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________________ रूप से चली आ रही है, बाधाएँ अनेक आई, पर वे खत्म नहीं कर सकी, हम तब भी चट्टान की तरह खड़े रहे। प्रत्येक समाज में काल के अनुसार, काल के प्रभाव से दोष उत्पन्न हो जाते हैं, वे दूर भी होते हैं। चौबीस तीर्थंकरों के काल के बीच में छः बार मुनि नहीं रहे, छः बार मुनिपरम्परा क्षीण हुई, केवल गृहस्थ ही रहे, तो समाज में भी शिथिलताएँ आ गईं, कुछ दोष उत्पन्न हो गए। श्रावक व साधु धर्म-रथ के दो पहिये हैं, दोनों की गति एक-दूसरे पर आधारित है। जब तक ये एक दूसरे पर अवलम्बित हैं, तब तक धर्म की स्थिति मजबूत है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज कहते थे, आहार के समय श्रावक का हाथ ऊँचा रहता है और साधु का हाथ नीचा । आहार समाप्त होने के बाद गृहस्थ प्रणाम करते हैं, तब गृहस्थ का हाथ नीचे व आशीर्वाद देने के लिए साधु का हाथ ऊँचा हो जाता है, इस प्रकार कभी श्रावक का, तो कभी साधु का हाथ ऊँचा रहता है, दोनों एक दूसरे से बँधे हुए हैं। इसके लिए कहासाधु सदाचारी गृहस्थ से ही आहार ले और गृहस्थ भी साधु देखकर आहार दें। दोनों की क्रिया पर एक दूसरे का अंकुश है। यदि ऐसा नहीं होगा तो अंकुश समाप्त हो जाने से सामाजिक व्यवस्था खत्म हो जाएगी। साधु सद्गृहस्थ से आहार न ले, कहीं भी होटल बाजार में खा ले, तो वह अपने मार्ग से भटक जाएगा, स्वैराचारी हो जाएगा। चित्रं जैनी तपस्या हि, स्वैराचारविराधिनी । इसी परम्परा के कारण आज कलियुग में साधु स्वैराचारी नहीं हैं, वह श्रावक के घर जाकर ही आहार लेते हैं और इसलिए श्रावक भी उनको आहार देने के लिए तत्पर रहते हैं। दोनों आहार और ज्ञान का आदानप्रदान करते हैं। जिस घर में कोई अभक्ष्य पदार्थ पड़ा हो, साधु वहाँ आहार नहीं लेगा, इस विचार से गृहस्थ सावधान रहता है और कई बुराइयों से बच जाता है। इसी प्रकार साधु की आहर सम्बन्धी कोई गलत क्रिया श्रावक देखते हैं, तो श्रावक उसे बतावें कि आपकी चर्या में यह नहीं होना चाहिए। इस प्रकार एक दूसरे पर अंकुश की परिपाटी चली आ रही है। न्याय से धनोपार्जन करना श्रावक का कर्त्तव्य है । Jain Education International 'अन्याय करो या झूठ बोलो' कोई धर्म ऐसा नहीं कहता । 'सत्य बोलो' सब यही कहते हैं। यह बात पृथक् है कि हर व्यक्ति का सत्य पृथक् होता है। सर्वथा सत्य कोई नहीं बोलता, उसमें असत्य का अंश होता है और इसी प्रकार सर्वथा असत्य भी कोई नहीं बोलता, उसमें भी सत्य का अंश अवश्य होता है। कोई सर्वथा सत्य व सर्वथा झूठ नहीं बोलता पूर्ण सत्य तो कभी बोला ही नहीं जा सकता, शब्दों में इतनी क्षमता इतनी ताकत ही नहीं है, शब्द पूर्ण सत्य बोलने में असमर्थ हैं। जो भी मुँह से बोला जाएगा वह द्वितीय श्रेणी का असत्य होगा । पूर्ण सत्य तो आत्मानुभव आत्म-साक्षात्कार विषय है। इसीलिए "सत्यं शिवं सुन्दरं" का क्रम रखा जो सत्य है, वही शिव है अर्थात् कल्याणकर और सुन्दर है, वही मोक्ष का कारण है। श्रावक, यह एक सामान्य शब्द है, नाम है। पं० आशाधरसूरि ने सागारधर्मामृत में कहा नामतः स्थापनातोऽपि जैन: पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः ॥ ५४ ॥ समाज में कुछ लोग नामधारी होते हैं अर्थात् कुछ लोग नामधारी जैन हैं, जो न कभी मंदिर जाते हैं, न कभी किसी सामाजिक समारोह आयोजन में, वे तो बस जैनपरिवारों में जन्म होने से जैन हैं । 2 'प्रतिष्ठातिलक' में तीर्थंकर, श्रमण श्रावक सभी के नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव के आधार पर चार प्रकार से विभाग किये गये हैं। नाम श्रावक वे हैं, जो जैनकुल में जन्में हैं, जिनका आचरण श्रावक के अनुकूल नहीं है। किसी मूर्ति - चित्र आदि में श्रावक की स्थापना करना स्थापना श्रावक है, जैसे किसी श्रावक का चित्र । द्रव्य श्रावक वह है, जो श्रावक की परिपाटी व परम्परा निभाता है, परन्तु उसमें श्रद्धा नहीं होती है जैसे मंदिर जाना, चावल चढ़ाना आदि क्रिया करे, किन्तु तत्त्वों पर श्रद्धा न हो भाव भावक वह है जिसे धर्म पर दृढ़ आस्था होती है, श्रद्धा होती है, जो आचरण में, आचारविचार में सतर्क रहता है, रागी देवी-देवताओं को नहीं पूजता । जैसे भारत का संविधान है, वैसे ही हमारा भी संविधान है। इन्द्रनन्दि श्रावकाचार में लिखा हैसगुणो निर्गुणो वापि श्रावको मन्यते सदा । जनवरी 2009 जिनभाषित 15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524335
Book TitleJinabhashita 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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