Book Title: Jinabhashita 2009 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ उदय से उस घातक शक्ति का रक्षकशक्ति में बदल जाना अनिवार्य है। इस प्रकार जिनोपदिष्ट कर्म-सिद्धान्त के आगे वास्तुशास्त्र अकिंचित्कर सिद्ध होता है। वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में वास से धनक्षय नहीं धन का अलाभ और विनाश असातावेदनीय के उदय से होता है और वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास करने से असातावेदनीय का उदय नहीं होता, अतः जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के अनुसार वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास धनक्षय का कारण नहीं है, यह सिद्ध होता है। वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में वास अकालमृत्य का भी कारण नहीं गोम्मटसार-कर्मकाण्ड में बतलाया गया है कि जीव की अकालमृत्यु आठ कारणों से होती है-विषभक्षण, वेदनातिशय, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेशपरिणाम, उच्छ्वासनिरोध और आहारनिरोध। (गाथा ५७)। वास्तुशास्त्रविरुद्ध गृह में निवास को अपमृत्यु का कारण नहीं बतलाया गया है, न ही यह बतलाया गया है कि उक्त प्रकार के गृह में वास करने से शरीर में विष का संचार होता है या वेदनातिशय, रक्तक्षय आदि होते हैं, न ही ये प्रत्यक्ष प्रमाण से होते दिखाई देते हैं। अतः स्पष्ट है कि वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल निर्मित गृह में वास जिनागम के अनुसार अकालमृत्यु का कारण नहीं है। वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में वास पापकर्म नहीं वास्तुशास्त्र-विरुद्ध गृह में निवास कोई पापकर्म नहीं है, क्योंकि पाप केवल पाँच ही बतलाये गये हैं। उनमें से उक्त प्रकार के गृह में वास न हिंसारूप है, न असत्यरूप, न स्तेयरूप, न अब्रह्मरूप और न परिग्रहरूप। कुदेवायतन न होने से अशुभपरिणामों का जनक भी नहीं है। अतः उसमें वास करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं हो सकता, अत एव अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि पापफल भी प्राप्त नहीं हो सकते। ऊर्जा के स्रोत प्रत्येक गृह में हैं वास्तुशास्त्री एक यह तर्क देते हैं कि वास्तुशास्त्र-विरुद्ध निर्मित गृह में उन प्राकृतिक ऊर्जाओं का आना अवरुद्ध हो जाता है, जो पर्यावरण में विद्यमान रहती हैं। यह तर्क भी समीचीन नहीं हैं। ऊर्जा का अर्थ है शक्ति। जिनागम के अनुसार शक्ति के स्रोत दो हैं- चैतन्य और पुद्गल। चैतन्यशक्ति वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है और शरीर को पुष्ट और स्वस्थ करनेवाली पौद्गलिक ऊर्जा आहार, जल, प्राणवायु (आक्सीजन) और सूर्यप्रकाश से प्राप्त होती है। शरीर के स्वस्थ और सशक्त रहने के लिये जरूरी विटामिन, आयरन, मिनरल्स आदि सभी तत्त्व इन्हीं चार तत्त्वों में समाविष्ट होते हैं। शरीर को तेज और कान्ति प्रदान करनेवाला तैजस शरीर तो अनादि से जीव के साथ सम्बद्ध है। इनके अतिरिक्त शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा का और कोई स्रोत नहीं है। फिर भी यदि कोई अन्य आवश्यक माना जाय, तो वह पौद्गलिक ही हो सकता है। और सम्पूर्ण पुद्गल पाँच प्रकार की वर्गणाओं में विभक्त हैं, जिनके नाम हैं- आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, तैजसवर्गणा और कार्मणवर्गणा। ये पाँचों वर्गणाएँ सम्पूर्ण लोकाकाश में ठसाठस भरी हुई हैं, उस गृह के आकाश (खाली स्थानों) में भी भरी हुई हैं, जो वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्मित है, और उस गृह के आकाश में भी जो तदनुसार निर्मित नहीं है। अतः वास्तुशास्त्रविपरीत गृह में रहनेवाले मनुष्यों को भी ऊर्जा के सभी स्रोत उपलब्ध होते हैं। हाँ दोनों प्रकार के गृहों में आक्सीजन और सूर्यप्रकाश के संचार के लिए द्वार और खिड़कियाँ आवश्यक हैं केवली के अवर्णवाद से भी केवल दर्शनमोह का बन्ध गृहचैत्यालय का निर्माण पूर्वोक्त विद्वद्वय द्वारा बतलाये वास्तुशास्त्र के अनुसार ही किया जाना चाहिए, ताकि जिनबिम्ब की अविनय और जिनालय अशुद्ध न हो। किन्तु यदि अज्ञानतावश वास्तुशास्त्र के विरुद्ध निर्माण हो जाता है, तो उससे निर्माता की अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि होने का उल्लेख जिनागम में नहीं है। गृहचैत्यालय के निर्माता की जिनदेव में श्रद्धा होती है, तभी वह अपने घर में चैत्यालय बनवाता 6 जनवरी 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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