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अथवा कोई मदमाती स्त्री होनी चाहिए। यथाबलिप्रदानकाले तु योग्या स्याद् बलिधारणे । भूषिता कन्याका वा स्याद् वेश्या वा मत्तकामिनी ॥ १७ ॥ (परिच्छेद २४)
ऐसा कथन नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ में छपे इस प्रकरण के पृष्ठ ४ के श्लोक ११ से भी प्रतिभासित होता है। जिन शास्त्रों में साफ तौर पर अन्यमत के माने हुए देवों की आराधना का कथन किया है और उनकी आराधनाविधि में ऐसी वाहियात बातें वेश्या आदि की लिखी हैं, उन शास्त्रों को हम केवल यह देखकर जिनवाणी मानते रहें कि वे संस्कृत, प्राकृत में लिखे हैं और किन्हीं जैन नामधारी बड़े विद्वान् के रचे हुये हैं, जब तक हमारे में यह आगममूढ़ता बनी रहेगी, तब तक हम जैनधर्म का उज्ज्वल रूप नहीं पा सकेंगे। इन मिथ्या देवों का ऐसा कुछ जाल छाया हुआ है कि पण्डित लोग भी इनके दुर्मोह से ग्रसित हैं। शुद्धाम्नायी पं० शिवजीरामजी राँची वालों का लिखा एक प्रतिष्ठाग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, जिसमें इन सभी वास्तुदेवों की उपासना का वर्णन किया है। बलिहारी है उनके शुद्धाम्नाय की ।
वास्तुदेवों के जो नाम जैन ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं, उनकी अन्यमत के नामों से कहीं २ भिन्नता भी है। जैसे अन्य मत के नाम अर्यमा, सवितृ सावित्र, शेष, दिति विदारि । इनके स्थान में जैनमत के नाम क्रम से ये हैं- आर्य, सविंद्र, साविंद्र, शोष, उदिति और विचारि । इन नामों में थोड़ा सा ही अक्षरभेद है । यह भेद लिखने
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पढ़ने की गलती से भी हो सकता है। कुछ नामभेद शायद इस कारण से भी किये हों कि उनमें स्पष्टतः अजैनत्व झलकता है जैसे अर्यमा का आर्य, शेष का शोष, दिति का उदिति बनाया गया है। क्योंकि अन्यमत में अर्यमा का अर्थ पितरों का राजा, शेष का अर्थ शेषनाग, दिति का अर्थ दैत्यों की माता होता है । सविंद्र और साविंद्र शब्दों का कुछ अर्थ समझ नहीं पड़ता है, जरूर ये शुद्ध शब्द सवितृ और सावित्र का बिगड़ा रूप हैं। इसी तरह शुद्ध शब्द विदारि का गलती से विचारि लिखा-पढ़ा गया है।
वास्तुदेवों के नामों में रुद्र, जयंत ( यह नाम इन्द्र के पुत्र का है) और अदिति ( यह देवों की माता का नाम है), ये नाम दोनों ही मतों के नामों में हैं। परन्तु मूल में ये नाम साफ तौर पर ब्राह्मणमत के मालूम देते हैं। जैन मान्यता के अनुसार इन्द्र का पुत्र और देवों की माता का कथन बनता नहीं है। जैनमत में देवों के माता-पिता होते ही नहीं हैं, न रुद्र ही कोई उपास्य देव माना गया है।
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भगवान् महावीर ने ब्राह्मणमत की फैली हुईं जिन मिथ्या रूढ़ियों का जबरदस्त भंडाफोड़ किया था, खेद है उनके शासन में ही आगे चलकर वे रूढ़ियाँ प्रवेश कर गई हैं।
संतवाणी से मनुष्य का उद्धार
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श्रावकों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चरित्र को जिस पिटारे में रखा जाता है, वह रत्नकरण्डश्रावकाचार कहलाता है आचायों की वाणी का पाठ करने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है। ध्वजा, मंदिर, संत व साधु सभी मंगलसूचक होते हैं। भारत में बायें हाथ की ओर चलने के पीछे भी प्रयोजन है। बायें हाथ की तरफ चलने से सामने से आनेवाला व्यक्ति दायें हाथ की ओर से आएगा, तो मंगलसूचक है तथा सामनेवाले के लिए भी आप मंगलसूचक हो जाएँगे। इसलिए मंदिर की परिक्रमा करते समय भगवान् को भी दाहिनी ओर रखा जाता है।
'जैन निबन्ध रत्नावली' (भाग २) से साभार
मनुष्य सांसारिक वृत्तियों में उलझा रहता है। इसके कारण ही उसका कल्याण नहीं हो पाता है। पापक्रिया से निवृत्त होने पर ही सम्यग्दर्शन होता है। समाज में सब को अपनी ही पड़ी है, स्वार्थ के कारण ही मनुष्य मेलमिलाप करता है वह तो पशुओं से भी बदतर हो गया है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं सच्चे गुरु की शरण में जाने से ही मनुष्य का उद्धार हो सकता है।
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संकलन : सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस, मदनगंज किशनगढ़
जनवरी 2009 जिनभाषित 9
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