Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2535 कुम्भोज बाहुबली (जिला कोल्हापुर, महाराष्ट्र) में विराजमान अतिप्राचीन जिनप्रतिमा आश्विन, वि.सं. 2065 अक्टूबर, 2008 • मूल्य /h5glibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सही पुरुषार्थ • आचार्य श्री विद्यासागर जी माँ धरती और बेटी मिट्टी के संवाद के माध्यम से सही पुरुषार्थ का मार्मिक विश्लेषण इन काव्यपंक्तियों में किया गया है। -सम्पादक किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है, कारण कि वह सब कुछ अभी राग की भूमिका में ही घट रहा है, और इससे गति में शिथिलता आती है। इसी भाँत्ति प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी प्रकारान्तर से द्वेष को आहूत करना है, और इससे मति में कलिलता आती है। कभी-कभी गति या प्रगति के अभाव में आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं, मन खिन्न होता है और, सुनो! मीठे दही से ही नहीं, खट्टे से भी समुचित मन्थन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है। इससे यही फलित हुआ कि संघर्षमय जीवन का उपसंहार नियमरूप से हर्षमय होता है, धन्य! इसीलिए तो बार-बार स्मृति दिलाती हूँ कि टालने में नहीं सती-सन्तों की आज्ञा पालने में ही 'पूत का लक्षण पालने में' यह सुक्ति चरितार्थ होती है, बेटा! और कुछ क्षणों तक मौन छा जाता है। किन्तु यह सब आस्थावान् परुष को अभिशाप नहीं, वरन् वरदान ही सिद्ध होते हैं जो यमी, दमी हरदम उद्यमी है। मूकमाटी (पृष्ठ १३-१४)से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 अक्टूबर 2008 वर्ष 7, अङ्क 10 मासिक जिनभाषित सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं.मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ | पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर . काव्य : सही पुरुषार्थ आ.पृ. 2 : आचार्य श्री विद्यासागर जी . मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ आ.पृ.4 . सम्पादकीय : सम्मेदशिखर में सेवायतन प्रवचन • सुख कहाँ है? : आचार्य श्री विद्यासागर जी . वास्तविक स्वतन्त्रता की आवश्यकता : मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी . लेख • एक ही भाव से दो कार्य कैसे? : मुनि श्री प्रमाणसागर जी • जिनेन्द्रदर्शन एवं पूजन की विशेषता : पं० सदासुखदास जी काशलीवाल • असंख्यात-गुणश्रेणी-निर्जरा : सिद्धार्थकुमार जैन • तीर्थ की संकल्पना और उनका विकास : प्रो. वृषभप्रसाद जैन • अष्टपाहुड में बिम्बविधान : प्रो. रतनचन्द्र जैन • जैन एकता के लिए ठोस एवं प्रभावी प्रयास करें : सुरेश जैन, आई.ए.एस कविताएँ • बुन रही मकड़ी --- : मनोज जैन 'मधुर' . शंका-समाधान : पं० जबाहरलाल जी भीण्डर 25 . जिज्ञासा-समाधान ': पं. रतनलाल बैनाड़ा 27 समाचार 5,10,30 परिचय : पुलिसनिरीक्षिका जैन युवती --- एक विचारणीय पत्र समाज के नाम ग्रन्थ समीक्षा आ.पृ3 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 1100 रु. वार्षिक 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सम्पादकीय सम्मेदशिखर में सेवायतन यह परम पावन सिद्ध क्षेत्र सम्मेदशिखर, कि जहाँ से अनंत तीर्थंकर एवं अनंतानंत मुनिराजों ने मोक्ष पद प्राप्त किया है, जैन धर्मावलम्बियों का सर्वोच्च तीर्थ है। गत कुछ वर्षों से मधुवन में, पहाड़ के रास्ते में तथा पहाड़ के ऊपर सर्वत्र प्रदूषण एवं गंदगी का साम्राज्य फैला हुआ है। मधुवन में मेन रोड में अतिक्रमियों के द्वारा रोड की चौड़ाई सिकुड़ा दी गई, साथ ही गंदगी तो है ही । समस्याओं के दो रूप हैं। एक प्रकार की समस्याएँ वे हैं, जो क्षेत्र के विकास से संबंध रखती हैं। दूसरी समस्याएँ क्षेत्र के निवासी आदिवासी लोगों के असंतोष, बेकारी अभावग्रस्तता एवं असहयोग के कारण उत्पन्न हो रही हैं। इन समस्याओं की ओर प. पू. मुनिराज श्री प्रमाण सागर जी महाराज का ध्यान गया और उन्होंने इनके कारण एवं निवारण पर गंभीर चिंतन किया। जो समस्यायें क्षेत्र के विकास से संबंध रखती हैं, उनका समाधान राज्य सरकार एवं समाज के संयुक्त प्रयत्नों से ही संभव है। किंतु जो समस्यायें वहाँ के मूल निवासी आदिवासियों द्वारा उत्पन्न की गई हैं, उनके समाधान के लिए उन आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए उनकी आर्थिक दशा सुधारने के कार्यक्रम संचालित करने होंगे। जो समस्याएँ आदिवासियों के द्वारा उत्पन्न की गई हैं, वे मुख्यतः उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण, उनकी बेकारी के कारण एवं उनके मद्यसेवन आदि व्यसनों के कारण उत्पन्न हुई हैं। आर्थिक विपन्नता, और बेकारी से त्रस्त होकर उन्होंने पहाड़ पर अनेक जगह चाय, पान, नाश्ता आदि की दुकानें लगा ली हैं। इन दुकानों का अस्तित्व विभिन्न यात्रियों को खाने-पीने के लिए प्रेरित करता है और परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई गंदगी से सम्पूर्ण वातावरण प्रदूषित हो रहा है। प्रसन्नता का विषय है कि पू० मुनिराज श्री की प्रेरणा से उत्साही कार्यकत्ताओं ने 'सेवायतन' के सुंदर नाम से तीर्थराज की पावनता को अक्षुण्ण बनाए रखने के पवित्र उद्देश्य से विभिन्न योजनाओं पर कार्य प्रारंभ कर दिया है । कर्मठ कार्यकत्ताओं ने तीर्थराज के आस-पास बसे 14 गाँवों में सफाई, शिक्षा, चिकित्सा के साधन उपलब्ध कराने एवं मुख्य स्थानों पर आजीविका के लिए उद्योग चालू करने की योजनाएँ बनाई हैं। उन योजनाओं को क्रियान्वित किए जाने के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं । इन सेवाकार्यों के परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र के आदिवासियों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन आयेगा और वे अवश्य मधुवन और पहाड़ के वातावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने में सहयोगी बनेंगे। केवल वातावरण ही प्रदूषणमुक्त नहीं होगा, किंतु आदिवासियों के हृदय भी प्रदूषणमुक्त बन पायेंगे। उनके मन में यात्रियों के प्रति एवं क्षेत्र प्रबंधकों के प्रति प्रेम व स्नेह के भाव जागेंगे और उनमें घृणा एवं ईर्ष्या के आधार पर आर्थिक लाभ प्राप्त करने के प्रदूषित भाव उत्पन्न नहीं होंगे। सेवायतन के संस्थापक-अध्यक्ष श्री एम० पी० अजमेरा के सक्षम नेतृत्व में अनेक उपयोगी योजनाओं के द्रुत क्रियान्वयन में कोई संदेह नहीं रहा गया है। हमें यह देखकर प्रसन्नता है कि सेवायतन की बहुउद्देश्यीय एवं बहु उपयोगी योजनाओं को सभी ओर से सराहना प्राप्त हो रही है और आश्चर्यजनक रूप से स्व-प्रेरित पर्याप्त आर्थिक सहयोग प्राप्त हो रहा है। हमें विश्वास है कि नवोदित संस्था सेवायतन अपने नाम को सार्थक करते हुए तीर्थराज को शीघ्र ही प्रदूषणमुक्त एवं वहाँ के मूल निवासियों को व्यसनमुक्त कर पाने में तथा उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने में आशातीत प्रशंसनीय परिणाम प्राप्त करने में सफल होगी। मूलचंद लुहाड़िया अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सुख कहाँ है ? नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ॥ यह जीव जिस वस्तु को पहले रुचिपूर्वक सुनता है, उसका रसास्वादन करता है, पीछे उसे छोड़ देता है। तद्विषयक राग के निकल जाने पर किसी वस्तु को छोड़ना कठिन नहीं है। बड़े-बड़े राजा महाराजा पहले जिन वस्तुओं के एकत्रित करने में पूर्ण शक्ति लगा देते हैं, पीछे विरक्ति होने पर उन्हें जीर्ण तृण के समान छोड़ दे 1 इस जीव ने वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं किया, इसीलिये इसके कल्याण का मार्ग खुला नहीं है। जीव का स्वभाव है कि वह अन्तरङ्ग से सुख को चाहता है और दुःख से भयभीत होता है। जिसे सुख की चाह और दुःख से भयभीतपना नहीं है, वह अजीव की कोटि में आता है। हमारे भाषण को माईक बड़ी तत्परता से सुनता है, यह हमारा प्रथम श्रोता है। आप दूरवर्ती होने से बाद के श्रोता है, परन्तु शब्दों के ग्रहण करने मात्र से यह जीव नहीं हो गया। क्योंकि इसे सुख की चाह और दुःख से भयभीतपना नहीं है। यह शब्द को ग्रहण करके अपने पास नहीं रखता। जिस मानव को स्वहित की इच्छा होती है, वह उस ओर प्रयत्न करता है। पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है- 'कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठ: प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सु' कोई निकट संसारी प्रज्ञावान् भव्यप्राणी आत्महित की चाह करता हुआ निर्ग्रन्थ आचार्य से विनयपूर्वक पूछता है- भगवन्! आत्मा के लिये हितकारी क्या है? आचार्य उत्तर देते हैं- 'मोक्ष इति, मोक्ष ही हितकारी है, जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहें दुखतें भयवंत।' तीन लोक में जितने जीव हैं, सब सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। इतना होने पर भी यह जीव सुख कहाँ है? इसका निर्णय नहीं कर सका है। षट्कारकों में अधिकरण कारक बढ़ा महत्त्वपूर्ण है । सुख का अधिकरण आत्मा है। आत्मा में ही उसका आवास है । भोगोपभोग के पदार्थों में मात्र आभास सुख आत्मा का अनुजीवी गुण है। वह जब भी प्रगट होगा तब आत्मा में होगा अन्य पदार्थों में नहीं । अज्ञानी । आचार्य श्री विद्यासागर जी प्राणी उस सुख को आत्मा में न खोजकर अन्यत्र खोजता है । 1 एक किसान ने खेत में कुआँ खुदवाना चाहा । किसी ज्योतिषी से उसने पूछा कि महाराज ! आप बताइये कुआँ कहाँ खुदवावें, पानी निकलेगा या नहीं? ज्योतिषी ने कहा मैं बता सकता हूँ छत्तीस फुट पर पानी है परन्तु पाँच हजार रुपये लूँगा । किसान मंजूर हो गया । उसने पाँच हजार रुपये ज्योतिषी को दे दिये । ज्योतिषी ने तन्त्र-मन्त्र कर स्थान बतला दिया अपने खेत के दक्षिण दिशा में कुआँ खोदो । परन्तु किसान ने उस स्थान पर कुआँ न खोदकर दक्षिण दिशा के कोण में कुआँ खोदा | पानी नहीं निकला, तो ज्योतिषी को उलाहना देने गयामहाराज! आपने पाँच हजार रुपये ले लिये, परन्तु पानी निकला नहीं । ज्योतिषी ने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता । किसान बोला- महाराज चलकर देख लो। महाराज ने जाकर देखा तो कहा भाई, हमने जहाँ बतलाया था वहाँ तुमने कहाँ खोदा । वहाँ खोदो तो पानी मिले। विवश हो किसान ने वहाँ पर खोदा, तो पानी का अथाह स्रोत निकल आया। यह तो दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि सुख का अधिकरण आत्मा है, भोगोपभोग पदार्थ नहीं, अतः उन्हें छोड़ आत्मा में, उसकी खोज जिसने की है वह अवश्य ही सुख को प्राप्त हुआ है । परन्तु उसके फल से वंचि रहता है- पदार्थ ज्ञान के फल से वह दूर रहता है । वीरसेन स्वामी ने लिखा है 'णाणस्स फलमुवेक्खा', अर्थात् ज्ञान का फल उपेक्षा है । उपेक्षा का अर्थ होता है रागद्वेष की अनुत्पत्ति । पदार्थ को जानना तो आत्मा का स्वभाव है, परन्तु उसमें रागद्वेष करना स्वभाव नहीं है। इस गलती को यह जीव अनादिकाल से करता चला जा रहा है और जब तक करता चला जायगा, तब तक ज्ञान के फल को प्राप्त नहीं कर सकता । हाँ तो मैं कह रहा था सुख का आवास आत्मा में है, भोग सामग्री में नहीं। एक व्यक्ति नौकरी का काम करता था। रोज तो दाल रोटी खाता था, पर एक दिन पत्नी से बोला कि अब तो अपने पास पैसे इक्ट्ठे हो गये हैं, इसलिये कुछ अच्छे व्यंजन बनाये जावें । पति की इच्छा देख, पत्नी ने बढ़िया रसगुल्ला बनाये । ताजे अक्टूबर 2008 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताजे रसगुल्ला वह खाना ही चाहता था कि डाकिया | पढ़ते हुए मुनिराज को देखा - वे पढ़ रहे थे 'जल (पोस्टमैन) आकर कहता है बाबू ! आपका तार है । पत्नी ने तार लेकर पति के हाथ में दिया। पति ने तार खोला तो उसमें देखा कि पिता जी सीरियस हैं जल्दी आओ, तार पढ़ते ही वह रसगुल्ला खाना भूल गया। थाली पर बैठा था इसलिए खाये तो सही, परन्तु उनमें रस नहीं था, स्वाद नहीं था, जरा विचार कर देखो वह रसानुभूति आत्मा की थी या रसगुल्ला की । रस का आनन्द का आवास आत्मा में था रसगुल्ला में नहीं । एक गरीब आदमी बाजरे की रोटी खा रहा था, डाकिया कहता है बाबूजी आपका मनिआर्डर आया है। मनिआर्डर की बात सुनकर प्रफुल्लच चित्त हो गया। बाजरा की रोटी भी उसे अच्छी लगने लगी। क्यों? मनोवृत्ति बदल गयी, न रसगुल्ला में सुख का आवास था और न बाजरा की रोटी में दुःख का निवास था । सुख और दुःख तो आत्मा में थे। वहीं उनकी खोज करना अच्छा है । जिस प्रकार मलमा हटाये बिना पानी का स्त्रोत नहीं मिलता उसी प्रकार विकारीभाव रूप मलमा हटाये बिना सहज सुख का स्त्रोत नहीं मिल सकता है। पानी के स्त्रोत बाहर से थोडे ही आते है जमीन के अन्दर ही रहते हैं परन्तु मलमा से तिरोहित है, मलमा हटाये बिना उनका पाना कठिन है। इसी तरह सहज - सुख आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त है, परन्तु रागद्वेष का मलपा उसके ऊपर पड़ा हुआ है। उसे अलग करने की बात है । ज्यों जिय तन मेला, पर भिन्न-भिन्न नहीं मेला' मुनिराज की सौम्य मुद्रा देख वह निश्चल हो गया, पता चलाकर साले साहब उसके पास पहुँचे। उन्हें लगा कही इन्हें भूत तो नहीं लग गये जो चुपचाप खड़े है। बहुत कुछ कहा चलिये भोजन करें परन्तु उसकी ओर से कोई उत्तर नहीं । व्यङग्य कसते साले ने कहा कि क्या मुनि बनना चाहते हो? उसने कहा- मन तो यही कह रहा है। साले को बहनोई की मनोगति का आभास नहीं हुआ । इसलिए उसने कहा अच्छा आप मुनि बन जावें तो मैं भी बन जाऊँ। बहनोई मुनि बन गया, बहू ने सुना तो वह कहता है कि मैं तो पहले ही आर्यिका बनना चाहती थी। परन्तु पिता और भाई ने बलात् गृहस्थी के चक्र में फँसा दिया था, अब मुझे इस चक्र से छुटने का अवसर अनायास मिल गया। तात्पर्य यह है कि यह आर्यिका हो गई और अगत्या साले के मन में भी मोड़ आया अतः वह भी मुनि बन गया। घर पर जब समाचार पहुँचा तब सारा कारोबार ठण्डा पड़ गया। 