Book Title: Jinabhashita 2008 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ ताजे रसगुल्ला वह खाना ही चाहता था कि डाकिया | पढ़ते हुए मुनिराज को देखा - वे पढ़ रहे थे 'जल (पोस्टमैन) आकर कहता है बाबू ! आपका तार है । पत्नी ने तार लेकर पति के हाथ में दिया। पति ने तार खोला तो उसमें देखा कि पिता जी सीरियस हैं जल्दी आओ, तार पढ़ते ही वह रसगुल्ला खाना भूल गया। थाली पर बैठा था इसलिए खाये तो सही, परन्तु उनमें रस नहीं था, स्वाद नहीं था, जरा विचार कर देखो वह रसानुभूति आत्मा की थी या रसगुल्ला की । रस का आनन्द का आवास आत्मा में था रसगुल्ला में नहीं । एक गरीब आदमी बाजरे की रोटी खा रहा था, डाकिया कहता है बाबूजी आपका मनिआर्डर आया है। मनिआर्डर की बात सुनकर प्रफुल्लच चित्त हो गया। बाजरा की रोटी भी उसे अच्छी लगने लगी। क्यों? मनोवृत्ति बदल गयी, न रसगुल्ला में सुख का आवास था और न बाजरा की रोटी में दुःख का निवास था । सुख और दुःख तो आत्मा में थे। वहीं उनकी खोज करना अच्छा है । जिस प्रकार मलमा हटाये बिना पानी का स्त्रोत नहीं मिलता उसी प्रकार विकारीभाव रूप मलमा हटाये बिना सहज सुख का स्त्रोत नहीं मिल सकता है। पानी के स्त्रोत बाहर से थोडे ही आते है जमीन के अन्दर ही रहते हैं परन्तु मलमा से तिरोहित है, मलमा हटाये बिना उनका पाना कठिन है। इसी तरह सहज - सुख आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त है, परन्तु रागद्वेष का मलपा उसके ऊपर पड़ा हुआ है। उसे अलग करने की बात है । ज्यों जिय तन मेला, पर भिन्न-भिन्न नहीं मेला' मुनिराज की सौम्य मुद्रा देख वह निश्चल हो गया, पता चलाकर साले साहब उसके पास पहुँचे। उन्हें लगा कही इन्हें भूत तो नहीं लग गये जो चुपचाप खड़े है। बहुत कुछ कहा चलिये भोजन करें परन्तु उसकी ओर से कोई उत्तर नहीं । व्यङग्य कसते साले ने कहा कि क्या मुनि बनना चाहते हो? उसने कहा- मन तो यही कह रहा है। साले को बहनोई की मनोगति का आभास नहीं हुआ । इसलिए उसने कहा अच्छा आप मुनि बन जावें तो मैं भी बन जाऊँ। बहनोई मुनि बन गया, बहू ने सुना तो वह कहता है कि मैं तो पहले ही आर्यिका बनना चाहती थी। परन्तु पिता और भाई ने बलात् गृहस्थी के चक्र में फँसा दिया था, अब मुझे इस चक्र से छुटने का अवसर अनायास मिल गया। तात्पर्य यह है कि यह आर्यिका हो गई और अगत्या साले के मन में भी मोड़ आया अतः वह भी मुनि बन गया। घर पर जब समाचार पहुँचा तब सारा कारोबार ठण्डा पड़ गया। 'बीज राख फल भीग वे ज्यों किसान जग माँहि, जिस प्रकार किसान बीज की रक्षा करके ही उसके फलका उपभोग करता है बीज को खाकर नहीं, इसी प्रकार ज्ञानी जीव धर्मभाव को सुरक्षित रखकर ही उसका फल भोगता है।' उसे नष्ट कर नहीं। परिणामों की गति बड़ी विचित्र है । पद्यपुराण में एक कथा आती है उदयसुन्दर की। वह बड़ा सुन्दर शरीर वाला था। विवाह हुआ, बहू घर आयी । उपरान्त बहू का भाई बहिन को आया, परन्तु उसने भेजने को मना कर दिया, माता ने समझाया, पिता ने समझाया पर वह अपनी हठ पर कायम रहा। नहीं भेजूँगा । बहू के भाई को एक युक्ति सूझी उसने कहा कि आप भी हमारे साथ चलिये, साथ चलने की बात सुनकर बहू को भेजने के लिए तैयार हो गया, बहनोई, साला ओर बहू चले । मार्ग में एक वन खण्ड में भ्रमण करते-करते बहनोई ने एक वृक्ष के नीचे बारह भावना अक्टूबर 2008 जिनभाषित 4 Jain Education International बहुत ही वैराग्यवर्धक कथा है। सम्यग्दृष्टि जीव के अन्तस्तल में वैराग्य का भाव सदा विद्यमान रहता है । न जाने यह कब प्रस्फुटित हो जावे। अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है सम्यग्दष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात् सर्वतो रागयोगात् ॥ सम्यग्दृष्टि में नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है क्योंकि यह स्वकीय वस्तुपने को प्राप्त करने के लिए सदा उद्यत रहता है। उसे प्राप्त करने के लिए वह निजकी प्राप्ति और पर का परित्याग करता है । स्वकीय वस्तुत्व को प्राप्त करने का यह एक साधन है। वह परमार्थ से इस संयोग दशा में स्व और पर को जानकर स्व में अपने ज्ञायक स्वभाव में स्थित होकर बैठता है और पर जो रागभाव है उससे सर्वथा विरत होता है । इस भूतार्थ को समझे बिना किसी का भूत उतरता नहीं है। भूत- एवंभूत, ऐसा है आत्मा का स्वरूप। ऐसा जाने बिना किसी का भूत, पर में निजत्व बुद्धि का भाव दूर नहीं होता । आज भूतार्थ की चर्चा करनेवालों का भी यह भूत उतरता नहीं है। कहा है “आत्मनि इति अध्यात्म", आत्मा में ही जो हो वह अध्यात्म है । अध्यात्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36