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________________ हैं, उन्हें गृहचैत्यालय नहीं बनाना चाहिये। जो विस्तृत क्षेत्र में गृहनिर्माण कराना चाहते हैं, वे शिल्प शास्त्रानुसार पूर्व या उत्तर दिशा में विपुल स्थान छोड़कर दक्षिण पश्चिम में गृहनिर्माण करके ईशान कोण में गृहचैत्यालय बनावें । 'ऐशान्यां देवसद्गृहम् ।' उमास्वामी श्रावकाचार में गृहचैत्यालय की दिशा भी ईशान कही है। गृहचैत्यालय शिल्पशास्त्रानुसार ही बनाना चाहिये। इसके बिना उसके विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। शास्त्रमार्ग परित्यज्य आत्मबुद्धिर्यदा भवेत् । तत्फलं सर्वतो नास्ति प्रासादमठमंदिरम् ॥ १५३ ॥ शिल्परत्नाकर / पंचमरत्न अर्थात् जो शास्त्र की मर्यादा और विधि को छोड़कर अपनी बुद्धि का उपयोग कर देवालय, मठ, आश्रम या घर आदि बनवाता है, उसके उस निर्माण का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। प्रासादो मण्डपश्चैव विना शास्त्रेण यः कृतः । विपरीतं विभागेषु योऽन्यथा विनिवेशयेत् ॥ विपरीतं फलं तस्य अरिष्टं तु प्रजायते । आयुर्नाशो मनस्तापः पुत्रनाशः कुलक्षयः ॥ वत्थुविज्जा / पृ. १७० अर्थात् शास्त्रप्रमाण के बिना, यदि देवालय, मण्डप (वेदी), गृह और तलभाग आदि का विभाग विपरीत स्वभाव से कर लिया जायेगा, तो उस देवालय आदि से विपरीत फल ही मिलेगा। अर्थात् अरिष्ट उत्पन्न होगा, आयु का नाश होगा, मनस्ताप बना रहेगा, पुत्रनाश होगा और कुलक्षय होगा । वर्तमान समय में नगर के बाह्य भागों में जो कॉलोनी बनती हैं, वे प्रायः दिग्मूढ़ होती हैं । जब गृह ही दिग्मूढ़ बना हो, तब गृह चैत्यालय पूर्व या उत्तरमुखी कैसे बनाया जा सकता है? ऐसे गृह सुख-शांति नहीं दे सकते हैं। यदि दिग्मूढ़ गृहों में गृह चैत्यालय बनाना पड़े, तो अष्टकोणी कक्ष बनाकर उसमें पूर्व या उत्तरमुखी भगवान् विराजमान करके गृह चैत्यालय बनाना चाहिये । दिग्मूढ़ दिशा में मुख करके कभी भी भगवान् विराजमान नहीं करना चाहिये। ३. गृहचैत्यालय का विस्तार गिहदेवालयं कीरइ दारुमयविमाणपुप्फयं नाम । उववीढ पीठ फरिसं जं हुत्त चउरसं तस्सुवरिं ॥ ६३ ॥ वास्तुसार Jain Education International अर्थात् गृहचैत्यालय में पुष्पकविमान-आकार सदृश लकड़ी का गृहचैत्यालय बनाना चाहिये । उपपीठ, पीठ और उसके ऊपर समचौरस फरस आदि बनाना चाहिये । चउ थभं चउ द्वारं चउ तोरण चड दिसेहिं छज्जउडं । पंचकण वीर सिहरं एग दुति वारेग सिहरं वा ॥ ६४ ॥ वास्तुसार अर्थात् चारों कोणों पर चार स्तम्भ, चारों दिशाओं में चार द्वार, चार तोरण, चारों ओर छज्जा और कनेर के पुष्प जैसा पाँच शिखर (एक मध्य में गुम्बज, उसके चारों कोणों पर एक एक गुमटी) करना चाहिये। एक द्वार, दो द्वार अथवा तीन द्वारवाला और एक शिखरवाला भी बना सकते हैं I समचउरंसं गब्भे तत्तो असवाउ उदयसु ॥ ६५ ॥ वास्तुसार गर्भगृह समचौरस और गर्भगृह के विस्तार से सवाई ऊँचाईवाला होना चाहिये । आलयमज्झे पडिमा छज्जय मज्झम्मि जलवट्टं ॥ ६७ ॥ वास्तुसार गृह मंदिर के मध्य में प्रतिमा रखें और छज्जा बाहर निकलता हुआ जल निकलने का द्वार बनावें । न कदापि ध्वजादण्डो स्थाप्यो वै गृहमंदिरे। कलशामलशारौ च शुभदौ परिकीर्तितौ ॥ २०८ ॥ शिल्परत्नाकर १२ अर्थात् गृह चैत्यालय पर ध्वज चढ़ाना शुभ नहीं है, अत्यन्त हानिकारक है । मात्र कलश चढ़ाना शुभ है। शिखरसहित देवालय घर में स्थापित करना और पूजना योग्य नहीं, यदि तीर्थयात्रा में साथ ले जाया जाय, तो दोष नहीं है। (शिल्परत्नाकर - श्लोक-२०९) ४. गृहचैत्यालय में प्रतिमा का स्वरूप - भित्तिसंलग्नबिम्बश्च पुरुषः सर्वथाऽशुभाः । चित्रमयाश्च नागाद्या भित्तौ चैव शुभावहाः ॥ २०४ ॥ शिल्परत्नाकर अर्थात् गृहचैत्यालय में दीवार से स्पर्शित मूर्ति स्थापित करना सर्वथा अशुभ है। यदि चित्र दीवार पर बने हों तो शुभ है। प्रतिमाकाष्ठलेपाश्म दन्तचित्रायसा गृहे । मानाधिका परिवारसहिता नैव पूज्यते ॥ १९ ॥ शिल्परत्नाकर अर्थात् काष्ठ, पाषाण, लेप, हाथीदाँत, लोहा और For Private & Personal Use Only जनवरी 2009 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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