'बीज राख फल भीग वे ज्यों किसान जग माँहि, जिस प्रकार किसान बीज की रक्षा करके ही उसके फलका उपभोग करता है बीज को खाकर नहीं, इसी प्रकार ज्ञानी जीव धर्मभाव को सुरक्षित रखकर ही उसका फल भोगता है।' उसे नष्ट कर नहीं। परिणामों की गति बड़ी विचित्र है । पद्यपुराण में एक कथा आती है उदयसुन्दर की। वह बड़ा सुन्दर शरीर वाला था। विवाह हुआ, बहू घर आयी । उपरान्त बहू का भाई बहिन को आया, परन्तु उसने भेजने को मना कर दिया, माता ने समझाया, पिता ने समझाया पर वह अपनी हठ पर कायम रहा। नहीं भेजूँगा । बहू के भाई को एक युक्ति सूझी उसने कहा कि आप भी हमारे साथ चलिये, साथ चलने की बात सुनकर बहू को भेजने के लिए तैयार हो गया, बहनोई, साला ओर बहू चले । मार्ग में एक वन खण्ड में भ्रमण करते-करते बहनोई ने एक वृक्ष के नीचे बारह भावना अक्टूबर 2008 जिनभाषित 4 बहुत ही वैराग्यवर्धक कथा है। सम्यग्दृष्टि जीव के अन्तस्तल में वैराग्य का भाव सदा विद्यमान रहता है । न जाने यह कब प्रस्फुटित हो जावे। अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है सम्यग्दष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात् सर्वतो रागयोगात् ॥ सम्यग्दृष्टि में नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है क्योंकि यह स्वकीय वस्तुपने को प्राप्त करने के लिए सदा उद्यत रहता है। उसे प्राप्त करने के लिए वह निजकी प्राप्ति और पर का परित्याग करता है । स्वकीय वस्तुत्व को प्राप्त करने का यह एक साधन है। वह परमार्थ से इस संयोग दशा में स्व और पर को जानकर स्व में अपने ज्ञायक स्वभाव में स्थित होकर बैठता है और पर जो रागभाव है उससे सर्वथा विरत होता है । इस भूतार्थ को समझे बिना किसी का भूत उतरता नहीं है। भूत- एवंभूत, ऐसा है आत्मा का स्वरूप। ऐसा जाने बिना किसी का भूत, पर में निजत्व बुद्धि का भाव दूर नहीं होता । आज भूतार्थ की चर्चा करनेवालों का भी यह भूत उतरता नहीं है। कहा है “आत्मनि इति अध्यात्म", आत्मा में ही जो हो वह अध्यात्म है । अध्यात्म Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र चर्चा का विषय नहीं है। चर्चा का विषय है, उसे | परभाव-रागादिक विकारी भावों से भिन्न, स्वकीय जीवन में आत्मसात् करने की आवश्यकता है।" | गुणपर्यायों से अभिन्न, अनादि-अनन्त तथा संकल्प और जीव की जब अनादिकालीन ममता जावे, तभी | | विकल्पों के जाल से च्युत आत्मस्वभाव को प्रकट करता समता आती है। पर में ममेदंभाव होना ममता है। जब हुआ शुद्धनय प्रगट होता है। इस शुद्धनय का अवलम्बन तक उसका अभाव नहीं किया जाता, तब तक समता- । लेकर आत्मस्वभाव की ओर जरा झाँको तो सही, ममता माध्यस्थवृत्ति का होना असम्भव है। इस समता को प्राप्त रहती है या चली जाती है? तात्पर्य यह है कि सुख करने का उपाय भी अमृतचन्द्राचार्य ने बतलाया है- | की यदि चाह है, तो जहाँ सुख है, वहाँ खोजो। अवश्य आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्। | ही उसकी उपलब्धि होगी। विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन्शुद्धनयोऽभ्युदेति॥। भगवान् महवीर स्वामी की जय 'सागर में विद्यासागर' से साभार समाचार “सरिता" पत्रिका ने माफी माँगी के बारह छात्रों ने इस वर्ष की लिखित परीक्षा में सफलता ललितपुर। दिल्ली प्रेस की प्रमुख हिन्दी पाक्षिक | प्राप्त की है और अब वे साक्षात्कार की तैयारी कर पत्रिका 'सरिता' ने अपने जुलाई (प्रथम) २००८ के अंक रहें हैं। में 'बावनगजा में हुआ अभिषेक आपत्तियाँ और उत्तर' सुरेश जैन शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में पूज्य उपाध्याय श्री ३०, निशात कॉलोनी, भोपाल १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के फोटो के अनावश्यक एक महत्त्वपूर्ण सुधार रूप से प्रकाशन पर बेहद खेद प्रकट किया है। यह प्रातः स्मरणीय सन्त शिरोमणि आचार्य श्री १०८ संभव हुआ है दिल्ली के विश्व जैनसंगठन की सक्रियता | विद्यासागर जी महाराज के जन्म के बारे में कुछ भ्रान्तियाँ सगठन क साक्रय कायकता श्री सजय जन के अनुसार | फैली हई हैं। जब उनके गृहस्थ अवस्था के भाई आदरणीय संगठन ने इसका दिल्ली में तीव्र विरोध किया तथा दिल्ली | श्रीमान महावीर जी मल्लप्पा अष्टगे जी से अभी ज्ञानोदय प्रेस कार्यालय के सामने धरना प्रदर्शन किया तथा अनेक | तीर्थ पर बात हुई तो उनसे जो सही जानकारी मिली, विरोध पत्र भिजवाये। 'सरिता' के जुलाई (प्रथम) २००८ | वह सभी को ज्ञात हो, इस बाबत यहाँ पर दी जा रही के अंक में विश्व जैनसंगठन के विरोधपत्र मिलने के बाद ही खेद प्रकट करने की बात पत्रिका ने लिखी माँ का नाम - श्रीमती मल्लप्पा अष्टगे है, लेकिन दुख है कि रिपोर्ट में प्रकाशित अन्य आपत्तियों ___ माँ का जन्म स्थान - अक्कोड़ ग्राम पर खेद प्रकट करने से पत्रिका ने इंकार कर दिया है। तह. चिक्कोड़ नेन 'संचय' शास्त्री जिला- बेलगाम आई.ए.एस. में चयनित आशिमा को बधाई पिता श्री मल्लप्पा जी श्री एन.के. जैन अभियंता एवं श्रीमती वनिता जैन. का जन्म स्थान - सद्लगा, जिला-बेलगाम (नई दिल्ली) की बेटी आशिमा जैन का इस वर्ष संघ विद्याधर (विद्यासागर) लोकसेवा आयोग द्वारा आई.ए.एस. में चयन किया गया जी का जन्म स्थान - ग्राम-सद्लगा है। उन्होंने पहले ही प्रयास में यह सफलता प्राप्त की तहसील-चिक्कोड, है। निश्चित ही उनकी यह सफलता सराहनीय एवं जिला-बेलगाम अनुकरणीय है। जैन इण्टरनेशनल ट्रेड आर्गेनाईजेशन, | बड़े भाई श्री महावीर जी का फोन- 08338262244 मुम्बई द्वारा नई दिल्ली में स्थापित छात्रावास में लोक सुशीला पाटनी सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में बैठनेवाले छात्रों आर.के. हाउस, मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) को सभी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। इस छात्रावास | सनील जैन अक्टूबर 2008 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक स्वतंत्रता की आवश्यकता मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी प्रतिवर्ष १५ अगस्त को हमारे देश में स्वतंत्रता । जो भी नेता राजगद्दी पर बैठते हैं, उनमें से दिवस मनाया जाता है, लेकिन जब हम अपने देश की अधिकांश अपने हाथ काले करके ही लौटते हैं। यह दशा (दुर्दशा) देखते हैं, तो प्रतीत होता है कि हम मात्र | कोयले की दलाली नहीं है, फिर हाथ काले क्यों? इनमें राजनैतिक दृष्टि से स्वतंत्र हुए हैं, अभी हमें व्यापक | से अनेक के हाथ दूसरे निर्दोषों के खून से लाल हुए अर्थों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता हासिल करना है, जो हमें हमारे | होते हैं। अपने से कमजोर को पैरों से रौंदना इनके लिए जीवन की स्वतंत्रता उपलब्ध करायेगी। राजनैतिक | रोजमर्रा की बात है। देश का खजाना खाली होता रहता स्वतंत्रता मात्र भौतिक या भौमिक अस्तित्व को स्वीकार | है, गरीब और गरीब होते जाते हैं और अमीर दिन दूने करने में, बॉर्डर लाइन (विभाजन रेखा) तय करने में | रात चौगुने बढ़ते जाते हैं। यह दुर्दशा देखकर ही एक प्राप्त हो जाती है। तदनुसार कुर्सी की सत्ता भी मिल | व्यक्ति ने कहा है कि आज देश को दुश्मनों से नहीं जाती है, किन्तु इसके साथ ही सत्ता का मद भी आसमान | देश के रहनुमाओं से खतरा है। आज देश के खजाने में उड़ते हुए झण्डे की तरह बढ़ जाता है। सत्तासीन को चोरों से नहीं, पहरेदारों से खतरा है। आज धर्म को व्यक्ति अहंकारी हो जाता है। यहीं प्रतीत होता कि हमारा | नास्तिकों से नहीं, धर्म के माननेवाले तथाकथित ठेकेदारों देश स्वतंत्र नहीं हुआ है, हम स्वतंत्र नहीं हुए हैं, बल्कि | से खतरा है। बड़ी विडम्बना हो गयी है कि हम स्वतंत्र हमारी कुर्सी स्वतंत्र हुई है। राजगद्दी स्वतंत्र हुई है। देश में रहते हुए भी अपने को परतंत्र जैसा अनुभव हमारा तंत्र स्वतंत्र हुआ है, किन्तु हमें स्वतंत्र होना अभी | करते हैं। बाकी है। यदि हमें स्वतंत्रता मिली होती, तो फिर अपने | साहित्यजगत् में दो प्रकार के साँपों की चर्चा होती* ही सत्तासीनों के प्रति आपातकाल में यह नारा क्यों लगाना | है- एक वे जो बामी (बिल) में रहते हैं और दूसरे पड़ता कि- 'कुर्सी खाली करो कि जनता आती है।' | वे जो आस्तीनों में पलते हैं। बामी के साँप से उतना आज संपूर्ण देश और राज्यों में स्वतंत्रता के नाम | खतरा नहीं है, क्योंकि हमें पता होता है कि यह बामी पर स्वच्छंदता का साम्राज्य है, लोग बेखटके स्वतंत्रता | है, तो इसमें जरूर साँप होगा। इसलिए हम उससे सतर्क का गाल घोंट रहे हैं। राजगद्दी के लिए संघर्ष तो सदा रहते हैं, दूर रहते हैं और उससे बचते हैं, किन्तु जब से चलता आया है, अभी चल रहा है और आगे भी | कोई आस्तीन का साँप बन जाये, तो उससे कैसे बचें? चलेगा, किन्तु इंच-इंच जमीन और बूंद-बूंद पानी के | उसका तो पता ही नहीं होता कि वह अपनी ही आस्तीन लिए जो संघर्ष अपनों का अपनों के साथ होता है उसे | | में पल रहा है और जहाँ पल रहा है उसी को काटने देखकर हम क्या, कोई भी नहीं कह सकता कि हम | की तैयारी कर रहा है। ऐसे साँप से बचना बहुत कठिन वास्तविक रूप में स्वतंत्र हैं। है। आज देश में यही हो रहा है। अंग्रेजों के समय का इतिहास उठाकर देखिये और | अंग्रेज बामी के साँप थे, मंगोल बामी के साँप आज का शासन देखिये? भ्रष्टाचार, घोटाले, रिश्वतखोरी, | थे, मुगल बामी के साँप थे, पाश्चात्य विचारधारायें बामी मिलावट की बातें किनके राज्य में अधिक हो रही हैं? | के साँप थी, इसलिए उनसे बचने का प्रयास करते थे हमारा शासन है और हमीं परेशान हैं। जिनके पास राजगद्दी | और उन्हें अपने देश से निकाल कर ही दम लिया, है, वे उन्हें चुननेवाली जनता के साथ गुलामों जैसा व्यवहार | किन्तु हमारे देश के ही तथकथित सत्ताधारी जन, नेता हैं। जिन्हें अपने को सेवक मानना चाहिए था, वे तो हमारी ही आस्तीनों के साँप सिद्ध हो रहे हैं, हम राजा बन बैठे हैं और बड़ी चतुराई से इसे राजतंत्र नहीं | इनसे बचें भी तो कैसे? क्योंकि हम भी अपने को भारतीय बल्कि जनतंत्र कहते हैं। यह स्वतंत्रता की आड़ में | मानते हैं और वे भी अपने को भारतीय बताते हैं। यहाँ स्वच्छंदता नहीं, तो और क्या है? तक कि वे अपने लिए अधिक भारतीय होने की घोषणा करते हैं। हम लोगों ने ही उन्हें अपने क्षेत्र से. अपने 6 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोट से चुनकर भेजा है। अब जब कि वह कह रहे । कितने लोग राजा से रंक और ईमानदार से बेईमान बन हैं कि मैं सच्चा भारतीय हूँ और इसी के साथ दूसरे | चुके हैं, इसका कोई विचार ही नहीं करता। भारतीयों का शोषण कर रहा है, विनाश कर रहा है, आज हम आजाद हैं। हमारा देश आजाद है, हमारे तो हम अपना बचाव कैसे करें? यदि हम विकल्प पर देश में प्रजातंत्र है। सारे लोग स्वतंत्रता का गुणानुवाद विचार करते हैं, तो बड़ी मुश्किल से कोई अच्छी छविवाला कर रहे हैं। गुणानुवाद करना भी चाहिए। इसी के साथ व्यक्ति मिलता है और ज्यों ही हम उसे चुनकर नेता ज्यों ही १५ अगस्त-स्वतंत्रता दिवस आता है त्यों ही बनाकर संसद या विधान सभा में भेजते हैं कि कुछ | लोग मुगलों, अंग्रेजों की निन्दा करना प्रारंभ कर देते ही दिनों में वह हमारे साथ अपरिचितों जैसा व्यवहार | हैं, किन्तु यह विचार क्यों नहीं आता कि आज जो स्वतंत्र करने लगता है और कल तक जिसे हम अच्छा मान | देश में स्वतंत्र घूम रहे हैं और जिनके कारनामें मुगलों, रहे थे, जो हमारे लिए आदर्श था, जब उसकी सीबीआई अंग्रेजों से भी बुरे और बद से बदतर हैं, उनकी हम जाँच होती है तो आस्तीन का साँप वही निकलता है। | निन्दा करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते? क्यों उनसे सब से ज्यादा खतरनाक वही सिद्ध होता है। ऐसा कौन | सार्वजनिक रूप से इस्तीफे की माँग नहीं कर पाते? व्यक्ति है, जो राज्य सत्ता का स्वाद चख चुका हो और | आज के सच्चे समाजसेवी कब कल के आतंकवादी अपनी हथेलियों को दूध से धुला बता दे? कोई भी | बन जायेंगे, यह कोई नहीं कह सकता। आज हिंसक, नहीं, सारी की सारी हथेलियाँ या, तो दूसरों के खून | बलात्कारी, चोर, रिश्वतखोर, हत्यारे अनेक नेतागण सिद्ध से लाल हैं, या काले धन या काले कारनामों से काली | हो चुके हैं। कानून से उन्हें सजा मिल चुकी है, किन्तु हैं। यह अलग बात है कि ऊपर से भले ही सुर्ख मेंहदी | कानूनी बारीकियों का सहारा लेकर ही वे बेखौफ घूम लगा रखी हो। रहे हैं। यह स्वतंत्र देश की कैसी न्यायव्यवस्था है? यहाँ मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि इस भौतिक हमारा भारत अध्यात्मप्रधान देश है। यही कारण सत्ता में ऐसा क्या आकर्षण है, जिसके के लिए व्यक्ति | है कि वह पाश्चात्य देशों से अलग दिखाई देता है, किसी का भी खून कर देता है और उसी खून की | किन्तु इस देश में एक आध्यात्मिक साधु को स्वतंत्रताहोली खेल कर अपने आपको पाक-साफ सिद्ध करता | दिवस पर भी कोई ध्वजारोहण के लिए आमंत्रित नहीं है? कभी-कभी तो जो हत्यारा है वही नेता, जिसकी | करेगा। आखिर क्यों? साधु भी तो एक बहुत बड़ी शक्ति हत्या हुई है, उसके परिवार में जाकर घड़ियाली आँसू | है और इन नेताओं को इनसे भी खतरा नजर आता बहाता है, सांत्वना देता है, जाँच और न्याय की बात | है। वे तो यही चाहते हैं कि साधु उनके लिए कुर्सी करता है, टी.