SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. गोम्मटसार- कर्मकाण्ड के निम्नलिखित गाथांश में उन द्रव्यों का वर्णन किया गया है, जो साताअसातावेदनीय कर्मों के उदय में निमित्त (नोकर्म) होते हैं सादेदरणोकम्मं इाणिगुण्णपाणादि ॥ ७३ ॥ अनुवाद - " सातावेदनीय के उदय के नोकर्म ( निमित्तभूत द्रव्य) इष्ट ( रुचिकर) भोजन - पान आदि तथा असातावेदनीय के उदय के नोकर्म अनिष्ट ( अरुचिकर) भोजन - पान आदि हैं।" I इस गाथांश के अनुसार जिनागम में उन्हीं द्रव्यों को जीव के साता असाता कर्मों के उदय का निमित्त बतलाया गया है, जिनमें इन्द्रियों से सम्पर्क होते ही, या जिनका मन में विचार आते ही, जीव को सुख या दुःख की अनुभूति कराने की योग्यता होती है जैसे रसनेन्द्रिय का मिष्टान्न से संसर्ग होने पर सुख का और नीम के पत्तों की चटनी से संसर्ग होने पर दुःख का अनुभव होता है, अथवा जैसे ग्रीष्म में शरीर से शीतल पवन का स्पर्श होने पर सुख का वेदन होता है और उष्ण पवन का स्पर्श होने पर दुःख की अनुभूति होती है। इसी प्रकार शत्रु का सम्पर्क होने पर द्वेष का उदय होता है, इस कारण वह दु:ख के सवेदन का निमित्त बनता है तथा मित्र का सान्निध्य मिलने पर राग का उदय होता है, इस कारण वह सुखसंवेदन में निमित्त बनता है तथैव किसी प्रिय व्यक्ति, वस्तु या घटना का चिन्तन स्मरण होता है, तब वह सुख की अनुभूति में निमित्त होती है और कोई अप्रिय व्यक्ति, वस्तु या घटना चिन्तन - स्मरण का विषय बनती है, तो वह दुःख की अनुभूति में निमित्त होती है अतः ऐसे द्रव्य ही साता असाता कर्मों के उदय में निमित्त होते हैं, अन्य नहीं । सौन्दर्य और असौन्दर्य भी जीव के लिए इष्ट-अनिष्ट होने से सुख-दुःखानुभूति में निमित्त होते हैं। अतः कोई भवन यदि सुन्दर है, तो भले ही वह वास्तु शास्त्र के अनुसार न बना हो, अर्थात् उसके रसोईघर आदि विभिन्न स्थान वास्तुशास्त्रानुकूल दिशा में न हों, तो भी वह सौन्दर्यप्रेमी दर्शक के सातावेदनीय के उदय में निमित्त बनेगा। इसके विपरीत भले ही कोई भवन वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्मित हो, किन्तु सुन्दर (दृष्टिप्रिय) न हो, तो वह वास्तुशास्त्रप्रेमी को छोड़कर सामान्य दर्शक के सातावेदनीय के उदय का निमित्त नहीं बन सकता। आगरे का ताजमहल और मुंबई का ताजहोटल जैसे वास्तु इसके दृष्टान्त हैं । तात्पर्य यह कि किसी गृह के द्वार, रसोईघर, स्नानघर, कुआँ आदि का वास्तुशास्त्रानुकूल दिशा में होना और न होना मात्र, सामान्य दर्शक की दृष्टि को प्रिय अप्रिय नहीं लग सकता, अतः उसका सामान्य दर्शक के साताअसातावेदनीय के उदय में निमित्त बनना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्रप्रेमी का उपयोग भी वास्तुशास्त्रानुकूल गृह की शास्त्रानुकूलता के दर्शन, चिन्तन और अनुभवन में सदा नहीं लगा रह सकता, अतः वह उसके भी सातावेदनीय के नित्य उदय का निमित्त नहीं हो सकता। यह गोम्मटसार- कर्मकाण्ड की उपर्युक्त गाथा से सिद्ध होता है । अपरंच, भले ही किसी गृह का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर दिशा में न हो, किन्तु खिड़कियाँ पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण आदि दिशाओं में हों, तो उस घर में हवा और प्रकाश के संचार में कोई बाधा नहीं आ सकती, जिससे उस घर के लोग स्वस्थ रह सकते हैं। इस कारण भी वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह असातावेदनीय के उदय का कारण नहीं बन सकता । . २. फिर भी यदि माना जाय कि वास्तुशास्त्र - प्रतिकूल निर्मित गृह अपने निवासियों के असातावेदनीय के उदय में निमित्त बनता है, तो इससे अनेक आगमविरुद्ध सिद्धान्तों का प्रसंग आता है। वास्तुशास्त्रियों ने वास्तुशास्त्र को विज्ञान माना है। भौतिकविज्ञान की यह विशेषता है कि उसके नियमों का कभी उल्लंघन नहीं होता। उससे सदा निरपवादरूप से समान परिणाम की उपलब्धि होती है अतः यदि वास्तुशास्त्रप्रतिकूल गृह में वास असातावेदनीय कर्म के उदय में निमित्त होता है, तो इससे यह सिद्ध होता है कि जो भुनष्य उसमें जन्म से मृत्यु तक निवास करेगा, उसका असातावेदनीय कर्म जन्म से मृत्यु पर्यन्त उदय में आता रहेगा, सातावेदनीय के उदय का अवसर नहीं आयेगा, वह असाता के रूप में संक्रमित होकर उदय में आयेगा। इससे वह मनुष्य पूर्वकृत पुण्यों का फल भोगने से वंचित रह जायेगा और असातावेदनीय के जनवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy