Book Title: Jinabhashita 2009 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ रंग से चित्रित की गयी चित्राम की प्रतिमा और ग्यारह | दीवारस्थित आले में, अलमारी में भी प्रतिमा स्थापित अंगुल से अधिक बड़ी तथा अपने परिवार युक्त प्रतिमा | नहीं करना चाहिये। गृह चैत्यालय में भी माप के अनुसार गृह चैत्यालय में पूजने योग्य नहीं है। यहाँ पाषाणमूर्ति वेदी बनाकर प्रतिमा स्थापित करना चाहिये। अन्यायोका निषेध इसलिये किया है, ताकि असावधानी वश | पार्जित द्रव्य से निर्मित प्रतिमा भी अशुभ होती है। खण्डित न हो जावे। कहा भी हैगृह चैत्यालय में किन तीर्थंकरों की मूर्ति विराजमान अन्यायद्रव्यनिष्पन्ना वास्तुदलोद्भवा मता। न करें, इस सम्बन्ध में दो मत हैं हीनाधिकांगिनी प्रतिमा स्वपरोन्नतिनाशिनी॥१४२॥ १. मल्लिनेमीवीरो गिहभवणे सावए ण पूइज्जइ। (शिल्पस्मृतिवास्तुविद्यायाम् उत्तरार्ध) इगवी संतित्थयरा संतगरा पूइया वंदे॥ ___ अर्थात् अन्याय से उपार्जित द्रव्य से या अन्य किसी प्रतिष्ठाकल्प (उपा. सकलचन्द्र) | कार्य हेतु लाये हुए द्रव्य से प्रतिमा का निर्माण कराया __ अर्थात् गृह चैत्यालय में मल्लिनाथ, नेमिनाथ एवं | हो अथवा प्रतिमा हीनाधिक अंगोपांगवाली हो, तो स्वमहावीर स्वामी की प्रतिमा अति वैराग्यकारक होने के | पर की उन्नति का विनाश होता है। अतः देवालय और कारण नहीं रखनी चाहिये। शेष २१ तीर्थंकरों की प्रतिमा प्रतिमा शास्त्रानुसार माप से बनवाकर स्थापित करना ही रखें। इसी प्रकार शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्-श्लोक- | चाहिये, तभी सद्फल की प्राप्ति होती है, अन्यथा परेशान ६३ में भी कहा है। होना पड़ता है। २. बालब्रह्मचारी वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, देवतानां गृहे चिन्त्य मायाद्यंगचतुष्टयम्। पार्श्वनाथ और महावीर, ये पाँच तीर्थंकर वैराग्यकारक नवांगनाडीवेधादि स्थापकामरयोर्मिथः॥ हैं। इनकी प्रतिमा श्रावक गृहचैत्यालय में स्थापित न करें। वत्थुविज्जा, पृ.१७० (वास्तुसार पृ. ९७) अर्थात् देवालय में आय, व्यय, अंश और नक्षत्र गृहचैत्यालय में एक से ग्यारह अंगुल की विषम | इन चार अंगों का तथा देव, देवालय, और देव को स्थापन अंगुल प्रमाण प्रतिमा ही शुभकारक होती है। ग्यारह | करनेवाले यजमान के परस्पर में नाड़ी वेध, योनि, गण, अंगुल से बड़ी प्रतिमा गृह चैत्यालय में स्थापित न करें। राशि, वर्ण वश्य, तारा, वर्ग और राशि स्वामी इन नव वास्तुसार प्रकरण (१,२,३,४) में भी इस प्रकार कहा अंगों का विचार अवश्य करना चाहिये, तभी गृहचैत्यालय शुभप्रद होता है। 'गृह चैत्यालय में एक अंगुल ऊँची प्रतिमा श्रेष्ठ, भावार्थ- देवालय में प्रतिष्ठाचार्य से पूछकर अपने दो अंगुल ऊँची धननाशक, तीन अंगुल वृद्धिकारक, चार | नाम, राशि आदि के अनुसार नामवाले तीर्थंकर की अंगुल पीड़ाकारक, पाँच अंगुल बुद्धिप्रदा, छह अंगुल | मूर्ति विराजमान करना योग्य है। उद्वेगकारक, सात अंगुल ऊँची वृद्धिकारक, आठ अंगुल | | ५. गृहचैत्यालय सम्बन्धी सावधानियाँ बुद्धिहानिकारक, नव अंगुल पुत्रप्रदा, दस अंगुल धननाशक १. गृह चैत्यालय में शुद्ध वस्त्र पहनकर ही पूजा, और ग्यारह अंगुल ऊँची प्रतिमा गृह चैत्यालय में सर्व अभिषेक आदि करना चाहिये। यदि भगवान् के बहुमान अर्थ सिद्धिकारक है।' (उमास्वामी श्रावकाचार-१०१ से | एवं मर्यादाओं का ध्यान नहीं रखा जायेगा, तो वह गृहस्थ १०३ एवं शिल्परत्नाकर १२/१४९-१५१)। के पतन, दरिद्रता एवं कुलक्षय का कारण बनेगा। · अचल प्रतिमा गृह चैत्यालय में स्थापित नहीं करना २. गृह चैत्यालय में प्रतिदिन अभिषेक एवं पूजन चाहिये। होना अति आवश्यक है। सूतक पातक के दिनों मे किसी नैक हस्तादितोऽन्यूने प्रासादे स्थिरता नयेत्। अन्य जैनी भाई को बुलाकर अभिषेक पूजा करानी चाहिये। स्थिरं न स्थापयेद् गेहे गृहीणां दुःख कृद्धयत्॥१३०॥ ३. चैत्यालय में सूर्यास्त के समय भगवान् की . (षष्ठमोऽधिकारः शिल्पस्मति-वास्तुविद्यायाम) | आरती अवश्य करनी चाहिये। अर्थात् एक हाथ से छोटी वेदी एवं गृह चैत्यालय | ४. पूजन के द्रव्य बनाते समय चावल पीले करने में स्थिर (अचल) प्रतिमा स्थापित करना दुःखकारक है।। के लिए केसर अथवा हरसिंगार के फूल प्रयोग करने 12 जनवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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