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________________ है, भले ही अज्ञानतावश गलत तरीके से बनवा लेता है। किन्तु जो केवली, श्रुत, संघ और धर्म का अवर्णवाद (निन्दा) करते हैं, उनकी तो केवली आदि में श्रद्धा ही नहीं होती, अपितु घृणा होती है। उनके लिए भी तत्त्वार्थसूत्र में केवल दर्शनमोह का आस्रवबन्ध प्रमुखता से बतलाया गया है (तत्त्वार्थसूत्र/६/१३), अकालमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि रूप फल नहीं बतलाया। तब वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृहचैत्यालय बनवानेवाले को कैसे बतलाया जा सकता है? वह जो श्रद्धापूर्वक जिनदेव की पूजा करता है, उससे उसके पाप भी तो कटते हैं और पुण्यबन्ध होता है। वास्तुशास्त्रानुकूल गृह में कर्मोदयजनित दुःख के निवारण की शक्ति नहीं जिनागम में जिनभक्ति, जिन-दर्शन-पूजन, दयाभाव आदि में तो कर्मोदयजनित दुःख के निवारण की शक्ति बतलायी गयी है, किन्तु वास्तुशास्त्रानुकूल-गृहवास में नहीं बतलायी गयी। इस प्रकार के गृह में रहने पर भी कर्मजनित दु:खों को भोगना ही पड़ेगा। हिन्दू-वास्तुशास्त्र का भी यही कथन है। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ भवनभास्कर में इसके लेखक श्री राजेन्द्रकुमार धवन लिखते हैं-"वास्तुविद्या के अनुसार मकान बनाने से कुवास्तुजनित कष्ट तो दूर हो जाते हैं, पर प्रारब्धजनित (कर्मोदयजनित) कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं। जैसे औषध लेने से कुपथ्यजनित रोग तो मिट जाता है, पर प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटता। वह तो प्रारब्ध का भोग पूरा होने पर ही मिटता है।" (प्राक्कथन/प्र.७)। जिनागम के अनुसार तो सभी कष्ट स्व-कर्मोदयजनित ही होते हैं, कुवास्तु आदि परद्रव्यजनित कोई भी कष्ट नहीं होता। वास्तुशास्त्रविषयक ग्रन्थों में भी मतभेद उक्त ग्रन्थ में श्री राजकुमार धवन यह भी लिखते हैं कि "इस विद्या (वास्तुविद्या) के अधिकांश ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं और जो मिलते हैं, उनमें भी परस्पर मतभेद है।" (प्राक्कथन/पृ.७)। यह मतभेद सिद्ध करता है कि वास्तुशास्त्र विज्ञान नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक नियमों में मतभेद की गुंजाइश नहीं होती। वास्तुदेव की कल्पना जहाँ सुख दुःख को स्वकीय-कर्मजनित नहीं माना जाता, वहाँ ईश्वर या देवी-देवता द्वारा जनित मानना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जड़ वस्तु में ऐसी विवेक-बुद्धि, ऐसी न्यायशक्ति और दण्डपुरस्कारशक्ति नहीं हो सकती, जो दण्ड के पात्र को दण्डित कर सके और पुरस्कार के पात्र को पुरस्कृत, किसी को अपमृत्यु का दण्ड निर्धारित करे, किसी को कुलक्षय का, किसी को धनक्षय का और किसी को सन्तति और धनधान्य आदि का पुरस्कार नियत कर सके। इसलिए हिन्दू-वास्तुशास्त्र में एक वास्तुपुरुष की कल्पना की गयी है (देखिये, भवनभास्कर / अध्याय १ / पृ.९) और प्रतिष्ठापाठ के कर्ता पं० आशाधर जी तथा प्रतिष्ठातिलक के रचयिता पं० नेमिचन्द्र आदि जैन-वास्तुशास्त्रियों ने वास्तुदेव की कल्पना की है। यही वास्तुपुरुष या वास्तुदेव वास्तुशास्त्र के प्रतिकूल और अनुकूल निर्मित गृहों में रहनेवालों को दण्डित और पुरस्कृत करता है। जीवों को सुख-दुःख देनेवाले ऐसे वास्तुदेव या ईश्वर की सत्ता जिनागम स्वीकार नहीं करता। अतः इस दृष्टि से वास्तुशास्त्र जिनागम के अनुकूल नहीं है और किसी कल्पित देवता के द्वार नियंत्रित होने से विज्ञान भी नहीं है। दिगम्बरजैनमत में वास्तुदेव की कल्पना जिन ग्रन्थों में की गयी है, उनके उद्धरण पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ने अपने लेख वास्तुदेव (जैन निबन्ध रत्नावली, भाग २/प्र.५२३-५२७) में दिये हैं। सन्दर्भ के लिए उसे भी 'जिनभाषित' के प्रस्तुत अंक में उद्धृत किया जा रहा है। जैन वास्तुशास्त्रियों से अनुरोध है कि वे वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल निर्मित गृहों में निवास के जो सुपरिणाम और दुष्परिणाम बतलाते हैं, उनकी जैनकर्मसिद्धान्त से आगमप्रमाणों के द्वारा (भट्टारकीय और अजैन ग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा नहीं) संगति बैठाने की कृपा करें। रतनचन्द्र जैन - जनवरी 2009 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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