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तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों। भयों से आक्रान्त रहते हैं, परीषहों से घबराते तथा वनवास के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं | से डरते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकार के भयों से का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थकर | रहित होता है। मैथुन संज्ञा के वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं।
महाव्रत को धारण करते हुए भी गुप्त रूप से उसमें जिज्ञासा- क्या मुनियों को अपनी जन्मजयन्ती | दोष लगाते हैं। और परिग्रह संज्ञावाले साधु अनेक प्रकार मनाना उचित है?
के परिग्रहों की इच्छा को धारण किये रहते हैं, पैसा समाधान- योगसारप्राभृत, अधिकार ८ के श्लोक | जमा करते हैं, पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं, नं. १८ में इसप्रकार कहा हैं
अपने इष्टजनों को पैसा दिलाते हैं, पुस्तकें छपा-छपाकर भवाभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा-वशीकृताः। बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, तालाबन्द बॉक्स कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोक-पङ्क्ति -कृतादराः॥१८॥ रखते हैं, बॉक्स की ताली कमण्डलु आदि में रखते हैं,
__ अर्थ- कुछ मुनि परम धर्म का अनुष्ठान करते | पीछी में नोट छिपाकर रखते हैं, अपनी पूजाएँ बनवाकर हुए भी भवाभिनन्दी होते हैं, जो कि संज्ञाओं के वशीभूत | छपवाते हैं और अपनी जन्मगाँठ का उत्सव मनाते हैं। ये हैं और लोगों के आराधने रिझाने आदि में रुचि रखते | सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियों के हैं, जो आजकल अनेक हुये प्रवृत्त होते हैं।
मुनियों में लक्षित भी होते हैं। उपर्युक्त श्लोकार्थ की व्याख्या करते हुए पं० जुगल | उपर्युक्त संदर्भ के अनुसार मुनियों द्वारा अपनी किशोर जी मुख्तार ने लिखा है कि आहारसंज्ञा के | जन्मजयन्ती मनाना कदापि उचित नहीं है। मुनियों को वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरों में भोजन करते हैं, जहाँ मुनिदीक्षा के समय द्विजन्मा कहा जाता है। अर्थात् उनका अच्छे रुचिकर एवं गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन के मिलने नवीन जन्म माना जाता है और तदनुसार उनका नाम की अधिक सम्भावना होती है, उद्दिष्ट भोजन के त्याग | भी नवीन रखा जाता है। अतः असंयम अवस्था के जन्म की, आगमोक्त दोषों के परिवर्जन की कोई परवाह नहीं | को स्मरण करना कैसे उचित माना जाय? पू. आचार्य करते. भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रों से आया | विद्यासागर जी महाराज, कभी भी अपनी पर्याय का जन्म हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञा के विरुद्ध दिवस नहीं मनाते हैं। होता है। भय-संज्ञा के वशीभूत मुनि अनेक प्रकार के
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा (उ.प्र.)
शरीर धर्म का साधन भारत के सभी दर्शन, धर्म जीने की कला सिखाते हैं, लेकिन जैनदर्शन जीने के साथ-साथ मरने की कला भी सिखाता है- अब तुम्हारा मरण हो तो ऐसा हो कि पुनः मरण शेष न रह जावे। इसका नाम है समाधिमरण इसको समझने के लिए महान् आत्माओं के जीवन की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।
सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' की क्लास चल रही थी। उस वक्त आचार्यश्री ने बताया कि एक स्वस्थ व्यक्ति हमारे पास आये और बोले-आचार्य श्री मुझे अभी सल्लेखना दे दो, ताकि मैं अच्छे ढंग से उपवास करके शरीर छोड़ सकूँ, वरना क्या पता बुढ़ापे में कोई रोग घेर गया, तो क्या करेंगे। आचार्य श्री ने कहा- शरीर को ऐसा नहीं छोड़ा जाता। शरीर माध्यम है धर्म का, संयम पालने का। जल्दी समाधि लेकर क्या करोगे? स्वर्ग जाओगे, वहाँ तो असंयम के साथ रहना होगा। कुछ दिन संयम के साथ शरीर की देखरेख करो, बाद में जब संयम पालने में बाधा पड़ने लगे, तो शरीर को छोड़ा जाता है, समाधि ली जाती है। एकदम शरीर को नहीं छोड़ा जाता। शरीर को छोड़ना मात्र समाधि नहीं है, बल्कि कषाय को छोड़ना ही सही समाधि मानी जाती है।
मुनि श्री कुंथुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार
अक्टूबर 2008 जिनभाषित 29
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