Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ मत ठुकराओ धर्म सिखाओ गले लगाओ आचार्य विद्यानंद मुनि धर्म में श्रद्धा बनाए रखिए। यदि श्रद्धा से डिग | है। श्रावक, जो रुचिपूर्वक गुरुमुख से श्रवण करे, स्वयं जाएँ, तो फिर क्या बचेगा? वीतराग प्रभु में, श्रद्धा व | वाचना करे, स्वाध्याय करे, अध्ययन करे, प्रथमानुयोग भक्ष्य-अभक्ष्य के विचार पर दृढ़ रहेंगे, तो समाज को | आदि चारों अनुयोगों का अध्ययन करे। बाधा नहीं आएगी। प्रायः कहा जाता है- देश के निर्माण व उन्नति यदि आप समतावादी हैं, धर्मात्मा हैं, तो किसी | के लिए आदर्श नागरिक होने चाहिए। जनपद में रहनेवाले का तिरस्कार मत करो, द्वेष मत करो। तिरस्कार से हमने | सभी नागरिक तो होते हैं, पर उन्हें 'आदर्श' होना चाहिए। बहुत हानि उठाई है। गलत कार्य का प्रायश्चित्त ही उसका | नागरिक के साथ 'आदर्श' और जोड़ा जाता है, यह सार्थक दण्ड है। जाति-बहिष्कार से समाज को ही हानि होती है। सामान्यतः देश के सभी वासी नागरिक हैं, पर आदर्श है। अरे, प्रेम नहीं कर सकते हो, तो द्वेष भी मत करो।। देश के नागरिक ही आदर्श हैं, अथवा जहाँ के नागरिक वह आज नहीं तो कल आपके प्रेमव्यवहार से अवश्य | आदर्श हैं, वह देश भी आदर्श है। जैसे देश की उन्नति, सुधर जाएगा। प्रगति के लिए 'आदर्श' नागरिक की आवश्यकता है, पहले स्वयं आदर्श बनकर दिखाएँ, स्वयं मार्ग पर | वैसे ही समाज की प्रगति, उन्नति के लिए भी आदर्श चलकर दिखाएँ, तो दूसरे उसे स्वयं अपनायेंगे, आपका | लोगों की आवश्यकता तो होती ही है। इसके अतिरिक्त अनुकरण करने लगेंगे। कुछ अन्य आवश्यकताएँ भी होती हैं। भगवान् ऋषभदेव इस धरातल पर उत्पन्न हुए, | कोई समाज एक दिन में नहीं बनता। उसकी परम्परा उन्होंने प्रजापति के रूप में शासन कर यहाँ के नागरिकों | अविच्छिन्न काल से चली आती है, तभी वह समाज को जीवन-यापन की विधि बताई। असि, मसि, कृषि, सुदृढ़ बनता है। जैसे हमारे समाज की परम्परा भगवान वाणिज्य, व्यापार और कला से षड्विध विद्याएँ सिखायीं। ऋषभदेव से चली आ रही है। पहले कल्पवृक्ष का युग जब राज-काज छोड़कर तपस्या की और केवलज्ञान प्राप्त | था। उस युग से निकल कर हम कृषियुग में आये, किया तब, दिव्यध्वनि के माध्यम से गृहस्थों को, श्रावकों | वहाँ से निकलकर आज के विज्ञान व कलयुग में आ को उनके षड्आवश्यक कर्तव्य बताये गये। काल बदलता रहता है, युग बदलता है। समय देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। बदलता है, क्षण-प्रतिक्षण पर इनमें जो अविच्छिन्न चला दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने॥ | आ रहा है वह है 'धर्म'। उस 'धर्म' की परम्परा के दैनिकचर्या के दोष-निवारण हेतु ये छः उपाय | कारण ही हम भगवान् ऋषभदेव से आज तक अविच्छिन्न (कर्तव्य) बताये। उनके समय में श्रमण, श्रमणी, श्रावक, | चले आ रहे हैं। हमारा समाज परम्परागत रूप से चला श्राविका इस चतुर्विध संघ की स्थापना हो चुकी थी, | आ रहा है। देश में अनेक महापुरुष हुए, उन्होंने अनेक जैसे चार दिशाएँ होती हैं, वैसे ही समाज की ये चार | सम्प्रदाय चलाये, उनमें से अधिकांश आज, काल के दिशाएँ हैं। यह चतुर्विध संगठन सामाजिक व्यवस्था व | | गोद में समा गये। उनके ग्रन्थ, उनके अनुयायी आज संगठन-शक्ति के लिए था। श्रमण अर्थात् साधु, श्रमणी | नहीं रहे, केवल उनके नामोल्लेख ही मिलते हैं, जैसे अर्थात् साध्वी, श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ और श्राविका | चार्वाक के ग्रन्थ 'तत्त्वोपलब्धि' का केवल उल्लेख ही अर्थात् सद्गृहस्थ महिला। ये चारों पारिभाषिक धार्मिक | मिलता है, सांख्यमत का 'सांख्यसूत्र' मिलता है, वैशेषिक शब्द हैं। श्रावक शब्द का कोष में अर्थ है 'आस्तिक', का 'वैशेषिकसत्र' मिलता है पर उनके अनुयायी नहीं आस्तिक अर्थात् जिसको आत्मा पर विश्वास है। श्रावक | मिलते। अर्थात् श्रद्धायुक्त, श्रद्धालु आदि। इस शब्द की अनेक | श्रावकों के साथ ऐसा नहीं है। श्रावक संख्या में परिभाषाएँ, अर्थ हैं, पर 'आस्तिक' अर्थ सर्वाधिक प्रमुख | अवश्य घट-बढ़ गये, पर उनकी परम्परा अविच्छिन्न 14 जनवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36