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गृहचैत्यालय : स्वरूप एवं सावधानियाँ
पं० सनतकुमार विनोदकुमार जैन,
प्रतिष्ठाचार्य पिछले दिनों जब मुझे महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में | २. यस्यांगुष्ठप्रमाणापि जैनेन्द्रीप्रतियातना। विभिन्न स्थानों पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ, तो मैंने गहे तस्य न मारी स्यात्तार्क्ष्यभीता यथोरगी॥ ७६ ॥ देखा कि वहाँ गृहचैत्यालय बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध
पद्मपुराण सर्ग ९२। हैं, जबकि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि में अर्थात् जिसके घर में अंगुष्ठ प्रमाण भी जिनप्रतिमा गृहचैत्यालय की परम्परा नगण्य है। परन्तु मैंने यह भी | होगी, उसके घर में गारुड़ी से डरी हुई सर्पिणी के समान देखा कि महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में गृहचैत्यालयों का | मारी का प्रवेश नहीं होगा। स्वरूप वास्तु-शास्त्रानुसार नहीं है.तथा असावधानियाँ बहुत श्री मुनिसुव्रत भगवान् के समय में शत्रुघ्न के शासन हैं, जो दुर्भाग्य एवं आपत्तियों को प्रदान करनेवाली हैं। में मथुरा नगर में रोग फैला था, तब सप्त ऋषियों के अत: यह लेख लिखा जा रहा है ताकि विशेषरूप से | निमित्त से वह संकट दूर हुआ था। उन ऋषियों ने गृह कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में गृहचैत्यालयों के स्वरूप तथा | चैत्यालय का उपर्युक्त उपदेश दिया था। हो सकता है असावधानियों में तदनुसार सुधार किया जा सके। तब से ही कृत्रिम गृह चैत्यालय बनाने की परम्परा हो। १. परिभाषा
परन्तु गृहचैत्यालय गृह में कहाँ बनाना, कैसी 'दृषदिष्टकाकाष्ठादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञ- प्रतिमा स्थापित करना एवं उसकी कैसी मर्यादा करना वीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं।' बोधपाहुड।
आदि का ज्ञान न होने से हम अज्ञानता वश अनेक संकटों अर्थात् जो ईंट पत्थर व काष्ठादि से बनाये जाते | को आमंत्रण देते रहते हैं। हैं तथा जिनमें भगवत-सर्वज्ञ वीतराग की प्रतिमा रहती | २. गहचैत्यालय की दिशा है वे चैत्यालय हैं। चैत्यालय का अस्तित्व अनादिकाल | गृह पूर्व या उत्तरमुखी ही बनाये जाने चाहिये, से है। चैत्यालय कृत्रिम और अकृत्रिम के भेद से दो | इनमें गृह चैत्यालय भी पूर्व या उत्तर मुखी बनाना और प्रकार के हैं।
उसमें प्रतिमा भी पूर्व या उत्तरमुखी स्थापना करना श्रेष्ठ चैत्यालयों के अन्य दो भेद भी हैं- १. सार्वजनिक | है। चैत्यालय २. गृह चैत्यालय। इन चैत्यालयों की परम्परा गृहे प्रविशता वामभागे शल्यवर्जिते। भी अनादि काल से है। तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों देवतावसरं कुर्यात्सार्धहस्तोर्ध्वं भूमिके॥ ९८॥ की जो नियत संख्या है वह सार्वजनिक चैत्यालयों की नीचैर्भूमिस्थितं कुर्याद्देवतावसरं यदि। संख्या है। भवनत्रिकों के निवास स्थानों में गृहचैत्यालयों नीचैर्नीचैस्ततोऽवश्यं सन्तत्यापि समं भवेत्॥९९।। की संख्या असंख्यात है। जैसा कहा भी है
उमास्वामी-श्रावकाचार __ 'ज्योतिय॑न्तरभावनामरगहे............।' (मंगलाष्टक) __ अर्थात् गृह में प्रवेश करते हुए बायें भाग की
अर्थात् ज्योतिष्क, व्यन्तर, भवनवासी आदि देवों | ओर शुद्ध भूमि पर डेढ़ हाथ ऊँची भूमि पर देवस्थान के गृहों में जिनगृह अर्थात् चैत्यालय हैं। ये अकृत्रिम बनाना चाहिये। यदि देवस्थान नीची भूमि पर बनाया हैं। कृत्रिम गृहजिनालयों की परम्परा का जैनागम में अनेक जायेगा, तो वह गृहस्थ अवश्य ही संतानहानि के साथस्थानों पर उल्लेख है। जैसे
साथ हीन-हीन अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। १. जिनेन्द्रभक्तश्रेष्ठिनः सप्ततलप्रासादोपरि बहु- | गृह में निवास स्थान की तरफ जिनेन्द्रदेव की रक्षकोपयुक्तपार्श्वनाथप्रतिमा छत्रत्रयोपरि
पीठ एवं बायाँ हाथ नहीं होना चाहिये। जिनेन्द्रदेव की (रत्नकरण्डकश्रावकाचर १/२० टीका : प्रभाचन्द्राचार्य)। पीठ एवं बायें भाग की ओर गृहस्थ का निवास गृहस्थ ___अर्थात् जिनेन्द्र भक्त सेठ के सतखण्डा महल के | को शुभ फल नहीं देता है। उन्नति रुक जाती है। दरिद्रता ऊपर अनेक रक्षकों से सहित पार्श्वनाथ भगवान के ऊपर | का साम्राज्य हो जाता है। जिनके घर छोटे हैं और जो तीन छत्र लगे थे......। और भी
गृह और देवालय के मध्य खाली स्थान छोड़ने में असमर्थ 10 जनवरी 2009 जिनभाषित
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