वी. पर बयान देता है कि दोषियों को बख्शा | उपलब्ध कराने का साधन बनें। अरे. जब वे भगवान नहीं जायेगा। कैसे कर लेते हैं यह सब अभिनय? क्या को भी नहीं छोड़ते, तो भक्तों को कैसे छोड़ेंगे? आज इनकी आत्मा इन्हें धिक्कारती नहीं है? इन्होंने राजनीति | के राजनेताओं में यह आदर्श है ही नहीं, जो राम और के सेवाधर्म को खून का दरिया बना दिया है और स्वयं, भरत के समय में था कि लो यह गद्दी, इस पर आप तो इसमें तैर ही रहे हैं और चाहते हैं कि दूसरे लोग | बैठो, नहीं इस पर आप बैठो, आज, तो जो जहाँ जिस भी इसमें तैरें, इनका अनुकरण करें। यह अपने आप | कुर्सी पर बैठ जाता है, वहाँ से उतरने का नाम ही को बहुत बड़ा उपकारी, परोपकारी मानते हैं कि देश | नहीं लेता। जब तक यह प्रवृत्ति बनी हुई है, तब तक बड़ा उपकार कर रहा हूँ। देश की बहुत | कोई भी स्वतंत्रता हमारे जीवन में कार्यकारी नहीं बन बड़ी सेवा कर रहा हूँ और इनकी तथाकथित सेवा से | सकती। 'पार्श्वज्योति' जुलाई-अगस्त 2008 से साभार रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय। राग सुनत पय-पियत हूँ, साँप सहज धरि खाय॥ रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीत। काटे चाटे श्वान के, दुहूँ भाँति विपरीत ॥ - अक्टूबर 2008 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ही भाव से दो कार्य कैसे? मुनि श्री प्रमाणसागर जी शुभोपयोग के विषय में प्रायः यह प्रश्न उठाया । है। यही बात आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में कही है। जाता है कि एक ही भाव से दो कार्य कैसे हो सकते दर्शनपाहुड़ में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने एक ही हैं? शुभोपयोग रागभाव है, रागभाव बन्धन का कारण | भाव से दोनों कार्यों के होने का कथन किया हैहै। जो भाव बन्धन का कारण है, वह मोक्ष का कारण | सेयासेयविदण्हू उद्बुददुस्सील सीलवंतो वि। नहीं हो सकता। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहई णिव्वाणं॥ १६॥ आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इस प्रश्न का समाधान दर्शनपाहुड़ मूलक विवचेन करते हुए कहा है कि अर्थ- श्रेय और अश्रेय को जाननेवाला मिथ्यात्व ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्ति- | को नष्ट करके शीलवान् हो जाता है। शील के फलस्वरूप हेतत्वाभ्युपगमात्। तत् कथम् निर्जराङ्गं स्यादिति ? नैष । अभ्युदय सुख को पाकर फिर मोक्ष सुख पाता है। दोषः, एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत्। यथाग्निरेकोपि पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने एक ही विक्लेदनभस्मांगारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्यु- | रत्नत्रय से बन्ध और मोक्ष रूप दोनों कार्यों का विधान दयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः। सवार्थसिद्धि/पृ. ३२१। | किया है अर्थ- तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट | दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोऽति सेविदव्वाणि। है, क्योंकि वह देवेन्द्रादि स्थान-विशेष की प्राप्ति के हेतु | साघूहि इदं भणिदं तेहिं दु बन्धो व मोक्खो वा ॥ १६४ ॥ रूप से स्वीकार किया गया है, अर्थात् तप को पुण्य अर्थ- दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता मोक्षमार्ग बन्ध का कारण माना गया है, इसलिए वह निर्जरा का | है, इसलिए वे सेवन करने योग्य हैं, ऐसा साधुओं ने कारण कैसे हो सकता है? यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि | कहा है, परन्तु उनसे बन्ध भी होता है और मोक्ष भी। अग्नि एक है, तथापि उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी एक ही भाव के आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं, वैसे ही तप अभ्युदय | द्वारा बन्ध और मोक्ष दोनों कार्यों का विधान किया हैऔर कर्मक्षय (मोक्ष) इन दोनों का कारण है। ऐसा मानने “अरिहंतगमोक्कारो संपहिय बंधादो असंखेजगुण में क्या विरोध है? कम्मक्खयकारओत्ति तत्थवि मणीणं पवत्तिपसंगादो॥" स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर यह जयधवला १/९। स्पष्ट लिखा है कि एक ही भाव से मोक्ष और पुण्य अर्थ- अरिहन्तनमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा बन्ध रूप सांसारिक सुख दोनों मिल सकते हैं। देखें अससंख्यातगुणी कर्म-निर्जरा का कारण है। उसमें भी निम्न प्रमाण मुनियों की प्रवृत्ति होती है। जिणवरमएण जोई झाणे झाएड सद्धमप्याणं। आचार्य वीरसेन स्वामी यह भी कहते हैं कि रत्नत्रय जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥ २०॥ | स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है-- जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं। स्वर्गापवर्गमार्गत्वाद्रत्नत्रयं प्रवरः स उच्यते निरूसो किं कोसद्धं पि ह ण सक्कए जाहु भुवणयले॥ २१॥ । प्यते अनेनेति प्रवरवादः। धवला १३/२८७ । मोक्षपाहुड़ अर्थ- स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग होने से रत्नत्रय अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् के मत से योगी शुद्ध आत्मा | का नाम प्रवर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा का ध्यान करता है, जिससे वह मोक्ष जाता है, उसी किया जाता है, इसलिए इस आगम का नाम प्रवरवाद आत्मध्यान से क्या वह स्वर्गलोक प्राप्त नहीं कर सकता? | है। यहाँ रत्नत्रय को मोक्ष और स्वर्ग दोनों का कारण अर्थात् अवश्य प्राप्त कर सकता है। जैसे, जो पुरुष भारी | कहा है। बोझ लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है, वही पुरुष इसी प्रकार अनेक प्रसंगों में आचार्यों ने एक ही क्या भूमि पर आधा कोस भी नहीं चल सकता? अर्थात् | भाव से बन्ध और मोक्ष रूप दोनों कार्यों का सद्भाव सरलता से चल सकता है। तात्पर्य यह है कि जिस स्वीकार किया है। अतः हमें शुभोपयोग को पुण्यबन्ध के आत्मध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसी आत्मध्यान साथ परम्परा से मोक्ष का कारण मानना चाहिए। से पुण्यबन्ध होकर उसके फलस्वरूप स्वर्ग में देव होता । ___ 'जैनतत्त्वविद्या' से साभार 8 अक्टूबर 2008 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र-दर्शन एवं पूजन की विशेषता पं० सदासुखदास जी काशलीवाल प्रश्न- अरहन्त की प्रतिमा किसलिए पूजते हैं?। प्रकृतियों में रस सूख जाता है, तब समस्त दुःख नष्ट अरहन्त भगवान् तो मोक्ष गये, सिद्धशिला स्थान पर हैं। हो जाते है, और सुख की कारण जो पुण्य-प्रकृतियाँ धात-पाषाण के प्रतिबिम्ब में तो वे आते ही नहीं हैं, हैं उनका रस बढ़ जाता है, तब स्वर्ग आदि का सुख, वे अपनी पूजा कराना नहीं चाहते, किसी का उपकार- | राज्य सम्पदा, भोगादिक अपने आप ही प्रकट हो जाते अपकार वे करते नहीं हैं, पूजन, स्तवन, अभिषेक हैं। यद्यपि भगवान् अरहन्त धातु-पाषाण के बिम्ब में आते करनेवालों से राग नहीं करते। फिर उन्हें किसलिए पूजते | नहीं हैं और वे वीतराग भगवान् किसी का उपकारहैं? किसलिए पूजना चाहिए? अपकार भी नहीं करते हैं, तथापि उनका नामस्मरण तथा उत्तर- गृहस्थ ने आरम्भ-परिग्रह धारण कर रखा | प्रतिबिम्ब का दर्शन अपने शुभ परिणाम, वीतरागरूप ध्यान है। उसका मन शुद्धात्मस्वरूप के अवलम्बन में तो लगता | होने को बाह्य निमित्त है। जिस प्रकार रागरूप स्त्री-पुरुषों नहीं है और बिना अवलम्बन के चित्त ठहरता नहीं है, के अचेतन चित्र आदि देखने से राग प्रगट हो जाता तब अपने परमात्मभाव के अवलम्बन के लिए, वीतरागता | है, उसी प्रकार वीतरागी का प्रतिबिम्ब भक्ति-पूर्वक देखने से परिणाम जोड़ने के लिए प्रतिमा में साक्षात् अरहन्त | से वीतरागता प्रगट हो जाती है। के स्वरूप का संकल्प करके ध्यान, स्तवन, पूजन करता इस संसार में जीवों को जो राग-द्वेष होता है, है। उस अरहन्त के स्वरूप में अपने परिणाम जोडने | वह समस्त केवल-अचेतन, स्वर्ण-चाँदी, मणि-माणिक्य, से, उस काल में समस्त सांसारिक संकल्प रुक जाते | महल, वन, बाग, नगर-ग्राम, पाषाण-कर्दम-श्मशान, मात्मस्वरूप का अनभव होता है। उस | मनुष्य-तिर्यंचों के शरीर, वचन-राग-रुदन, दुर्गन्धपरमात्मस्वरूप में एकाग्रता होने से सुख-ज्ञानरूप सम्पदा | सुगन्ध, रस-विरस इत्यादि समस्त अचेतन पुद्गल द्रव्यों में विघ्न करनेवाले अन्तराय-कर्म का अनुभाग रस सूख क विन्तवन, श्रवण, अवलोकन और अनुभवन से ही जाता है, तथा वीतरागभाव के प्रसाद से असातावेदनीय | होता है। से लेकर समस्त अशुभ प्रकृतियाँ जो पहिले बाँधी हुई | जैसे ये समस्त ही अचेतन पदार्थ आत्मा को रागसत्ता में बैठी थीं, उनका भी अनुभागरस नष्ट हो जाता द्वेष उत्पन्न कराने के सहकारी कारण हैं, वैसे ही जिनेन्द्र है। तथा जो पूर्व की बाँधी हुई पुण्य प्रकृतियाँ हैं, उनमें | की परमशान्तमुद्रा ज्ञानियों के वीतरागता होने में सहकारी अनुभागरस बढ़ जाता है। मन्द कषाय के प्रभाव से शुभ कारण है, प्रेरक नहीं। भव्यजीवों को वीतरागता के सिवाय आयुकर्म के सिवाय समस्त कर्म-प्रकृतियों की स्थिति | अन्य किसी की चाह होती नहीं है। घट जाती है। ऐसी भगवान् की आज्ञा सिद्धान्तग्रन्थों में | जो जिनेन्द्र की प्रतिमा के आगे थाली में जलप्रसिद्ध है। चन्दनादि अष्टद्रव्य महिमा गाकर चढ़ाते हैं, उनका ___मन्द कषाय के प्रभाव से पूर्व के बाँधे हुए शुभ अभिप्राय ऐसा नहीं है कि भगवान् यह द्रव्य खा लेवें कर्मों में रस बढ़ जाता है, तथा अशुभ कर्मों का रस | या उसकी वासना-स्वाद लेवें। उनका भाव तो ऐसा है सख जाता है, घट जाता है और आयकर्म को छोडकर कि जैसे किसी बड़े मण्डलेश्वर राजा का समागम मिलन समस्त कर्मप्रकृतियों की स्थिति घट जाती है। तीव्र कषाय हो, तब उनके ऊपर स्वर्ण-रतन मोती आदि बारकर, के प्रभाव से समस्त कर्मों की पाप प्रकृतियों में अनुभागरस फेरकर क्षेपण कर देते हैं, आरती उतारते हैं, बहुमान बढ़ जाता है, तथा पुण्य प्रकृतियों में रस घट जाता है| करते हुए उन पर अक्षत-पुष्पादि क्षेपण करते हैं। यह और तीन आयु को छोड़कर समस्त कर्मों की स्थिति | सब अपनी भक्ति है, राजा को इससे कुछ लेने-देने का बढ़ जाती है। प्रयोजन नहीं है। उसी प्रकार भव्य जीवों को भक्ति करते अरहन्त भगवान् के गुणों में अनुराग-लीनता ही| हुए त्रैलोक्यनाथ परम मंगलरूप परमेश्वर परमात्मस्वरूप अरहन्त भक्ति है। उसके प्रभाव से दुख की कारण पाप- | भगवान् अरहन्त के प्रतिबिम्ब-प्रतिमा को देखते समय अक्टूबर 2008 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार आजकल के वक्ता भी (असंयमी व्यक्ति) माहौल । करण्डकश्रावकाचार के अंत में लिखा हैको देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। वह | येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्। व्यक्ति तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता, नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।। वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। यह कारिका कितनी अच्छी लगती है ! रत्न कहाँ इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ...! तो उसमें रहती है। मेरे ऊपर तुमने घूघट लाया है, मैं घुघूट में | बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी जीनेवाली नहीं हूँ। मैं तो जन-जन तक पहुँचकर अपना | होती है जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता संदेश देनेवाली हूँ। लेकिन, आजकल कुछ पंक्तियाँ तो | है। उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है, और अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियाँ अण्डर | उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या ग्राउण्ड की जाती हैं। यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य | हरा, उस हीरे के विपरीत रंगवाला ही होता है, वह का प्रदर्शन है? नहीं यह इसलिये हो रहा है कि आज | मखमल का कपड़ा है और उ परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है।। हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के यह हुई रत्नों की बात, लेकिन श्रावकाचार किसमें लिए स्थान नहीं बचा। रखा गया है, रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान नौजवानो! उठो !! जागो !! यदि अपना हित चाहते | देने योग्य है कि रत्न-करण्डक का कई भाषाओं में हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने | अनुवाद हुआ लेकिन, 'रत्नकरण्डक' इस शब्द का बाप-दादाओं के आदर्शों को सुरक्षित रखना चाहते हो, | अनुवाद नहीं हुआ। क्या मतलब? मतलब यह है कि तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना।