Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ आचार्यों को मेघ की उपमा दी है, क्योंकि मेघों की । उस करणानुयोग को हृदय में धारण करना चाहिए। तरह वे भी विश्व का उपकार करते हैं। करणानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों में चार गति आदि प्रथमानुयोग का वर्णन होता है। नरकादि गति नामकर्म के उदय से पुराणं चरितं चार्थाख्यानं बोधिसमाधिदम्। होनेवाली जीव की पर्याय को गति कहते हैं। उत्सर्पिणीतत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम्॥ ७॥ अवसर्पिणी कालों के परिवर्तन को युगावर्त कहते हैं। हेय और उपादेय रूप तत्त्व के प्रकाश का इच्छुक | जिसमें जीव आदि छहों पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक भव्यजीव बोधि और समाधि को देनेवाले तथा परमार्थ कहते हैं। अर्थात् तीन सौ तैंतालीस राजु प्रमाण आकाश सत् वस्तुस्वरूप का कथन करनेवाले पुराण और चरितरूप | का प्रदेश लोक है। उसके चारों ओर अनन्तानन्त प्रमाण प्रथमानुयोग को अन्य तीन अनुयोगों से भी अधिक प्रकाश | केवल आकाश अलोक है। इन सबका वर्णन करणानुयोग में लायें अर्थात् उनका विशेष अध्ययन करें। | में होता है। लोकानुयोग, लोक-विभाग, पंचसंग्रह आदि तिरेसठ शलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, | ग्रन्थ उसी अनुयोग के अर्न्तगत हैं। ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र) की कथा जिस चरणानुयोग शास्त्र में कही गयी हो उसे पुराण कहते हैं। उसमें आठ सकलेतरचारित्र जन्म-रक्षाविवृद्धिकृत्। बातों का वर्णन होता है। कहा है- लोक, देश, नगर, विचारणीयश्चरणानयोगश्चरणादूतैः॥ ११॥ राज्य, तीर्थ, दान तथा अन्तरंग और बाह्य तप से आठ (अ.धर्मा.) बातें पुराण में होती हैं। चारित्रपालन के लिए तत्पर पुरुषों को सकलचारित्र ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है-'जिसमें सर्ग-कारणसृष्टि, | और विकलचारित्र की उत्पत्ति, रक्षा और विशिष्ट वृद्धि प्रतिसर्ग-कार्यसृष्टि, वंश, मन्वन्तर और वंशों के चरित | को करनेवाले चरणानुयोग का चिन्तन करना चाहिए। हिंसा हों उसे पुराण कहते हैं।' पुराण के पाँच लक्षण हैं। जिसमें | आदि के साथ रागद्वेष की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। एक पुरुष की कथा होती है उसे चरित्र कहते हैं। पुराण | उसके दो भेद हैं- सकलचारित्र और विकलचारित्र। इन और चरित विषयक शास्त्र प्रथमानुयोग में आते हैं। प्रथम | चारित्रों को कैसे धारण करना चाहिए, धारण करके कैसे नाम देने से ही इसका अर्थ स्पष्ट है। अन्य अनुयोगों | उन्हें अतिचारों से बचाना चाहिए और फिर कैसे उन्हें में जो सिद्धान्त आचार आदि वर्णित हैं, उन सबके बढ़ाना चाहिए- इन सबके लिए आचारांग, उपासकाध्ययन प्रयोगात्मक रूप से दृष्टान्त प्रथमानयोग में ही मिलते आदि चरणानुयोग सम्बन्धी शास्त्रों को पढना आवश्यक हैं। इसलिए इसके अध्ययन की विशेष रूप से प्रेरणा | है। की है। इसके अध्ययन से हेय क्या है और उपादेय | क्या है, इसका सम्यक् रीति से बोध होता है, साथ | द्रव्यानुयोग ही बोधि और समाधि की भी प्राप्ति होती है। बोधि जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ पुण्यपापे च वेदितुम्। का अर्थ है- अप्राप्त सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति। और द्रव्यानुयोगसमयं समयन्तु महाधियः॥ अ.धर्मा.॥ प्राप्त होने पर उन्हें उनकी चरम सीमा तक पहुँचाना तीक्ष्ण बुद्धिशाली पुरुषों को जीव-अजीव, बन्धसमाधि है अथवा समाधि का अर्थ है धर्म्यध्यान और | मोक्ष और पुण्य-पाप का निश्चय करने के लिए सिद्धान्तशुक्लध्यान। सूत्र, तत्त्वार्थ-सूत्र, पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोग-विषयक करणानुयोग शास्त्रों को सम्यक् रीति से जानना चाहिए। चतुर्गति युगावर्त लोकालोक-विभागवित्। इस प्रकार चारों अनुयोगों में संग्रहीत जिनागम की हृदि प्रणेयः करणानुयोगः करणातिगैः॥ १०॥| उपासना का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिनागम (अ.धर्मा.) पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित होने से अमल है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप चार गतियों, युग | लोक-अलोकवर्ती पदार्थों का कथन करनेवाला होने अर्थात् सुषमा-सुषमा आदि काल के विभागों का परिवर्तन | से विपुल है, सूक्ष्म अर्थ का दर्शक होने से निपुण है, तथा लोक और अलोक का विभाग जिसमें वर्णित है | अर्थतः अवगाढ़-ठोस होने से निकाचित है। सबका 22 जनवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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