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वृद्धावस्था जीवन का फाइनल-एक्जामीनेशन
पं० बसन्त कुमार जैन शास्त्री, शिवाड़
जीवन एक परीक्षा-पत्र (पेपर) होता है। इसे हल | आदि सताते रहते हैं। और यह कुछ भी नहीं कर पाता। करने के लिए तीन घण्टे-बचपन, युवा और वृद्धावस्था बस यहीं से तो फाइनल-एक्जामीनेशन प्रारम्भ हो मिलते हैं। हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन एक | जाता है। सहनशीलता, धैर्य, धर्मध्यान, एकान्तता, चिन्तन, पूरी आयु की अध्ययनशाला है। जिसकी परीक्षा प्रथम मनन, सरलता, शान्ति, संयम आदि इस एक्जामीनेशन टेस्ट, द्वितीय हाफइयरली (माध्यमिक) और तृतीय | के सब्जेक्ट होते हैं इसी को हल करना होता है। इस फाइनल (वृद्धावस्था) रूप में होती है।
अवस्था में परिवार परिजन से अनासक्ति, धन दौलत . प्रथम टेस्ट में आचरण का निर्माण हुआ करता से निवृत्ति अपने आपसे समझौता, आत्मा से परमात्मा है, हाफइयरली एक्जामीनेशन में आचरण का आचरण | बनने की कला, और उस समय की प्रतीक्षा बनी रहती किया जाता है, और फाइनल में आचरण का आस्वादन | है, जब पीरियड समाप्त होनेवाला है। किया जाता है। पूरे जीवन की सफलता और असफलता अब इस फाइनल-एक्जामीनेशन में पास होना है इसी एक्जामीनेशन से मिलती है।
| या फेल, इसी के हाथ में रहता है। यहाँ किसी की वृद्धावस्था से पूर्व के जीवन में परिवार-संचय, नकल भी नहीं चलती। अपना ज्ञान, अपना अनुभव, अपना धन-संचय, वस्तु-संचय, प्रतिष्ठा-संचय, ज्ञान-संचय, आदि | चिन्तन, अपना मनन, अपनी ही सूझबूझ काम में आती में व्यतीत होता है। यह भी मेरा, वह भी मेरा, मैं इसका, | है। और जीवन के इस एक्जामीनेशन में पास होनेवाला मेरे, इसके के राग-द्वेष, मोह, माया, लोभ-प्रलोभन में | जीवन के एक्जामीनेशन-हाल में बैठा सोचता है। रचा-पचा रहता है। इस समय जोश तो रहता है, किन्तु "देख लिया परिवार-परिजन का मोह, देख लिया होश नहीं रहता।
इनका स्वार्थ भरा प्रेम, देख लिया इनका सेवाभाव, खूब अपनी, अपने परिवार, अपने देश, अपने समाज, | पसीना बहाया है, मैंने इनको सम्पन्न बनाने के लिए। अपने सम्प्रदाय, अपने समूह की विजय, सफलता, उन्नति | न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, नीति-अनिति, सदाचारआदि के नारे लगाता है, जुलूस महोत्सव आदि की योजना | कदाचार, भक्ष्य-अभक्ष्य, रात-दिन, भूख-प्यास सबको करता है और यो जोश के खरोश में चलते-चलते फाइनल | भूलकर- रचा-पचा रहा अब तक .... कौन जायेगा इनमें स्टेज (वृद्धावस्था) पर कदम रख देता है।
से मेरे साथ? मेरी इस जर्जर अवस्था में कौन देगा सहारा? जो संरचना इसने यहाँ तक पहुँचने से पूर्व की | सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं, किस को है परवाह थी, आज उसका आस्वादन लेना चाहता है, क्योंकि यहाँ | मेरी? इन सबकी सुध लेते-लेते मैं अपनी ही सुध भूल आते-आते शरीर थक जाता है, जोश ठण्डा हो जाता | गया था। अब तो मुझे अपनी सुध लेनी चाहिए। एकान्त है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और जिनकी संरचना | मिल गया, भीड़ भरे माहौल से छुट्टी मिल गई, खाने की थी अब वे जवान हो जाती हैं, ध्वस्त हो जाती | कमाने की चिन्ता नहीं रही, शान्त मन से सरल परिणाम
| रख कर उन तत्त्वों का अब चिन्तन, मनन कर लेना तब इसकी अवहेलना सी होने लगती है, इसके | चाहिए, जिनकी परिभाषाएँ सीखी थीं। अब तो मुझे किसी पुरुषार्थ को लोग, परिवार, परिजन भूलने लग जाते हैं | पर भी आक्रोश, चिड़चिड़ाहट नहीं करना चाहिए। अरे और इसके कार्यों पर अपनी मोहर लगाने लग जाते हैं। जब यह शरीर ही मेरा साथ छोड़ रहा है, तो शरीर
इस अवस्था में एक अकेला पड़ जाता है, इसकी | से दूर रहनेवाले कैसे साथ दे सकते हैं? सब नदीसारी सेवाएँ धूमिल पड़ने लग जाती हैं। बेटे, बहुएँ, | नाव के संयोग जैसे, सब एक ट्रेन के मुसाफिर जैसे, पोते-पोती सब कन्नी काटने लग जाते हैं- खाने-पीने | सब एक धर्मशाला में रहनेवाले जैसे. सब रात को एक की लालसा तो रहती है, पर खाया-पिया नहीं जाता, | पेड़ पर एकत्रित हो जानेवाले पक्षियों जैसे, सब पूर्वभवी आये दिन वी.पी., कफ, खाँसी, घटनों, कमर का दर्द, | संयोग जैसे हैं, जिनसे विलग होना ही है। तत्त्व-कृतत्त्व,
24 जनवरी 2009 जिनभाषित
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