| हिन्दी में इसका अर्थ है 'रयण मंजूषा' रयण का अर्थ यहाँ पर लोभ का सरलीकरण है, यहाँ पर त्याग का | है रत्न, मंजूषा यानि पेटी, सन्दूकची। रत्न जैसे संदूकची . अंगीकरण है। यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है। में रखे होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा नहीं है। आप लोग सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक' कहते हैं अर्थ, तो हाथ का मैल है यूँ-यूँ करने से वह | में रखा है। निकल जाता है (हाथ मलते हये) पुण्य की वह छाया | आचार्य कहते हैं, ये बडी अनमोल निधि है। जो है। पुण्य का उदय हुआ, तो वह आ जाता है और कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने कहा पाप का उदय हुआ, तो वह चला जाता है। आप धार्मिक | है किअनुष्ठान करने के लिये महापुरुष अहर्निश प्रयास करते | इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी। रहते हैं। उस सत्य की झलक पाने के लिये वे अपनी जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई, तो पुन: मिलने आँखें बिल्कुल खोल कर रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द | वाली नहीं है, ऐसी ही मनुष्य जीवन की कीमत है। देव प्रवचनसार में कहते हैं इने -गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं। तीन 'आगमचक्खू होंति साहूणं' । कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं, जो मूलाचार के अनुसार आगम ही साध की आँख है। साधओं की आँख | चलनेवाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है, न तो धन-दौलत है. और न ही ख्याति. पजा, लाभ. लेकिन मनुष्यों में नहीं। अब सोचिये बहत कम संख्या मंजिल तक पहुँचानेवाली आगम की आँख ही है। उस है। अनंतानंत जीवों में से श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ आँख को बहत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिये।। ही जीवों को होता है, जो कि आप लोगों को उपलब्ध उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जायेगा, तो है। ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ। दृश्यमान पदार्थों की जिनवाणी उस समय पिट जायेगी। जिनवाणी का मूल्यांकन कोई कीमत नहीं है, हमें भी दृश्यमान पदार्थों की कीमत समाप्त हो जायेगा। बन्धुओ! यह वह रत्न है, जिसको | नहीं करना, द्रष्टा की कीमत आंकना है। आज हम दृश्य हम कहाँ रख सकते हैं देखो! समन्तभद्र स्वामी ने जो | के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं। यह कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्न- | अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है। हम ज्ञाता, द्रष्टा, 10 सितम्बर 2008 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्यात-गुणश्रेणी-निर्जरा सिद्धार्थकुमार जैन, सतना (म.प्र.) आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र के नवम । कही गयी है। यह निर्जरा मोक्षमार्ग में अपना विशेष स्थान अध्याय में संवर और निर्जरा तत्त्व का वर्णन किया है। रखती है। पहले सूत्र में संवर का लक्षण कहा तथा दूसरे सूत्र में असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा क्या है?- जैसा कि शब्द वह संवर कैसे प्राप्त होगा, इसके कारणों को कहा और से परिलक्षित होता है, असंख्यात गुणी निर्जरा जो श्रेणी तीसरे सूत्र में तपसा निर्जरा च कहकर तप को संवर रूप में बढ़ती जाती है और हर अगले समय में पूर्व और निर्जरा में संयुक्त कारण निरूपित किया। आगे के | समय से असंख्यातगुणे कर्मों की निर्जरा होती जाती है। सूत्रों में क्रम से विस्तार करते हुये 10 धर्म, 12 भावना | इसे एक उदाहरण से समझने पर स्पष्ट हो जायेगा। 22 परीषह का वर्णन किया तथा 19वें सूत्र में बाह्य तप | एक फकीर कुंभ के मेले में हरिद्वार गया और को तथा 20वें सूत्र में अंतरंग तप का वर्णन करते हुये उसने घूमते हुये एक सेठ से एक रुपये भिक्षा की याचना भेद-प्रभेदों को बताया। अन्तिम तप में ध्यान के| की। सेठ ने उससे कहा कि एक रुपया कमाने में मेहनत वर्णन में शुक्लध्यान का वर्णन करने के पश्चात् सूत्र | होती है, मुफ्त में नहीं आता। हम एक रुपये को तो क्रमांक 45 में असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा के पात्रों को | 6 माह में अपनी मेहनत से दुगना कर लेते हैं। फकीर दर्शाया। इससे एक दृष्टि प्राप्त होती है कि आखिर यह । सुनकर मुस्कराया और कहने लगा-- सेठ आप बहत कुशल कौन सी निर्जरा है, इसका कार्य क्या है, कौन-कौन- | व्यापारी हैं अतः एक रुपया मेरा भी आप रख लेवें, से जीव इसे कर सकते हैं, किन-किन कारणों से यह | मैं अपना एक रुपया 12 वर्ष बाद अगले कुंभ पर ले होती है इन्हीं सब बातों पर चिन्तन करने का प्रयत्न | लूँगा और अपना एक रुपया देकर चला गया। समय यहाँ किया जा रहा है। बीता 12 वर्ष बाद फकीर पुनः हरिद्वार पहुँचा। सेठ के निर्जरा क्या है?- आत्मा के साथ संश्लेष संबंध | पास गया और पिछले कुंभ की बात याद दिलाई। सेठ को प्राप्त पुद्गलकर्मों का एक देश आत्मा से झर जाना | ने कहा- ठीक है, अपना हिसाब ले लो। सेठ ने उसे निर्जरा है एवं सम्पूर्ण कर्मों का झर जाना मोक्ष है यह | 10-20 रुपये देकर कहा हिसाब हो गया। फकीर तो सामान्य लक्षण कहा है। निर्जरा 2 प्रकार की बतलाई | अड़ गया कहने लगा- सेठ हिसाब में 10-20 कम दे गई है। यथा-1. सविपाकनिर्जरा 2.अविपाकनिर्जरा। देना, लेकिन हिसाब कर लो। सेठ ने हिसाब जोड़ा, - 1.सविपाकनिर्जरा सभी संसारी जीवों के होती है, तो वह एक रुपया हर 6 माह में दुगुने के अनुसार बिना पुरुषार्थ के ही होती है। पूर्व में बँधा हुआ कर्म | 24 किस्तों में 1 करोड़ 67 लाख 37 हजार 216 रुपये उदय में आता है अपना फल देकर निर्जीण हो जाता | हो गया। सेठ घबड़ा गया। हम आप भी इतनी राशि है यह सविपाक निर्जरा है। सुनकर चौंक गये होंगे। लेकिन नीचे लिखे अनुसार हिसाब 2. अविपाकनिर्जरा-पुरुषार्थपूर्वक उदयसमय के | देखेंपूर्व में कर्मों को उदय में लाकर निर्जरित करना अविपाक | 1 रुपये 6 माह में 2, 1 वर्ष में 4, इसी प्रकार निर्जरा है। इसके आगम में कई उदाहरण दिये गये हैं, हर 6 माह में दुगुने क्रम से 8-16-32-64-128-256जिससे ये दोनों निर्जरा समझीं जा सकती हैं। यथा | 512-1024-2048-4096-8192-16384-32768-65536सविपाकनिर्जरा पेड़ में स्वयं पकने के बाद आम गिरता | 1, 31,072-2,62,144-5, 24,288-10, 48,576-20, है तथा दूसरी कच्चे आम को तोड़कर पाल लगाकर | 97,152-41, 84304-83, 68,608 एवं 24 वीं किस्त भिन्न-भिन्न तरीकों से उसे पकाया जाता है। यही दूसरी | में 12 वर्ष बाद 1,67,37,216 = 00 रुपये हो गये। यह अविपाकनिर्जरा ही मुख्यतः मोक्षमार्ग में कारण है बिना उदाहरण तो दुगने-दगने क्रम का है, इसी क्रम को यदि अविपाकनिर्जरा के मोक्षमार्ग बनता ही नहीं है। इस | हम गुणित क्रम में देखें, तो जो राशि पहले समय में अविपाकनिर्जरा में ही एक निर्जरा 'असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा' | एक है वही दूसरे समय में 4 तीसरे समय में 16 इस अक्टूबर 2008 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम से वृद्धि को प्राप्त होती है यथा- 1-1, 2-2, 3- | अरिहन्त भगवान् 13वें एवं 14वें गुणस्थानवर्ती। इस प्रकार 4,4-16, 5-256, 6-65536,7-4,29,49,67,296 अर्थात् | तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा उत्तरोत्तर विकसित दस पात्र कहे गये सातवें समय मात्र में यह राशि 1 से बढ़कर गुणित क्रम | हैं। में 4 अरब 29 करोड़ 49 लाख 67 हजार दौ सो छियानवे | विशेष- अन्य-अन्य ग्रन्थों में कहीं 11 स्थान भी हो गई। आठवें समय में गुणा करने पर राशि इतनी | कहे गये हैं। शास्त्रसारसमुच्चय की हिन्दी टीका जैनतत्त्वहै कि हम उसे पढ़ भी नहीं पायेंगे। 9 अंक की संख्या विद्या के चौथे अध्याय सूत्र 62 में 11वाँ स्थान केवली हो जायेगी। इस प्रकार हमने द्विगुणित एवं गुणित क्रम | समुद्घात लिया गया है, उस समय पूर्ववर्ती स्थिति से को जाना। इसी बात को असंख्यात गुणित क्रम जानने | अधिक निर्जरा है ऐसा विवरण प्राप्त होता है। षड्खण्डागम के लिये देखें परिशीलन पृष्ठ 39 पर भी धवला की 12वीं पुस्तक पहले समय में निर्जरितकर्म असंख्यात के अनुसार 11 स्थान कहे गये हैं। दूसरे क्रम में अर्थात् दूसरे समय में असंख्यात | कौन-कौन से जीव कितनी निर्जरा कर सकते x असंख्यात हैं- इस बात पर विचार करने के लिये हमें सर्वप्रथम तीसरे समय में दूसरे समय की राशि x असंख्यात | यह जानना होगा कि यह निर्जरा प्रारम्भ कहाँ से होती चौथे समय में तीसरे समय की राशि x असंख्यात है? जब मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु पाँच इस प्रकार प्रतिसमय असंख्यात असंख्यात गणी | लब्धियों में करणलब्धि के परिणाम करता है, उस समय कर्मों की निर्जरा बढ़ती चली जाती है और जीव अपनी| जो तीन करण-अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण पात्रतानुसार पूरे-पूरे जीवन भर अपने अनन्त कर्मों को रूप परिणामों के समय आयुकर्म को छोड़कर बाकी खिरा देते हैं। अपने पूर्व असंख्यातों जन्मों में बाँधे हये 7 कमों की बहुत निर्जरा होती है। उस समय उस जीव कर्मों के बोझ को इस निर्जरा के द्वारा हलका कर लेते को सम्यक्त्व के सन्मुख या सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव : हैं और मोक्षमार्ग प्रशस्त करके मक्ति को प्राप्त हो जाते | कहते हैं तथा जैसे ही यह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता हैं। इसमें और भी विशेषतायें हैं। यह सामान्य कथन है, तो सम्यक्त्वप्राप्ति के काल में इसकी जो निर्जरा होती किया है। अन्य विशेषताएँ आगे आनेवाले शीर्षकों में | है. उसे असंख्यातगणी निर्जरा के प्रथम स्थान के रूप स्वयं प्रतिपादित हो जायेंगी। इसलिये उस प्रसंग को यहाँ। में लिया गय में लिया गया है। सातिशय मिथ्यादृष्टि अवस्था से नहीं लिया है। सम्यक्त्व-अवस्था में जो निर्जरा होती है वह पूर्व-पूर्व असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा कौन कर सकता है की अपेक्षा असंख्यात गुनी होती है, इसलिये इसे पहले तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9 के 45 वें सूत्र में आचार्य उमास्वामी पात्र के रूप में स्वीकार किया गया है। पुनः वही जीव महाराज ने इसका खुलासा किया है। 10 पात्र बतला जब व्रत स्वीकार कर देशव्रती श्रावक बनता है, तो उसे रहे हैं यथा-सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शन द्वितीय पात्र स्वीकार किया गया है और उसकी निर्जरा मोहक्षपकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः अपनी प्रथम अवस्था से असंख्यात गुणी है। वही श्रावक क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः॥ 9145 ॥ इसका क्रम इस जब महाव्रत स्वीकार करता है, मुनि अवस्था को प्राप्त प्रकार है- 1.अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवर्ती, 2. | होता है, तो श्रावक अवस्था में होनेवाली असंख्यातगणी देशव्रती श्रावक पंचमगुणस्थानवर्ती, 3.विरत अर्थात् 6 वें | | निर्जरा से भी असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही मुनि एवं 7 वें गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज, 4.अनन्तानुबन्धी | महाराज जब अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं, तो की विसंयोजना करनेवाले. 5.दर्शनमोह का क्षय करनेवाले. उस समय में होनेवाली निर्जरा पूर्व अवस्था से असंख्यात-- 6.