Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ क्रम से वृद्धि को प्राप्त होती है यथा- 1-1, 2-2, 3- | अरिहन्त भगवान् 13वें एवं 14वें गुणस्थानवर्ती। इस प्रकार 4,4-16, 5-256, 6-65536,7-4,29,49,67,296 अर्थात् | तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा उत्तरोत्तर विकसित दस पात्र कहे गये सातवें समय मात्र में यह राशि 1 से बढ़कर गुणित क्रम | हैं। में 4 अरब 29 करोड़ 49 लाख 67 हजार दौ सो छियानवे | विशेष- अन्य-अन्य ग्रन्थों में कहीं 11 स्थान भी हो गई। आठवें समय में गुणा करने पर राशि इतनी | कहे गये हैं। शास्त्रसारसमुच्चय की हिन्दी टीका जैनतत्त्वहै कि हम उसे पढ़ भी नहीं पायेंगे। 9 अंक की संख्या विद्या के चौथे अध्याय सूत्र 62 में 11वाँ स्थान केवली हो जायेगी। इस प्रकार हमने द्विगुणित एवं गुणित क्रम | समुद्घात लिया गया है, उस समय पूर्ववर्ती स्थिति से को जाना। इसी बात को असंख्यात गुणित क्रम जानने | अधिक निर्जरा है ऐसा विवरण प्राप्त होता है। षड्खण्डागम के लिये देखें परिशीलन पृष्ठ 39 पर भी धवला की 12वीं पुस्तक पहले समय में निर्जरितकर्म असंख्यात के अनुसार 11 स्थान कहे गये हैं। दूसरे क्रम में अर्थात् दूसरे समय में असंख्यात | कौन-कौन से जीव कितनी निर्जरा कर सकते x असंख्यात हैं- इस बात पर विचार करने के लिये हमें सर्वप्रथम तीसरे समय में दूसरे समय की राशि x असंख्यात | यह जानना होगा कि यह निर्जरा प्रारम्भ कहाँ से होती चौथे समय में तीसरे समय की राशि x असंख्यात है? जब मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु पाँच इस प्रकार प्रतिसमय असंख्यात असंख्यात गणी | लब्धियों में करणलब्धि के परिणाम करता है, उस समय कर्मों की निर्जरा बढ़ती चली जाती है और जीव अपनी| जो तीन करण-अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण पात्रतानुसार पूरे-पूरे जीवन भर अपने अनन्त कर्मों को रूप परिणामों के समय आयुकर्म को छोड़कर बाकी खिरा देते हैं। अपने पूर्व असंख्यातों जन्मों में बाँधे हये 7 कमों की बहुत निर्जरा होती है। उस समय उस जीव कर्मों के बोझ को इस निर्जरा के द्वारा हलका कर लेते को सम्यक्त्व के सन्मुख या सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव : हैं और मोक्षमार्ग प्रशस्त करके मक्ति को प्राप्त हो जाते | कहते हैं तथा जैसे ही यह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता हैं। इसमें और भी विशेषतायें हैं। यह सामान्य कथन है, तो सम्यक्त्वप्राप्ति के काल में इसकी जो निर्जरा होती किया है। अन्य विशेषताएँ आगे आनेवाले शीर्षकों में | है. उसे असंख्यातगणी निर्जरा के प्रथम स्थान के रूप स्वयं प्रतिपादित हो जायेंगी। इसलिये उस प्रसंग को यहाँ। में लिया गय में लिया गया है। सातिशय मिथ्यादृष्टि अवस्था से नहीं लिया है। सम्यक्त्व-अवस्था में जो निर्जरा होती है वह पूर्व-पूर्व असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा कौन कर सकता है की अपेक्षा असंख्यात गुनी होती है, इसलिये इसे पहले तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9 के 45 वें सूत्र में आचार्य उमास्वामी पात्र के रूप में स्वीकार किया गया है। पुनः वही जीव महाराज ने इसका खुलासा किया है। 10 पात्र बतला जब व्रत स्वीकार कर देशव्रती श्रावक बनता है, तो उसे रहे हैं यथा-सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शन द्वितीय पात्र स्वीकार किया गया है और उसकी निर्जरा मोहक्षपकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः अपनी प्रथम अवस्था से असंख्यात गुणी है। वही श्रावक क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः॥ 9145 ॥ इसका क्रम इस जब महाव्रत स्वीकार करता है, मुनि अवस्था को प्राप्त प्रकार है- 1.अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवर्ती, 2. | होता है, तो श्रावक अवस्था में होनेवाली असंख्यातगणी देशव्रती श्रावक पंचमगुणस्थानवर्ती, 3.विरत अर्थात् 6 वें | | निर्जरा से भी असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही मुनि एवं 7 वें गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज, 4.अनन्तानुबन्धी | महाराज जब अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं, तो की विसंयोजना करनेवाले. 5.दर्शनमोह का क्षय करनेवाले. उस समय में होनेवाली निर्जरा पूर्व अवस्था से असंख्यात-- 6.चारित्रमोह का उपशम करनेवाले अर्थात् उपशम श्रेणी | गुणी है। वे ही महामुनिराज जब दर्शन मोहनीय की क्षपणा पर चढनेवाले मनिराज.7. उपशान्तमोह 11वें गणस्थानवर्ती करते हैं, तो उस समय होनेवाली निर्जरा पूर्व अवस्था महामुनिराज, 8.मोहनीय की क्षपणा करनेवाले क्षपकश्रेणी | से असंख्यात गुणी है, वे ही महामुनिराज उपशम श्रेणी पर आरूढ, 9.मोहनीय परिवार को नाश कर लिया है | चढ़ते हैं, तो श्रेणी में होनेवाली निर्जरा उनकी पूर्व स्थिति ऐसे 12 वें गुणस्थानवर्ती मुनिराज और 10.जिन अर्थात् | से असंख्यात गुनी है। पुनः वे ग्याहरवें गुणस्थान को 12 अक्टूबर 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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