जल से तृषा दूर होती है। उन शास्त्रों की रचना करनेवाले भगवज्जिनसेनाचार्य आदि जनवरी 2009 जिनभाषित 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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