चारित्रमोह का उपशम करनेवाले अर्थात् उपशम श्रेणी | गुणी है। वे ही महामुनिराज जब दर्शन मोहनीय की क्षपणा पर चढनेवाले मनिराज.7. उपशान्तमोह 11वें गणस्थानवर्ती करते हैं, तो उस समय होनेवाली निर्जरा पूर्व अवस्था महामुनिराज, 8.मोहनीय की क्षपणा करनेवाले क्षपकश्रेणी | से असंख्यात गुणी है, वे ही महामुनिराज उपशम श्रेणी पर आरूढ, 9.मोहनीय परिवार को नाश कर लिया है | चढ़ते हैं, तो श्रेणी में होनेवाली निर्जरा उनकी पूर्व स्थिति ऐसे 12 वें गुणस्थानवर्ती मुनिराज और 10.जिन अर्थात् | से असंख्यात गुनी है। पुनः वे ग्याहरवें गुणस्थान को 12 अक्टूबर 2008 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त करके उपशामक बनते हैं, तो पूर्ववर्ती अवस्था से। हैं, उस समय अपनी पात्रतानुसार निर्जरा करते हैं। उदाहरण 1 11वें गुणस्थान में होनेवाली निर्जरा असंख्यात गुनी है। के लिये कोई अविरत सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यग्दर्शन वे ही मुनिराज जब क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं, तो 11वें | प्राप्त करने की भूमिका में जिस समय होगा, उस भूमिका गुणस्थान की अपेक्षा उन्हीं मुनि महाराज की निर्जरा 8 | में 5 वें क्रम में कही गई निर्जरा करेंगे, लेकिन सिर्फ से 10 गुणस्थानों में असंख्यात गुनी है। पुनः वे ही महाव्रती | क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के काल में, शेष जीवन अव्रती 12 वें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह हो जाते हैं, तो उनकी निर्जरा | हैं तो नहीं करेंगे। श्रेणी पर आरूढ़ अवस्था से असंख्यात गुणी है। तथा विशेष विचारणीय बिन्दु- सूत्र 9145 में जो 10/ वही मुनिराज जब केवलज्ञान प्राप्त कर अरिहन्त भगवान् | 11 स्थान कहे गये हैं, उनमें चौथे नम्बर पर अनन्तानुबन्धी हो जाते हैं, तो उनकी निर्जरा क्षीणमोह अवस्था से | की विसंयोजना करनेवाले एवं पाँचवें स्थान पर दर्शनअसंख्यातगुणी है। इस प्रकार इन 10 स्थानों पर निर्जरा | मोहनीय की क्षपणा करनेवाले पात्र को लिया गया है। का क्रम दर्शाया है। जहाँ पर 11 स्थान बताये हैं, वहाँ | वहाँ प्रश्न होता है कि ये पात्र कौन-से गुणस्थानवर्ती अरिहन्त भगवान् अवस्था से भी ज्यादा निर्जरा जब वे लेवें? क्या वहाँ पर चौथे गुणस्थानवर्ती-पाँचवें गुणकेवली समुद्घात करते हैं, तो केवली अवस्था से भी | स्थानवी जीव भी हो सकते हैं, अथवा मुनि की अपेक्षा असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। यहाँ पर जो उदाहरण | से कथन है? यह विचारणीय है। क्या वहाँ वह अविरत लिया गया है वह एक जीव को लेकर है। उसी जीव सम्यग्दृष्टि-वियोजक एवं अविरतक्षायिक सम्यग्दृष्टि, मुनि की अनेक अवस्थाओं के आधार पर लिया गया है। महाराज की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं? इस धवला पुस्तक 12 में अध:प्रवृत्त केवलीसंयत और सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के सन्दर्भो को हम यहाँ योगनिरोध केवलीसंयत ऐसा लिया है। प्रस्तुत करते हैं, जिसके द्वारा इस विषय पर प्रकाश पड़ता कौन-कौन से पात्र कब-कब करते हैं- इस | है। अलग-अलग आचार्यों में से बहत से आचार्यों का सम्बन्ध में विचार करते हैं कि पात्रों के अनुसार असंख्यात- | अभिमत एक जैसा है, किन्तु धवलाकार का मत भिन्न गुणश्रेणी निर्जरा कितने समय तक होती है- | दिखाई पड़ता है अतः हमें दोनों मत स्वीकार करने योग्य 1. अविरत सम्यग्दृष्टि-सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति के | हैं। समय गुणश्रेणी निर्जरा करते हैं, तथा किससे असंसख्यात- धवला जी में बहुत स्पष्ट शंका और उसका गुणी सो आचार्य कहते हैं कि सातिशय मिथ्यादृष्टिपने | समाधान करते हुये आचार्य वीरसेन स्वामी ने अनन्तानुमें जो निर्जरा हो रही थी, उससे असंख्यात गुणी करते | बन्धी वियोजक से असंयत-सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि यदि आगे नहीं बढ़ता, व्रतादि | संयत को ग्रहण किया है तथा वहाँ पर अनन्तानुबन्धी स्वीकार नहीं करता तो उसके जीवन में फिर नहीं होती | वियोजक की विसंयोजना के काल में विशुद्धि अनन्तगुणी सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति काल में ही होती है। है। फलस्वरूप वहाँ पर मुनि (संयत) से भी ज्यादा 2. व्रती श्रावक अपनी भूमिका में रहते हुये अविरत- | निर्जरा अनन्तानुबन्धी-वियोजक करता है। यद्यपि दर्शनसम्यग्दृष्टि अवस्था से असंख्यात गुणी करते हैं। यहाँ | मोहनीय की क्षपणा के सम्बन्ध में खुलासा नहीं किया, विशेषता है कि पाँचवाँ गुणस्थान जब तक बना रहेगा, | किन्तु सूत्रक्रम में पात्रक्रम से और पूर्व सूत्र के खुलासा तब तक निरन्तर असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करते रहेंगे। से हम दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवालों की गुणश्रेणी 3. मुनि महाराज महाव्रती भी अपने योग्य गणु- | निर्जरा में भी असंयत, संयतासंयत और संयत को ग्रहण स्थानों में पूरे समय तक निरन्तर गुणश्रेणी निर्जरा करते | कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ एवं धवला जी का 4. अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले मात्र | मन्तव्य का अवलोकन संक्षिप्त में करते हैंविसंयोजना के काल में करते हैं। 6. उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर 5. दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले जीव भी, | उपशामक, क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती सभी जीव अन्तर्मुहूर्त जिस समय क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति का उपाय करते | तक निरन्तर अपनी पात्रता-अनुसार निर्जरा करते हैं, यह अक्टूबर 2008 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जरूर है कि ऊपर-ऊपर की अवस्थाओं में अन्तर्मुहूर्त | के अर्थ एवं विशेषार्थ में बहुत सरल शब्दों में गुणश्रेणी में पहले की अपेक्षा समय घटता जाता है और गुणश्रेणी | निर्जरा के दस स्थानों का कथन किया है। निर्जरा असंख्यातगुणित क्रम से बढ़ती जाती है। 6. तत्त्वार्थसूत्र सरलार्थ के नवम अध्याय सूत्र 45 7. जिन भगवान् जब तक केवलीपने को प्राप्त | की टीका पृष्ठ 267-68 पर गुणश्रेणी निर्जरा के दस रहते हैं, अपनी अरिहन्त अवस्था में निरन्तर असंख्यात | स्थानों का कथन करते हुये विशेषार्थ में 5 बातों द्वारा गुणी निर्जरा करते हैं। कथन को और स्पष्ट करते हुये एक जीव की अपेक्षा 8. समुद्घात केवली भगवान् समुद्घात के समय | से ही कथन किया है। अरिहन्त अवस्था से भी असंख्यात गणी निर्जरा करते | 7. तत्त्वार्थ राजवार्तिक के द्वितीय भाग पृष्ठ 635 636 अध्याय 9 के सूत्र 45 की टीका में अकलंकदेव अन्य-अन्य ग्रन्थों का मन्तव्य- सर्वार्थसिद्धिकार | स्वामी ने सम्यग्दृष्टि से तीनों सम्यग्दृष्टि : उपशम, आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के नवें | क्षयोपशम और क्षायिक ग्रहण किया है। पश्चात् श्रावक अध्याय के 45वें सूत्र की टीका करते हुए 908 वें अनुच्छेद | को कहकर आगे यथाक्रम से ले लेना। में 10 पात्रों के अनुसार अपनी बात कही है तथा उसमें 8. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्दि आचार्य महाराज ने वे 10 स्थान एक ही जीव के विकास महाराज ने भी संस्कृत टीका अध्याय 9/45 में सम्यग्दृष्टि क्रम को लेकर कहे हैं। आचार्य पूज्यपाद जी के मन्तव्य से तीनों सम्यग्दष्टि ग्रहण किये हैं. इससे ऐसा जान पडता में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना तथा दर्शनमोहनीय का | है कि राजवार्तिककार और श्लोकवार्तिक-कार भी चौथे क्षय करनेवाली अवस्था मुनि महाराज के ही लेवें, ऐसा | और पाँचवें क्रम की निर्जरा पात्रों में वहाँ मुनिवियोजक दिखाई पड़ता है। वहाँ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के लिये भी | और मुनिक्षपक हैं, ऐसा कहना चाह रहे हैं। मुनि अवस्था कहा हो ऐसा नहीं झलकता, क्योंकि ‘स एव, स एव' | प्राप्त होने के पश्चात् जो अगले क्रम में निर्जरा के जितने हये प्रारम्भ से दसों स्थानों को कहा। इसलिये | अन्य स्थान कहे गये, वे सब मुनि अपेक्षा हैं. ऐसा अभिप्राय क्रम में सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरत-अनन्तानुबंधीवियोजक- जान पड़ता है। दर्शनमोक्षपक ऐसा क्रम कहा है, जिससे वहाँ मुनि की 9. षट्खण्डागम पुस्तक 12, सूत्र 178, पृष्ठ 82 अपेक्षा से लेवें, ऐसा अवभासित होता है। सर्वार्थसिद्धि | पर उक्त विवरण प्राप्त होता है। 'उससे अनन्तानुबन्धी टीका पृष्ठ 362 संस्कृत टीका, हिन्दी अर्थ एवं पं० फूलचन्द | की विसंयोजना करनेवाले की श्रेणी गुणाकार असंख्यात जी शास्त्री का विशेषार्थ अवलोकन करने योग्य है। गणा है।। 78॥' 2.तत्त्वार्थवृत्ति (आचार्य भास्करनन्दि-टीका) में भी | स्वस्थान संयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणी गुणाकार की नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र की टीका करते हुए | अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवों पृष्ठ 545-546 की संस्कृत टीका में यही भाव प्रदर्शित | में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करनेवाले जीव का जघन्य · है। वहाँ निर्जरा के कालों की व्याख्या भी सुन्दर ढंग | गुणश्रेणी गुणाकार असंख्यातगुणा अधिक है। से की गई है। __अर्थात् संयत के जो उत्कृष्ट निर्जरा हो रही है, 3. 'जैन तत्त्व विद्या' ग्रन्थ में जो शास्त्रसारसमुच्चय | उससे अनन्तानुबन्धीवियोजक की जघन्य निर्जरा भी की टीका के रूप में पूज्य प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा | विसंयोजना के काल में असंख्यात गुणी है। रचित है, 4 थे अध्याय के सूत्र 62 की टीका 352- शंका- संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी 353 पृष्ठ पर विस्तार से की गई। का विसंयोजन करनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि के परिणाम 4. तत्त्वार्थसूत्र की टीका में श्री पं० फूलचन्द्र जी | अनन्तगुणा हीन होते हैं। ऐसी अवस्था में उसके असंख्यात सिद्धान्तशास्त्री द्वारा भी इसी मन्तव्य को झलकाया गया | गणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है? है। देखें पृष्ठ अध्याय 9 सूत्र 45 पर। समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि संयमरूप 5. तत्त्वार्थसूत्रटीका पं० कैलाशचन्द्र जी, बनारस | परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना द्वारा पृष्ठ 151 पर नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र | में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध हैं। 14 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका- यदि सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा | कड़ी में निर्जरा में असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा की भी अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है, तो | चर्चा सामान्य जीवों के बीच में करें, सभी जीवों को सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग | यह समझ में आये, तो लोग अवश्य ही व्रतों की ओर आता है? अग्रसर होंगे, व्रतीजीवन अंगीकार करके गुण श्रेणी निर्जरा समाधान- ऐसा पूछने पर उत्तर में कहते हैं कि | के माध्यम से अपने अनन्तों कर्मों के बोझ को वर्तमान सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं | पर्याय में बड़े ही सहज ढंग से हलका करने में सक्षम आ सकता है, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वस्वरूप परिणामों | हो सकेंगे। जब तक व्रती जीवन अंगीकार नहीं भी कर के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार | सकेंगे, तब तक अपने परिणामों द्वारा उस पद को पाने की गई है। की भावना, अपने कर्मों को निरन्तर खिराने की भावना इस प्रसंग पर धवला जी की 12वीं पुस्तक के | को बलवती बनाते हुये अपने विकास के मार्ग को गति पृष्ठ 78 गाथा नं. 