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पूरा ध्यान दें। संदेह के बिन्दुओं पर बिना किसी संकोच | सहानुभूतिपूर्ण संबंध बनायें। सभी को हार्दिक सहयोग के यथाशीघ्र चर्चा करें। सभी पक्ष दिल खोलकर आपस | दें। समाज के विभिन्न घटकों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता, में मिलें। पूरा मुँह खोलकर बोलें। विशेषतः सभी संतजन | विसंगतिपूर्ण, विचारहीन और अविवेकपूर्ण परिस्थितियाँ
और सभी नेतागण संदेह के चश्में को सदैव अपनी आँखों | जन्म न लेने दें। सभी के साथ संगठित और संघबद्ध पर चढ़ाकर न रखें। ऐसे चश्में को अपनी आँखों के | होकर चलें। हमारी यह सामाजिक एकता विपरीत नीचे उतारे। अतीत में दोनों पक्षों के मन में घुसे संदेह | परिस्थितियों में हमें एकजुट बनाये रखेगी और विकास के घुन को बाहर निकालें। ऐसे संदेह के द्वारा अपनी | एवं प्रगति के नए आयाम खोल देगी। सच्चे मन से चेतना को कुतरने से बचाएँ। संदेह के धीमें जहर से | तालमेल की भावना और विचार हमें कुछ नया सोचने छुटकारा पाने के लिए ठोस एवं प्रभावी प्रयत्न करें। और नया करने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करेंगे। हम अपनी उच्च स्तरीय चेतना और व्यक्तित्व को नए | नई योजना बनाने और अपने व्यक्तित्व की गहराई में आयाम देते हुए पक्के तौर पर विश्वास करें कि कोई | झाँकने का अवसर प्रदान करेंगे। भगवान् महावीर की भी पक्ष निम्न स्तरीय कार्य नहीं करता है। संदेह के | वाणी से ओतप्रोत मेरीभावना और सामायिक पाठ का
धत पक्ष के वरिष्ठ प्रतिनिधियों से | हम प्रतिदिन पठन, मनन और चिंतन करें। अपने आंतरिक अच्छी तरह से चर्चा कर सही बात की जानकारी प्राप्त | व्यक्तित्व का सदैव अवलोकन एवं मूल्यांकन करें। अति करें।
सहज, सुगम और सरल बनें। प्रतिदिन नए संकल्प के मनशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि के उद्घोष | साथ सामाजिक एकीकरण के लिए छोटे से छोटा नया के साथ हम समाज के सभी घटकों के बीच तालमेल | कार्य प्रारंभ करें। ऐसे विचारों और कार्यों से सामाजिक बनायें। सभी के साथ प्रेम, आत्मीयता, उदारता और | एकता को ऊर्जा प्रदान करें।
३० निशात कॉलोनी, भोपाल
बुन रही मकड़ी समय की
मनोज जैन 'मधुर'
पूछकर तुम क्या करोगे मित्र मेरा हाल
उम्र आधी मुश्किलों के बीच में काटी पेट की खातिर चढ़े हैं
दर्द की घाटी पीर तन की खींच लेती रोज थोड़ी खाल
कब हमें मिलती यहाँ कीमत पसीने की हो गई आदत घुटन के
बीच जीने की इस उमर में पक गए हैं खोपड़ी के बाल
आग खाते हम, जहर के चूंट पीते हैं। रोज मरते हम यहाँ
हर रोज जीते हैं बुन रही मकड़ी समय की वेदना का जाल
दर्द को हम ओढ़ते, सोते, बिछाते हैं रोज सपना दूर तक हम
छोड़ आते हैं जी रहे अब तक बनाकर धैर्य को हम ढाल।
सी एस-१३, इन्दिरा कॉलोनी
बाग उमराव दूल्हा भोपाल- ४६२०१० (म.प्र.)
24 अक्टूबर 2008 जिनभाषित
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