Book Title: Jinabhashita 2009 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ कहता है, इस पर दृष्टिपात किया जाय। __ आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की २५३वी गाथा से लेकर २५६वीं गाथा तक, चार गाथाओं का अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदःख-सौख्यं। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् पुमान् मरणजीवित दुःखसौख्यम्॥ १६८॥ अनुवाद-"जीवों के जन्म, मरण, सुख और दुःख सदा अपने ही कर्मों के उदय से नियत होते हैं। ई दूसरा पुरुष या द्रव्य जीव के जन्म, मरण, सुख और दुःख का कर्ता होता है, ऐसा मानना अज्ञान है। आचार्य अमितगति ने भी कहा है सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा। अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः।। अनुवाद-'जीव को सुख और दुःख कोई दूसरा द्रव्य नहीं देता। दूसरा द्रव्य जीव को सुख-दुःख देता है, ऐसा मानना कुबुद्धि है। अतः 'मैं दूसरे को सुखी-दुखी करता हूँ,' ऐसी मान्यता निरर्थक अभिमान है। लोक के सभी जीव स्वकृत कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं, अर्थात् स्वकृत कर्मों के उदय से ही जीव को सुख-दु:ख होता कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी कहा गया है __ण य को वि देदि लच्छी, ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि॥ ३१९॥ अनुवाद-"न तो कोई दूसरा द्रव्य जीव को लक्ष्मी देता है, न कोई जीव का उपकार करता है। उपकार और अपकार जीव के अपने ही शुभाशुभ कर्म करते हैं।" इन जिनवचनों से सिद्ध है कि वास्तुशास्त्र के अनुकूल या प्रतिकूल निर्मित गृह परद्रव्य है। वह जीव के द्वारा किया गया अपना शुभाशुभ कर्म नहीं है। इसलिए उसमें स्वनिवासी जीव को सुख-दुःख देने की सामर्थ्य नहीं है। वास्तशास्त्र-प्रतिकल गह की प्राप्ति भी सातावेदनीय के उदय से उपर्युक्त तथ्य का निषेध न कर पाने के कारण कुछ जैनवास्तुशास्त्री यह तर्क देते हैं कि जिस मनुष्य के असातावेदनीय का उदय होता है, उसे वास्तुशास्त्र-प्रतिकल गह प्राप्त होता है और जिसके का उदय होता है, उसे वास्तुशास्त्र-अनुकूल गृह की प्राप्ति होती है। इसलिए वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृह में वास करने से अनेक प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति होती है। यह तर्क तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि जिनागम में दुःखनिवारक सामग्री का सम्पादन करनेवाले कर्म को सातावेदनीय कहा गया है- "दुक्खपडिकारहेतुदव्वसंपादयं --- कम्मं सादावेदणीयं णाम।" (धवला / पु.१३ /५,५,८८ / पृ.३५७)। और वास्तुशास्त्र-प्रतिकूल गृह भी शीत, आतप, वर्षा आँधी-तूफान, थकान, हिंस्रजीवों के उपद्रव, धनापहरण, प्राणापहरण, शीलापहरण आदि से उत्पन्न दुःखों के निवारण का साधन है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) से सिद्ध है। अतः उसकी प्राप्ति सातावेदनीय के उदय से ही होती है। उसका अपमृत्यु, कुलक्षय, धनक्षय आदि का कारण होना न तो प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है, न आगमप्रमाण से। जो तत्त्व अतीन्द्रिय होता है, उसकी सत्यता सर्वज्ञ के वचनों से ही सिद्ध होती है, छद्मस्थ के वचनों से नहीं। साता-असाता कर्मों के उदय का निमित्त भी नहीं कुछ जैनवास्तुशास्त्री कहते हैं कि जीवकृत कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से होता है। वास्तुशास्त्र के अनुकूल और प्रतिकूल निर्मित गृह द्रव्य हैं, अतः वे स्वनिवासी जीव के साताअसाता-वेदनीय कर्मों के उदय में निमित्त बनते हैं और इस प्रकार जीव के सुख-दुःख के कारण होते हैं। यह तर्क जिनागम की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इसके निम्न लिखित कारण हैं -जनवरी 2009 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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