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प्रश्नकर्त्ता श्रीमती पुष्पा बैनाड़ा आगरा। जिज्ञासा - मुनिराज खड़े होकर ही भोजन क्यों करते हैं, तथा भोजन करते समय पैरों की स्थिति कैसी रहनी चाहिए, बतायें ?
समाधान- दिगम्बर साधु के आहार के सम्बन्ध में श्री मूलाचार ग्रन्थराज में इसप्रकार कहा हैअंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ विवज्जणेण समपायं पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदि भोयर्ण णाम ॥ ३४ ॥
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अर्थ- दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथों की अंजली बनाकर भोजन करना स्थिति - भोजन नाम का व्रत है।
जिज्ञासा समाधान
इसकी आचारवृत्ति में कहा है कि दीवाल का भाग या खंभे आदि का सहारा न लेकर पैरों में चार अंगुल प्रमाण का अन्तर रखकर खड़े होकर अपने कर पात्र में आहार लेना स्थितिभोजन है।
प्रश्न- किसलिए स्थिति भोजन का अनुष्ठान किया जाता है ?
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उत्तर - यह दोष नहीं है, क्योंकि जब तक मेरे हाथ-पैर चलते हैं, तब तक ही आहार ग्रहण करना योग्य है, अन्यथा नहीं, ऐसा सूचित करने के लिए मुनि खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं बैठकर दोनों हाथों से या वर्तन में लेकर या अन्य के हाथ से मैं भोजन नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा के लिए भी, खड़े होकर आहार करते हैं। दूसरी बात यह भी है कि अपना पाणिपात्र शुद्ध रहता है तथा अन्तराय होने पर बहुत सा भोजन छोड़ना नहीं पड़ता है, अन्यथा थाली में खाते समय अन्तराय हो जाने पर भोजन से भरी हुई पूरी थाली को छोड़ना पड़ेगा, इससे दोष लगेगा तथा इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम का परिपालन करने के लिए भी स्थितिभोजन मूलगुण कहा गया है।
यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में इस प्रकार
कहा है
न स्वर्गाय स्थितेर्भुक्तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः । किं तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥ १३३ ॥ पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुज्जेहाम्याहारमन्यथा ॥। १३४ ।।
28 जनवरी 2009 जिनभाषित
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पं० रतनलाल बैनाड़ा
अर्थ- बैठकर भोजन करने से स्वर्ग नहीं मिलता और न खड़े होकर भोजन करने पर नरक में जाना पड़ता है किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए ही खड़े होकर भोजन करते हैं। मुनि भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि 'जब तक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरे खड़े होकर भोजन करने की शक्ति है, तब तक मैं भोजन करूँगा, अन्यथा आहार को छोड़ दूँगा । इसी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं' ॥ १३३-१३४ ॥
श्री श्रावकाचार सारोद्धार ग्रन्थ में भी इस प्रकार कहा है- 'ज्ञान नेत्रवाले संयमीजनों की यह प्रतिज्ञा होती है कि जब तक मेरे दोनों हाथ परस्पर मिले हुए रहें और जब तक खड़े होकर भोजन करने की सामर्थ्य है, तब तक ही मैं भोजन की क्रिया करूँगा, अन्यथा सामर्थ्य के अभाव में परलोक की सिद्धि के लिए मैं भोजन की क्रिया को छोड़ दूंगा ॥ ३१२-३१३ ॥
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विशेष वर्तमान में कुछ दिगम्बर साधु, दोनों पैरों के बीच चार अंगुल से अधिक अन्तर रखकर आहार करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार आहार करना उपर्युक्त श्री मूलाचार के कथनानुसार उचित नहीं है ।
प्रश्नकर्त्ता - श्रीमती चमेलीदेवी, सागर ।
जिज्ञासा- मैं अपने पुत्र के साथ रहती हूँ। मैंने पूज्य आचार्यश्री से पाँच प्रतिमा ले रखी हैं। मेरे पुत्र का ट्रांसफर ऐसे स्थान पर हो गया है, जहाँ न तो मंदिर है और न कुँआ । अब मुझे क्या करना चाहिए?
समाधान- आपने पूज्य आचार्यश्री से जो प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए हैं, उनका उसी रूप में पालन करना आपका कर्त्तव्य हो जाता है। श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
व्रतभङ्गोऽथवा यत्र देशे न जिनशासनम् ॥ क्वचित्तत्र न गन्तव्यं तदपीदं व्रतं भवेत् ॥ ३८ ॥ यत्र देशे जिनावासः सदाचारा उपासकाः । भूरिवारीन्धनं तत्र स्थातव्यं व्रतधारिणा ॥ ४० ॥ अर्थ- जहाँ अपना व्रतभङ्ग होता हो तथा जिस देश में जिनधर्म न हो, उस देश में कभी नहीं जाना चाहिए। इसे भी देशावकाशिक शिक्षाव्रत कहते हैं ॥ ३८ ॥ जिस देश में जिनालय हो, उत्तम आचरण के धारक
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