7-8 तथा सूत्र क्रमांक 175 से 185 / देंगे, ऐसा मेरा मानना है। अवलोकन करने योग्य हैं। सन्दर्भ-ग्रन्थसूची उपसंहार- असंख्यात-गुणश्रेणी-निर्जरा का अवलोकन | 1. सर्वार्थसिद्धि-संस्कृत टीका आचार्य पूज्यपाद हिन्दी पश्चात् दृष्टि में यह बार-बार आता है कि टीका पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । जीव भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपनी भूमिका, पात्रता अनुसार | 2. तत्त्वार्थवार्तिक-अकलंकदेव, प्रकाशक भारतीय ज्ञानहर अगले स्थान पर पिछले स्थान की अपेक्षा असंख्यात पीठ दिल्ली। गुणी, असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं, तो कर्म बाँधे | 3. तत्त्वार्थवृत्ति-भास्करनन्दी टीका अनु. आर्यिका जिनमती, कितने थे? पिछली अनेक पर्यायों में संग्रह के रूप इकट्टे | प्रकाशक पांचूलाल जैन किशनगढ। होते गये ये कर्म तो मेरु के समान से जान पड़ते हैं | 4. तत्त्वार्थवृत्ति-श्रुतसागरीय टीका, भारतीय ज्ञानपीठ और इतने कर्मों का बोझा लेकर जीव बिना गुणश्रेणी प्रकाशन। निर्जरा करे ऊपर आ ही नहीं सकता। बाँधते समय तो | 5. जैन तत्त्व विद्या-पू. प्रमाणसागर जी, भारतीय ज्ञानपीठ न होश था न ज्ञान, लेकिन निर्जरा के समय का प्रकरण प्रकाशन। देखकर आँखें चौधियाँ जाती हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-संस्कृत टीका. आचार्य विद्यानन्दि, उसमें भी एक विशेषता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि | प्रकाशन गांधी रंगानाथ जैन ग्रंथमाला, मुम्बई। जीव की निर्जरा तो मात्र सम्यक्त्वप्राप्ति के काल में होती | 7. तत्त्वार्थसूत्र-पं० फूलचन्द्र शास्त्री प्रकाशन । है, जबकि व्रती श्रावक, मुनिराज की गुणश्रेणी निर्जरा | 8. तत्त्वार्थसूत्र-पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन भारतवर्षीय पूरे जीवनकाल में निरन्तर हर पिछले समय की अपेक्षा जैन संघ, चौरासी मथुरा । अगले समयों में असंख्यात गुणी होती जाती है। अपने | 9. तत्त्वार्थसूत्र सरलार्थ-भागचन्द्र जैन इन्दु, गुलगंज, जीवनकाल में देशव्रती, महाव्रती कितनी निर्जरा कर लेते प्रकाशन जबलपुर। हैं इसका आकलन अवश्य करना चाहिये। | 10. षट्खण्डागम परिशीलन-पं० बालचन्द्र शास्त्री, भारतीय मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सभी सुधी पाठक, ज्ञानपीठ प्रकाशन। विद्वान् प्रवचनकार जो अपने विचारों, लेखों, प्रवचनों के | 11. षट्खण्डागम धवला पुस्तक 12, प्रकाशन सिताबराय माध्यम से जीवों के कल्याणमार्ग को प्रशस्त कर रहे लखमीचन्द विदिशा। हैं, उनसे मेरा अनुरोध है कि हम आस्रव-बंध की चर्चा (तत्त्वार्थसूत्र-निकष से साभार) के साथ संवर की चर्चा भी बहुत करते हैं, किन्तु इसी मन तीरथ कैसे बने, तन की है जब भूख। धर्म बिना है आदमी, जैसे सूखा रूख॥ योगेन्द्र 'दिवाकर', सतना, म.प्र. - अक्टूबर 2008 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ की संकल्पना और उनका विकास प्रो. वृषभ प्रसाद जैन "तीर्थ" शब्द संस्कृत की 'तृ' प्लवनतरणयोः धातु । आते हैं। इसके पीछे उनका भाव रहता है कि तीर्थक्षेत्र से बना है, जिसका अर्थ निकलता है कि जो डूबकर, की वंदना से पुण्य संचय होता है, पुण्य-संचय से व्यक्ति डुबकी लगवाकर पार उतारने का काम करता है, तीर्थ | सत्कर्म में प्रवृत्त होता है और सत्कर्म धर्माराधना का कहलाता है, इसीलिए जहाँ लोग तैरते हैं, जहाँ लोग | कारण बनता है, तथा धर्माराधना मुक्ति की साक्षात् कारक तारे जाते हैं, जहाँ से लोग भव-समुद्र से तरते हैं, वे | है ही। इसी अद्भुत भाव के कारण ही असमर्थ वृद्धजन, स्थान-विशेष तीर्थ कहलाते हैं, इसीलिए तीर्थ तरण-स्थल | महिलाएँ आदि भी पैदल कई किलोमीटर की सीधी होने के साथ-साथ तारण (पार उतारनेवाले) स्थल भी | चढ़ाईवाले पहाड़ पर भी प्रभु का स्मरण करते हुए बड़ी होते हैं। भारतीय संस्कृति के पोषक प्रायः सभी धर्मों | आसानी से चढ़ जाते हैं, उन्हें तनिक भी शारीरिक कष्ट में तीर्थों की मान्यता है। हर धर्म, सम्प्रदाय के अपने | का अनुभव नहीं होता, जब कि रोग-व्याधि की पीड़ा तीर्थ हैं, जो उनके किसी महापुरुष अथवा किसी महत्त्वपूर्ण | के कारण अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वे कराहते रहते घटना के स्मारक के रूप में जाने जाते हैं। यही कारण | हैं। इसीलिए जैनपरम्परा के ग्रन्थ 'समाधिशतक' में भी है कि प्रत्येक धर्म के धर्मानुयायी तीर्थों की यात्रा और | संसार-समुद्र से तरन तारण करानेवाले, पार उतारनेवाले वंदना के लिए बड़े तन्मय होकर बड़ी श्रद्धा, आस्था | को तीर्थ कहा गया-"संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात् तीर्थम्।" व भक्ति-भाव से जाते हैं और आत्मशांति की प्राप्ति | आचार्य जिनसेन ने भी अपने आदिपुराण में लिखा है के लिए तत्पर रहते हैं, इसीलिए तीर्थ-स्थान शांति, कल्याण | कि जो इस भव-सागर से पार करे. वही तीर्थ है. ऐसा व पुरुषार्थ-चतष्टय की परम प्राप्ति के धाम माने जाते | तीर्थ जिनेन्द्र देव का चरित्र ही हो सकता है तथा उस : हैं, इसके साथ ही साथ उनकी मान्यता पवित्र-स्थल के | चरित्र के कथन करने को ही तीर्थ-संकथा कहा जाता रूप में भी है, भले, कुछ लोगों ने अब उन्हें पूरी तरह | हैपवित्र-स्थल न भी रहने दिया हो। इन पवित्र-स्थलों में संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते। पवित्रता दो अर्थों में समाहित होती है- १. ये स्वयं पवित्र चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिः तीर्थसंकथा॥ होते हैं। २. जो इनके संपर्क में आता है, उसे पवित्र बात इतनी ही नहीं आचार्य जिनसेन ने तो धवलाकार कर देते हैं, इसीलिए पवित्र होने के भाव से भी लोग | की मान्यता को आगे बढ़ाते हुए मुक्ति के उपायभूत यहाँ आते-जाते हैं। यही कारण है कि तीर्थ का एक | सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र को ही तीर्थ के काम पवित्रीकरण भी है। इसीलिए जब कोई यात्री तीर्थ | रूप में प्रस्तुत किया है, क्योंकि वे ही तीनों मिलकर के लिए जाता था. जाता है या जब तीर्थ से लौटकर | मोक्षमार्ग बनते हैं व मुक्ति के साक्षात् साधन के रूप आता था, आता है, तो गाँव देहात, आस-पड़ोस, नाते- | में प्रस्तुत होते हैं, यथारिश्तेदारी आदि के लोग, उससे मिलने के लिए आते 'मुक्त्युपायो भवेत्तीर्थम्।' आदिपुराण २/३९ थे, आते हैं, ऐसी परम्परा है, क्योंकि उन्हें लगता है __धवलाकार कहते हैं कि धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, कि उनके मनोभाव तीर्थ-कथा सुनने से व उसके सम्पर्क | सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र है, चूँकि इनसे संसार-सागर से कुछ अंशों में पवित्र जरूर हो जाएंगे। इस भेंट में | से तरते हैं, इसलिए इन्हें तीर्थ कहा गया है। धवलाकार व्यक्ति-सम्पर्क की बात नहीं है, बल्कि परम्परया तीर्थ- | के ही शब्दों मेंसम्पर्क की बात है, जिसके पीछे वही पवित्रीकरण का धम्मोणाम सम्मइंसण-णाण-चरित्ताणि। एदेहिभाव है। संसार-सायरं तरंति त्ति। एदाणि तित्थं । जैनधर्म में भी तीर्थ का बड़ा महत्त्व है, इसीलिए ८,३,४२,९२,७ जैन धर्मानुयायी भी बड़े भक्तिभाव से प्रायः प्रतिवर्ष किसी आचार्य समंतभद्र ने अपने युक्त्यनुशासन ग्रन्थ में न किसी तीर्थ की वंदना, अर्चना करने के लिए जाते- | तीर्थ को सबका कल्याण करनेवाला माना है और लिखा 16 अक्टूबर 2008 जिनभाषित . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि हे प्रभु! आपका यह सर्वोदय तीर्थ सबका कल्याण | परम्परा में उपास्य इसलिए नहीं हो सकते, क्योंकि वे । करनेवाला है- 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।' तो ऊँचे से ऊँचे भोग-विलास के प्रतीक रहे हैं, न जैनपरम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द के पर्याय | कि त्याग के, तब भला हमारी परम्परा भोग-विलासके रूप में 'क्षेत्र-मंगल' पारिभाषिक का प्रयोग भी होता | स्थल को तीर्थ के रूप में कैसे स्वीकारे? दुधर कछ रहा है. जिसका अर्थ है कि जिस क्षेत्र में जाने से अहंकार | लोग अब तीर्थंकर, भगवंतों के गर्भ व जन्म स्थलों का दंभ का मोह का. ममत्वबद्धि का गलन होता है. | को भी तीर्थ के रूप में स्थापित करने में जट गए समाप्ति होती है, क्षरण होता है, वह स्थान-विशेष 'क्षेत्र- | है, जा किसा मायन हैं, जो किसी मायने में हमारी त्याग की परम्परा का मंगल' कहलाता है। षट्खण्डागम में गुण-परिणत- | पोषण नहीं हैं, इससे हमें बचना चाहिए और हमारे आसनक्षेत्र अर्थात जहाँ पर अनेक विभतियों के द्वारा | समाज को इससे सावधान रहना चाहिए। इन उत्तरवर्ती योगासन, वीरासन आदि अनेक आसनों के माध्यम से | तीन कल्याणक-स्थलों में भी सबसे अधिक पुज्यता सिद्ध अनेक प्रकार के योगाभ्यास व जितेन्द्रियता आदि गुण | क्षेत्रों, मोक्ष-कल्याणक-स्थलों अर्थात् निर्वाण-भूमियों की प्राप्त किये गए हों. ऐसे क्षेत्र-विशेष-परिनिष्क्रमण-क्षेत्र | ही है, क्योंकि बंधन-मुक्ति के बिना संसार-सागर से पार केवलज्ञानोत्पत्ति-क्षेत्र और निर्वाण-क्षेत्र आदि को 'क्षेत्र- | उतरना संभव नहीं और वह पूरी तरह होता तब है. मंगल' कहते हैं, इसके उदाहरण ऊर्जयन्त, गिरनार, चंपा, जब मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसीलिए मुक्ति के स्थलपावा आदि नगर क्षेत्र हैं तीर्थों, सिद्ध-क्षेत्र-रूप तीर्थों को ही हमारी परम्परा में ___ तत्रक्षेत्र-मंगलगुणपरिणतासनपरिनिष्क्रमण-केवल सबसे अधिक पूजनीयता प्राप्त हुई। ज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाण-क्षेत्रादिः। तस्योदाहरणम्-ऊर्जयन्त इस उपर्युक्त चर्चा से तीर्थ के दो स्वरूप उभर चंपा पावानगरादिः। कर आते हैं- १. विचार तीर्थ का, २. स्थावरतीर्थ का। गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है कि विचारतीर्थ वह है, जो हमारी भाव-शुद्धि कराकर सीधे ऊर्जयन्त आदि महान् अरहंत आदिकों के दीक्षा और | मोक्ष तक ले जाता है, इसीलिए हमारी परम्परा में केवलज्ञान आदि की प्राप्ति के क्षेत्र-मंगल आदि स्थान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र रूपधर्म को भी आत्मगुणों की प्राप्ति के साधन हैं तीर्थ कहा गया, यही कारण है कि समंतभद्राचार्य ने "क्षेत्र-मंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनां निष्क्रमण- | तो सर्वोदयी जिनशासन को ही तीर्थ कह दिया। तीर्थंकर केवलज्ञानादिगुणोत्पत्तिस्थानम्।" के उत्तरवर्ती तीन कल्याणक-स्थलों को स्थावर तीर्थ के षटखण्डागम और गोम्मटसार आदि के क्षेत्र-मंगल | रूप में लिया जा सकता है। इधर कुछ स्थलों की मान्यता के संदर्भ में उक्त उल्लेखों को देखने से यह तथ्य उभरकर | किसी मंदिर या मूर्ति में चमत्कार के कारण भी हो आता है कि हमारी परम्परा में तीर्थंकर भगवान के पाँचों गई है, जो न निर्वाण-क्षेत्र हैं और न अन्य कल्याणक कल्याणकों में से गर्भ-कल्याणक व जन्म कल्याणक- क्षेत्र ही, ऐसे क्षेत्र अतिशय-क्षेत्र के रूप में माने जाते स्थलों की मान्यता क्षेत्र-मंगल के रूप में थी. इसीलिए | हैं, परन्तु यदि इन अतिशय-क्षेत्रों को भी तीर्थ माना जाए हमारे अधिकांश प्राचीन तीर्थ तीर्थंकर भगवंतों के इन्हीं | या मान लिया जाए, तो इनकी गणना भी स्थावर तीर्थ तीन कल्याणकों से संबद्ध हैं। कुछेक ऐसे तीर्थ भी | के रूप में ही की जाएँगी। मेरे दैहिक पिता अहिंसाहैं, जो तप, ज्ञान व मोक्ष कल्याणकों में से कुछ कल्याणकों | वाणी के संपादक श्री वीरेन्द्र प्रसाद जी जैन आचार्य के साथ-साथ गर्भ व जन्म कल्याणक-स्थल भी हैं। इस | श्री विद्यासागर जी को व उनके संघ को अपनी चर्चाओं पूरे तथ्य के पीछे विचार यही है कि चूँकि तप, ज्ञान | में जंगम, गतिमान तीर्थ कहते थे और उन्हें विचार-तीर्थ, ओर मोक्ष संसार-समुद्र से पार उतरने में सीधे कारक | व स्थावर-तीर्थ का संगम मानते थे, क्योंकि उनकी मान्यता हैं, इसलिए उनके स्थल ही हमारे यहाँ तीर्थ के रूप | थी कि आचार्य श्री का साधु-संघ निरंतर रत्नत्रय धर्म में प्रतिष्ठित हुए, अन्य कल्याणक स्थल उस रूप में | की साधना में रत रहता है, इसलिए वह विचार-तीर्थ नहीं। इतना ही नहीं गर्भ व जन्म तो प्रायः अधिकांश | तो है ही, पर चूँकि व्यक्ति साधु के रूप में उनकी । तीर्थंकर भगवंतों के राजप्रासादों में हुए हैं और वे जैन | भौतिक उपस्थिति भी है, इसलिए वे स्थावर-तीर्थ भी हैं। - अक्टूबर 2008 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थों का विकास, पुनरुद्धार व समृद्धि हमारी | कि शायद इस ओर यत्न हो। इधर हमारे तीर्थों की वैयक्तिक, सामाजिक व पारमार्थिक जरूरत है, पर उनका | पहचान पर भी निरंतर हमले होने लगे हैं और ये हमले विकास करते समय हमें इस बात का निरंतर ध्यान रखना | बाहरवालों के द्वारा ही नहीं हो रहे हैं, बल्कि हमारे चाहिए कि हमारे तीर्थ केवल स्थावर-क्षेत्र ही नहीं रहे | अपने भीतर के लोगों के द्वारा भी होने लगे हैं, मुझे हैं. बल्कि उनमें स्थापित मंदिर व उनमें स्थापित जिनबिम्ब | तो लगता है कि ये जो हमारे अपने लोग इन हमलों व उनका परिकर ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं और कलाओं | में शरीक हो रहे हैं, वे वैचारिक रूप में अब नियंत्रित के केन्द्र के रूप में भी रहा है और वे विचार-शुद्धि, कहीं और से हो रहे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा भाव-शुद्धि के परम केन्द्र भी रहे हैं। यदि यह कहा है कि हमारे तीर्थों की पहचानें अब धूमिल पड़ने लगीं जाए कि उन तीर्थों पर रहनेवाले प्रायः सभी परम साधकों | हैं। मैं अभी कुछ वर्ष पहले एक तीर्थ पर गया, वहाँ का चरम लक्ष्य वही विचार-शुद्धि या भाव-शुद्धि रहा | रात-भर रुका, रात में जागरण के नाम पर रतजगा हुआ है, तो कोई अत्यक्ति नहीं होगी, क्योंकि उसी की चरम और उस रतजगा में पद्मावती की उपासना के नाम प्राप्ति ही तो मोक्ष है। हम आज जो तीर्थों का विकास | पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर भीतर तक हिल गया कर रहे हैं, उसमें स्थावर रूप-विशेष का तो पोषण हो | और उससे कहीं नहीं लगा कि ये दुर्गा की उपासना रहा है, पर ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं कलाओं व विचारकेन्द्र | पर होनेवाले जागरण से थोड़ा भी कहीं से अलग है, का पोषण लगभग नगण्य है, जब कि लक्ष्य उस पर | बल्कि लगा तो यह कि यह उसकी भौंड़ी नकल भर ही रखकर स्थावर का विकास होना चाहिए। हाँ, कुछेक | है। हमारी भजन-आरती की जो पद्धति थी, वह उस तीर्थों पर जहाँ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज स्वयं रतजगा में पूरी तरह गायब थी। इतना ही नहीं, नृत्य या उनके संघ के दीक्षित साधु विराजते हैं, वहाँ भाव- का जो ढंग था, उससे ऐसा लग रहा था कि जैसे कुछ शद्धि की साक्षात कारक विचार-चर्चाएँ शास्त्र-पारायण शराबी मदहोश होकर झूम रहे हों, कहीं से नहीं लग के माध्यम से होती हैं. अन्यथा अधिकांश तीर्थक्षेत्र बौद्धिक रहा था कि यह हमारा भाव-प्रधान पारंपरिक नृत्य है। चर्चा या गतिशील बौद्धिक चेतना से लगभग शुन्य हमारे अपनी तरह के होनेवाले दौलतराम, द्यानतराय आदि समुचित शास्त्र भण्डार तक नहीं है, उन शास्त्रों के पढ़ने, | के आरती-भजनों का होना और उनका रचा जाना भी पढ़ानेवालों की बात क्या की जाए? ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं| अब लगभग हमारे तीर्थों व मंदिरों पर बंद-सा हो गया कलाओं, बौद्धिक चेतना या बौद्धिक चर्चा को समाहित है। यह बहुत घातक है। तीर्थ हमारी पहचान के प्रतीक करते हुए तीर्थों के पोषण के लिए हमने कोई विकास हैं, इसलिए उन पर होनेवाली हर गतिविधि हमारी अपनी की रूपरेखा भी अभी तक तय नहीं की है, जबकि | पहचान को समृद्ध करनेवाली होनी चाहिए, इसके लिए वह शायद तीर्थों के स्थावर विकास से कहीं ज्यादा जरूरी | हमें सजग रहना पडेगा, यदि हमने ऐसा नहीं किया और है। हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए और इसकी | समय रहते नहीं चेते, तो सच मानिए कि हम ऐसी जगह सुदीर्घ योजना भी बनानी चाहिए, तभी सही मायने में | पहुँचेंगे, जहाँ से कोई राह हमें अपने घर लौटने की तीर्थों का समुचित विकास होगा, हो सकेगा। उम्मीद है । न मिलेगी, जिससे हमें बचना चाहिए। 'विद्वद्विमर्श' से साभार यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्। लोचनाम्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥ जिसमें शास्त्र समझने की बुद्धि ही नहीं है, शास्त्र उसका क्या कर सकते हैं? जिस मुनष्य की आँखें ही नहीं हैं, दर्पण उसका क्या कर सकता है? निर्विषेणापि सर्पण कर्त्तव्या महती फणा। विषमस्तु न वाप्यस्तु फणाटोपो भयङ्करः॥ आत्मरक्षा के लिए विषहीन सर्प को भी अपना फन फैलाना चाहिए। विष हो, चाहे न हो, फन का फैलना मात्र भयंकर होता है। 18 अक्टूबर 2008 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड में बिम्बविधान प्रो. रतनचन्द्र जैन अष्टपाहुड़ नाम से प्रसिद्ध आठ पाहुड़ आचार्य | वर्ण की पूर्वानुभूति स्मृति में आविर्भूत होती है, वह कुन्दकुन्द की ऐसी कृतियाँ हैं, जिन्हें शैलीविज्ञान की | चक्षपरक बिम्ब है. एक विशेष सगन्ध का जो अनभव कसौटी पर कसा जा सकता है। आचार्य ने उनमें भाषा | मानस पटल पर उभरता है वह घ्राणपरक बिम्ब है, तथा को काव्यात्मक बनानेवाले अनेक शैलीय तत्त्वों का प्रयोग | जो मृदु स्पर्श का अहसास स्मरण में आता है, वह स्पर्शपरक किया है। शैलीवैज्ञानिक भाषा में उन्हें चयन, विचलन, | बिम्ब है। इसी प्रकार 'कोयल' शब्द से जो 'कुहू कुहू' समानान्तरता, प्रतीकविधान, बिम्बविधान अप्रस्तुतविधान | की मधुर ध्वनि का पूर्वानुभव ताजा हो जाता है, उसे आदि नामों से संकेतित किया जाता है। कुन्दकुन्द ने | श्रवणपरक बिम्ब कहेंगे तथा 'इमली' शब्द सुनने से जो अष्टपाहुड़ में बिम्बों के प्रचुर प्रयोग द्वारा अमूर्त और | खटास की अनुभूति स्मृति में जागती है उसका नाम अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक भावों को मूर्तरूप से प्रस्तुत कर | स्वादपरक बिम्ब है। अनुभूतिगम्य बनाया है। बिम्बसृजन का मार्ग बिम्ब का लक्षण जब किसी वस्तु, गुण, क्रिया, स्थिति या मनोभाव किसी पूर्वानुभूत इन्द्रिगम्य वस्तु का नाम सुनकर का स्वरूप (विशेषता) बतलाने के लिए किसी अन्य उसके स्वरूप का जो दृश्य मन या स्मृति में उपस्थित | मूर्त पदार्थ से उसका साद्दश्य दिखलाया जाता है, अथवा होता है उसे बिम्ब कहते हैं। उदाहरणार्थ गुलाब शब्द | अन्य मूर्त पदार्थ या अन्य मूर्त पदार्थ के धर्म का उस के श्रवण से एक विकसित पंखुडियोंवाले सुन्दर आकार, | पर आरोप किया जाता है अथवा उसके स्थान में अन्य लाल या गुलाबी रंग, एक मधुर गन्ध एवं मृदुल स्पर्श | मूर्त पदार्थ का ही प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता की पूर्वानुभूतियाँ स्मृति में उतर आती हैं। स्मृति में उभरी | है, तब पाठक या श्रोता के मन में उस अन्य मूर्त पदार्थ इन्हीं पूर्वानुभूतियों का नाम बिम्ब है। | का बिम्ब निर्मित होता है और उसके द्वारा वर्ण्य वस्तु, 'न्यू इण्टरनेशनल डिक्शनरी आफ् इंग्लिश लैंग्वेज' | गुण, क्रिया, स्थिति (दशा) या मनोभाव का स्वरूप पाठक में बिम्ब (Image) की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- | की अनुभूति में उतरता है। मनोभावों और प्रवृत्तियों को __Image is a mental representation of Some- | मखमद्राओं, आंगिक चेष्टाओं तथा शरीरिक स्थितियों thing not aclually present to the senses, a revival (अनुभावों) के वर्णन द्वारा व्यक्त करने से भी बिम्बों or imitation of sensible experience or of sensible experience together with accompanying feelings, | की सृष्टि होती है। तात्पर्य यह कि बिम्ब की रचना the reproduction in memory or imagination of | साद्दश्यमूलक अलंकारों, लाक्षणिक शब्दों. प्रतीकों. महावरों sensations of sight, touch, hearing etc. as visual, | एवं लोकोक्तियों के प्रयोग तथा अनुभावादि के वर्णन tecticle, auditory images" से होता है। ऍनसाइक्लोपीडिया आफ ब्रिटेनिका (Vol. 12, बिम्ब के व्यापार page 103) में बिम्ब का स्वरूप नीचे लिखे शब्दों में बिम्ब में अमूर्त और अप्रत्यक्ष भाव मूर्त होकर बतलाया गया है अनुभूतिगम्य बन जाते हैं। वे मन को अमूर्त भावों के "Images are conscious memories which reproduce a previous perception in whole or in स्वरूप की प्रतीति करा देते हैं। जैसे कोधाग्नि कहने part, in the absence of the original stimulus to से अग्नि के बिम्ब द्वारा हृदय को क्रोध की उग्रता के the perception." दर्शन हो जाते हैं। किसी भाव के स्वरूप की प्रतीति बिम्बप्रकार उसका नामोल्लेख करके नहीं करायी जा सकती। सुन्दर - ऐन्द्रिय संवेदना के आधार पर बिम्ब पाँच प्रकार वस्तु को सुन्दर कहने से उसके सौन्दर्य की अनुभूति के होते हैं- चक्षुपरक, श्रवणपरक, घ्राणपरक, स्वादपरक नहीं होती। सुन्दर शब्द सुन्दरता की सूचना देता है, अनुभूति और स्पर्शपरक। गलाब शब्द के श्रवण से जो विकसित नहीं कराता। सुन्दरता का अनुभव सुन्दरता का बिम्ब पखडियावाले एक सुन्दर आकार तथा लाल या गुलाबी । अर्थात दश्य उपस्थित करके कराया जा सकता है। क्रोध अक्टूबर 2008 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का नाम सुनने से भय उत्पन्न नहीं होता, क्रोध का रूप देखने से भय उत्पन्न होता है । 'भय' शब्द सुनने से रोंगटे खड़े नहीं होते, भयानक दृश्य देखने से रोंगटे खड़े होते हैं। 'हास्य' शब्द सुनने से हँसी नहीं आती, हास्यास्पद दृश्य देखने से हँसी आती है। बिम्ब इसी प्रकार के दृश्य हैं। वे भावों के नाम नहीं, रूप । इसलिए उनसे भावों के स्वरूप का अनुभव अपने आप हो जाता है। यतः बिम्ब सौन्दर्य, यौवन, अनुरक्तता, कुरूपता, भयंकरता, हास्यास्पदता, क्रोधाविष्टता, विस्मयान्विता आदि के शब्दनिर्मित मनोगत दृश्य हैं, इसलिए उनके मन में उपस्थित होते ही सहृदय के हृदय में आनंद, अनुराग, घृणा, भय, ग्लानि, हास्य आदि भावों का उद्वेलन होता है, जिसे रसानुभूति कहते हैं । इस प्रकार बिम्बों में भावोद्वेलनक्षमता होती है । बिम्ब में अनेक भाव गुँथे होते हैं। वे समस्त भाव उस एक बिम्ब के द्वारा अनुभूति में उतारे जाते हैं। अर्थगौरव से युक्त होने के कारण उनमें संक्षिप्तता होती है, फलस्वरूप उनका प्रभाव तीक्ष्ण होता है । अष्टपाहुड़ में बिम्ब आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्ट पाहुड़ों में अमूर्त एवं अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक भावों को बिम्बविधान द्वारा मूर्तरूप में प्रस्तुत कर गम्य बनाया है, जिससे वे अध्येता के मन में उतरकर अज्ञान की ग्रन्थियाँ खोलते हैं और वैराग्य की भावधारा प्रवाहित करते हैं। आचार्य कवि ने अलंकार, लक्षणा, मुहावरे, लोकोक्ति आदि सभी प्रकार के काव्यभाषात्मक उपादानों का आश्रय लेकर बिम्बसृष्टि की है। यहाँ इन सभी के कुछ नमूने प्रस्तुत किये जा रहे हैं 1 अलंकाराश्रित बिम्ब 'संखिज्जमसंखिज्जगुणं सासारिमेरुमित्ताणं' है कि यदि कर्मों की अत्यधिक निर्जरा करनी हो, तो सम्यग्दर्शन के बाद सम्यक्चारित्र धारण करना अनिवार्य है। उपर्युक्त बिम्बों की सृष्टि उपमा अलंकार के द्वारा की गई है। 'भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण' (भावपाहुड़, ८८) (भङ्ग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन) यहाँ मनोमर्कट रूपक में मन का चंचल स्वभाव 'मर्कट' शब्द में मूर्त हो गया है। इस शब्द के श्रवण से मर्कट की छवि के साथ उसकी चंचल प्रवृत्ति का चक्षुपरक बिम्ब मानसपटल पर उभरता है, उससे मन का चंचलस्वभाव प्रतिभासित हो उठता है। मन की अविवेकशीलता भी व्यंजित होती है। अमूर्त चंचल की यह मूर्तरूप में अभिव्यक्ति रूपक अलंकार पर आश्रित है । 'जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ।' जीवविमुक्तः शवको दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवक । (भावपाहुड़ १४१ ) 'जीवरहित शरीर शव है और सम्यग्दर्शनरहित शरीर चलता-फिरता शव है।' इस उदाहरण में चलशवकः (चलती-फिरती लाश ) शब्द में सम्यक्त्वविहीन मनुष्य के जीवन की निस्सारता, हेयता, अमंगलमयता, अपवित्रता, अपूज्यता, एवं अदर्शनीयता के भाव मूर्त हो गये हैं। ये सब भाव इस शब्द के पठन - श्रवण से निर्मित चाक्षुष बिम्ब के द्वारा हृदय में उतर जाते हैं और सम्यक्त्वविहीन जीवन वास्तव में निस्सार प्रतीत होने लगता है। इस बिम्ब का आधार भी रूपक अलंकार है । निष्कम्प जलते दीपक के बिम्ब में ध्यान का स्वमूर्तिमान् हो उठा है रूप जह दीवो गब्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ॥ ( भावपाहुड़ १२१ ) जैसे गर्भगृह में रखा दीपक हवा के झौकों के अभाव में निष्कम्प जलता है, वैसे ही रागरूपी वायु के अभाव में ध्यानरूपी दीपक भी प्रज्वलित होता है । (चारित्तपाहुड़, १९) (सङ्ख्येयामसङ्ख्येयगुणां सर्षपमेरुमात्रां णं) यहाँ संख्यातगुणी निर्जरा की अत्यल्पता और असांख्यातगुणी निर्जरा की प्रचुरता के भाव सर्षप (राई) और मेरु शब्दों के द्वारा मूर्तरूप में व्यक्त किये गये हैं । 'सर्षप' और 'मेरु' शब्दों के श्रवण से उनके सूक्ष्म और दीर्घ आकारों के चाक्षुष बिम्ब मन में उपस्थित होते हैं । उनसे उपर्युक्त निर्जराओं की मात्रा में जो विशाल अन्तर है, उसकी प्रतीति हो जाती है। इससे यह प्रेरणा मिलती । के चित्तविक्षेपकारी स्वरूप का आभास कराता है । जैसे 20 अक्टूबर 2008 जिनभाषित यहाँ निष्कम्प जलते दीपक के बिम्ब द्वारा ध्यान स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। दीपक की ज्योति के निष्कम्प हो जाने के समान चित्तवृत्ति का आत्मा में स्थिर हो जाना ध्यान है। हवा के झौंकों का बिम्ब राग के Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवा के झोंके दीपक की ज्योति को स्थिर नहीं होने | जलमग्न पाषाण के स्वभाव द्वारा कितनी स्पष्टता से हो देते, वैसे ही राग चित्तवृत्ति को स्वभाव में स्थिर नहीं जाता हैहोने देता। हवा के झौंकों के अभाव में दीपक के निष्कम्प जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकाल्मुदएण। जलने का बिम्ब राग के अभाव में चित्तवृत्ति के स्थिर तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीषहेहिंतो॥ हो जाने (ध्यान के सिद्ध हो जाने) के स्वरूप को स्पष्ट (भावपाहुड़, ९६) करता है। जैसे पाषाण चिरकाल तक जल में डूबे रहने पर ___जपापुष्पादि परद्रव्य के सम्पर्क से स्फटिकमणि | भी विदीर्ण नहीं होता, वैसे ही साधु उपसर्ग-परीषहों से के रंग-बिरंगे हो जाने के बिम्ब द्वारा आत्मा के विभाव- | आक्रान्त होने पर भी क्षुब्ध नहीं होता। परिणमन-स्वभाव की मूर्तरूप में प्रतीति करायी गयी है- | पाषाण के बिम्ब में साधु की परीषहजयदृढ़ता मूर्त जह फलिहमणि विसद्धो परदव्वजदो हवेड अण्णं सो। हो गई है। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो॥ जलगत कमलिनीपत्र के स्वभाव का दृश्य मन (मोक्खपाहुड़ ५१) | में उपस्थित होते ही सम्यग्दृष्टि के वैराग्यभाव का रूप जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से स्वच्छ होने के कारण | हृदय में उतर जाता हैस्वयं रंग-बिरंगा नहीं होता, अपितु जपापुष्पादि परद्रव्य जह सलिलेण ण लिप्पड़ कमलणिपत्तंसहावपयडीए। के सम्पर्क से होता है, वैसे ही आत्मा स्वभाव से शुद्ध तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो॥ होने के कारण स्वयं रागादिरूप परिणमित नहीं होता, (भावपाहड़, १५२) अपितु रागादिप्रकृत्यात्मक पुद्गलकर्मों के सम्पर्क से जैसे कमलिनी पत्र जल में रहते हुए भी स्वभावतः होता है। जललिप्त नहीं होता, वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव विषयभोग स्फटिकमणि की स्वच्छता के बिम्ब द्वारा आत्मा करते हुए भी स्वभावतः उनमें आसक्त नहीं होता। की स्वाभाविक शुद्धता (रागादिशून्यता) का रूप दर्शाया जब तक मोक्ष-साधना-योग्य सामग्री (द्रव्य, क्षेत्र, गया है। जपापुष्पादि का बिम्ब कर्मों की रागादिप्रकृत्या- | काल, भाव, उत्तमसंहननादि) प्राप्त नहीं हो जाती, तब त्मकता का अनुभव कराता है। तथा जपापुष्पादि के सम्पर्क | तक अव्रतों के द्वारा नरक में जाने की बजाय व्रतों के से स्फटिकमणि के रंग-विरंगे हो जाने का बिम्ब कर्मों | द्वारा स्वर्ग में जाना क्यों अच्छा है? इसका समाधान आचार्य के निमित्त से आत्मा के रागादिरूप परिणमित हो जाने | कुन्दकुन्द ने धूप में बैठकर साथी की प्रतीक्षा करनेवाले के विभावपरिणमन-स्वभाव को स्पष्ट कर देता है। तथा छाया में बैठकर प्रतीक्षा करनेवाले पुरुषों की स्थिति कर्मक्षय हो जाने पर पुनर्जन्म नहीं होता, इस अमूर्त | का बिम्ब उपस्थित कर बड़े प्रभावशाली ढंग से किया तथ्य को मूर्त पदार्थ के स्वभाव द्वारा स्पष्ट करने के | लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने जले हुए बीज के पुनः भूमि वरवयतवोहि सग्गो मा दक्खं होउ निरड इयरेहिं। में अंकुरित न होने का दृष्टान्त दिया है, जो अपने बिम्ब- छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं॥ वैशिष्ट्य से उक्त तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम करा (मोक्खपाहुड़, २५) देता है जिनागम से जुड़े रहने का लाभ धागे से संयुक्त जह वीयम्मि य दड्डे ण वि रोहइ अंकुरो य महीवीढे। | सुई की स्थिति से प्रकट हो जाता हैतह कम्मवीयदड्ढे भवंकुरो भावसमणाणं॥ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। (भावपाहुड़, १२४) | सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि॥ बीज का बिम्ब कर्मों की पुनर्जन्महेतुता का द्योतन (सुत्तपाहुड़, ३) करता है। उसके दग्ध होने का बिम्ब कर्मों के नष्ट जिस प्रकार धागे से संयुक्त सुई खो नहीं पाती, होने तथा परिणामस्वरूप पुनर्जन्म का अभाव हो जाने | उसी प्रकार जिनसूत्र से जुड़ा जीव भवसागर में विलीन के स्वरूप को स्पष्ट करता है। नहीं होता। साध की परीषहजयदृढता के स्वरूप का अनुभव बिम्बों के माध्यम से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अक्टूबर 2008 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अविनाभाव सम्बन्ध की प्रतीति निम्न गाथा में करायी । लोकोक्ति-आश्रित बिम्ब गयी है। 'गुड़-दूध पीने पर भी साँप निर्विष नहीं होता' जह फुल्लं गन्धमयं भवदि हु खीरं घियमयं चावि। इस लोकोक्ति का बिम्बवैशिष्ट्य जिनधर्म की विशेषता तह दसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥ और अभव्य जीव के स्वभाव की अनुभूति कराता है (बोहपाहुड़, १५) | ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ट वि आयण्णिऊण जिणधम्म । जैसे फूल गन्धमय और दूध घृतमय होता है, वैसे | गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति॥ ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानमय होता है। वह सम्यग्दर्शन (भावपाहुड, १३६) यति. श्रावक और असंयतसम्यग्दृष्टि के स्वरूप में स्थित 'गुड़-दूध' का बिम्ब जिनधर्म की सुखप्रदता एवं कल्याणकारिता की व्यंजना करता है। साँप के बिम्ब लक्षणाश्रित बिम्ब से अभव्य जीव के अत्यन्त घातक मिथ्यात्व से युक्त सोने और जागने की शारीरिक क्रियाओं से निर्मित होने की प्रतीति होती है। तथा गुड-दूध पीने पर भी बिम्बों में आचार्यश्री ने उदासीन और सावधान रहने के | साँप के निर्विष न होने का बिम्ब अभव्य जीव के इस भावों को मूर्त रूप दिया है कुस्वभाव की स्वाभाविकता को बुद्धिगम्य बनाता है कि जो सत्तो ववहारे सो जोड़ जग्गए सकज्जम्मि। वह अत्यन्त हितकारी जिनधर्म का श्रवण करने पर भी जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे॥| मिथ्यात्व नहीं तजता। (मोक्षपाहुड़, ३१) अष्टपाहुड़ में उपलब्ध बिम्बविधान के ये कुछ जो योगी लौकिक कार्यों में उदासीन रहता है, | निदर्शन हैं। इनसे आचार्य कुन्दकुन्द की काव्यप्रतिभा का वह स्वकार्य में अर्थात् कर्मक्षयसाधना में सावधान रहता | साक्षात्कार हो जाता है। मन का चंचलस्वभाव, सम्यक्त्वहै। जो लौकिक कार्यों में जागरूक रहता है, वह स्वकार्य | हीन मनुष्य के जीवन की निस्सारता, अपवित्रता एवं में उदासीन रहता है। अपूज्यता, आत्मा की विभावपरिणमनशीलता, कर्मों की मुहावराश्रित बिम्ब पुनर्जन्म-हेतुता, साधु की परीषहजयदृढ़ता, सम्यग्दृष्टि की आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्ट पाहुड़ों में अनेक मुहावरों अनासक्तता, चित्तवृत्ति की एकाग्रता, अव्रतों और व्रतों का प्रयोग किया है जिनसे सुन्दर बिम्ब निर्मित हुए हैं। का फर्क इत्यादि आध्यात्मिक एवं अतीन्द्रिय भावों के एक उदाहरण द्रष्टव्य है स्वरूप को मूर्त पदार्थों के स्वभाव एवं अवस्थाओं के 'आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।' द्वारा हृदयंगम बनाने में आचार्य कुन्दकुन्द ने अप्रतिम ___ (दंसणपाहुड़, ४) | शैलीय कौशल दिखलाया है। उन्होंने अमूर्त आध्यात्मिक जिनशास्त्र में श्रद्धा से रहित जीव वहीं-वहीं भटकते | भावों को मूर्त पदार्थों और उनकी अवस्थाओं के बिम्बों रहते हैं। द्वारा मूर्त कर दृश्यमान सा बना दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द वहीं-वहीं भटकने' के मुहावरे से निर्मित चाक्षुष | के बिम्ब अधिक सजीव एवं ऐन्द्रिय हैं, उनमें वैचित्र्य बिम्ब द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव के संसार में ही भटकते | एवं वैविध्य की प्रचुरता है। इससे उनकी सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति रहने, मोक्ष प्राप्त न कर पाने का भाव मूर्त हो गया | का परिचय मिलता है। ए / 2, शाहपुरा, भोपाल म.प्र. कबीर-वाणी गरवा तो घर घर फिरै, दीक्षा हमरी लेह। कै बूड़ो के ऊबरौ, टका पर्दनी देहु ॥ सतगुरु ऐसा कीजिए, जाका पूरन मन्न। अनतौले ही देते हैं, नाम सरीखा धन्न। गुरु मिला तब जानिये, मिटे मोह मन-ताप। हरष शोक व्यापै नहीं, तब गुरु आपै आप॥ 22 अक्टूबर 2008 जिनभाषित - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एकता के लिए ठोस एवं प्रभावी प्रयास करें सुरेश जैन, आई. ए. एस. (से.नि. ) यह अत्यधिक सराहनीय है कि कमेटी ने नव निर्वाचित अध्यक्ष श्री आर. के. जैन ने घोषित किया है कि नई कमेटी में तन से, मन से और धन से योगदान देनेवाले व्यक्ति सम्मिलित किए गए हैं। अतः भूतकाल में जो परिणाम पाँच साल में आये थे, वे एक साल में नजर आने लगेंगे। वर्तमान ध्रुवफण्ड में से भविष्य में कोई व्यय नहीं किया जावेगा। नई राशि एकत्रित कर तीर्थों की सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार के कार्यों पर व्यय की जावेगी । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के मुखपत्र 'जैन तीर्थ वंदना,' (अगस्त, २००८) में कमेटी के महामंत्री श्री चक्रेश जैन ने कमेटी की प्राथमिकता का उल्लेख करते हुए बताया है कि सीधे एवं सकारात्मक संवादों के माध्यम से तीर्थों के विवाद समाप्त हों। हम उनकी इस घोषणा का स्वागत करते हैं। इसी पत्रिका में मध्यप्रदेश में स्थित जैन अतिशय क्षेत्र मक्सी पार्श्वनाथ में हुए विवाद समापन की शुरुआत का उल्लेख श्री बाहुबली पाण्डया ने किया है। इस क्षेत्र के विवाद को समाप्त करने में आध्यात्मिक क्षेत्र में सुस्थापित आचार्य श्री पद्मसागर जी एवं मुनिराज श्री क्षमासागर जी के आशीर्वाद ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। स्थानीय न्यायाधीश श्री गंगाचरण दुबे की प्रेरणा एवं इस क्षेत्र पर पूर्ण निष्ठापूर्वक कार्यरत श्री मदनलाल दलाल एवं श्री पद्मकुमार पाटोदी के सतत प्रयत्न अत्यधिक सराहनीय एवं अनुकरणीय रहे हैं। श्री दलाल ने ७० के दशक में देवास में मेरे साथ पाँच वर्ष तक सफलतापवूक शासकीय कार्य करते हुए ग्रामीण विकास के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अनेक अवसरों पर मक्सी पहुँचकर मुझे एवं मेरी पत्नी श्रीमती विमला जैन को १२५ वर्ष पुराने विवाद के समाधान में श्री दलाल एवं श्री पाटोदी को मार्गदर्शन देने ओर विवाद समाप्त होने पर बधाई देने का सुअवसर प्राप्त हुआ है । राष्ट्रीय नेतृत्व से मेरा निवेदन है कि सामाजिक एकता में असाधारण योगदान देनेवाले इन दोनों समाजसेवकों का सम्मान राष्ट्रीय स्तर पर किया जाय । श्री दीपचन्द्र गंगवाल ने अपने आलेख तीर्थ संरक्षण और हमारे दायित्व में अपेक्षा की है कि धर्म, तीर्थ संरक्षण और समाज की चतुर्मुखी प्रगति के लिए सौहार्द्र, प्रेम और सहयोगपूर्वक कमेटी को आगे बढ़ना होगा। सम्पूर्ण राष्ट्र में फैले हुए कमेटी के ३२०० सदस्यों को अपने कर्त्तव्यों को समझना होगा। जैन दर्शन, धर्म, संस्कृति और इतिहास का ज्ञान प्राप्त करना होगा। संयमित जीवन जीने की कला सीखना होगी। उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण सलाह दी है कि समाज के विशाल भवनों में विश्व स्तर के तकनीकी एवं प्रशासनिक शिक्षा के केन्द्र खोले जायें । यह उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बरसंघ की ओर से श्री ललित नाहटा ने स्थूलभद्रसंदेश वर्ष १२ अंक८, अगस्त, २००८ में प्रकाशित अपने संपादकीय में यह विश्वास प्रगट किया है कि श्री आर. के. जैन धार्मिक झगड़ों को मिटाने की हार्दिक इच्छा रखते हैं और उन्हें निश्चित रूप से अपने प्रयासों में सफलता मिलेगी और सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्मित होने पर जैनसंघ अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा। श्री नाहटा का यह सकारात्मक संकेत अत्यधिक सराहनीय और सभी पक्षों के लिए अनुकरणीय है। जैन समाज के राष्ट्रीय नेताओं का तीर्थसंरक्षण का उत्तरदायित्व केवल न्यायालय में मामला प्रस्तुत कर देने से ही पूरा नहीं हो जाता हैं। सभी घटक अपने तीर्थों के विवादों को हल करने के लिए केवल न्यायालय और वकीलों के ऊपर ही निर्भर न रहे। हमारे समाज के वरिष्ठ न्यायाधीश, प्रशासक पुलिस, आयकर अधिकारी एवं प्रबुद्ध व्यक्ति भी इन विवादों के समाधान में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका वहन कर सकते हैं। इस अभियान में समाज के सभी प्रमुख व्यक्तियों को अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। तीर्थों के विवाद पर बहस का समय अब गुजर चुका है। अब गुणवत्तापूर्ण क्रियान्वयन एवं जवाबदेही का समय आ चुका है। एकता को हम सामाजिक गौरव का विषय बनायें। सभी पक्षों के बीच एकता का माहौल बनाने के लिए सतत प्रयास करें। एकता के प्रयत्नों को प्रोत्साहित करें। हमारा नेतृत्व दिगम्बर और श्वेताम्बरों के बीच विद्यमान छोटे से छोटे संदेह को सतत बातचीत और संपर्क के माध्यम से दूर करे। हम ऐसे संदेहों की ओर अक्टूबर 2008 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरा ध्यान दें। संदेह के बिन्दुओं पर बिना किसी संकोच | सहानुभूतिपूर्ण संबंध बनायें। सभी को हार्दिक सहयोग के यथाशीघ्र चर्चा करें। सभी पक्ष दिल खोलकर आपस | दें। समाज के विभिन्न घटकों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता, में मिलें। पूरा मुँह खोलकर बोलें। विशेषतः सभी संतजन | विसंगतिपूर्ण, विचारहीन और अविवेकपूर्ण परिस्थितियाँ और सभी नेतागण संदेह के चश्में को सदैव अपनी आँखों | जन्म न लेने दें। सभी के साथ संगठित और संघबद्ध पर चढ़ाकर न रखें। ऐसे चश्में को अपनी आँखों के | होकर चलें। हमारी यह सामाजिक एकता विपरीत नीचे उतारे। अतीत में दोनों पक्षों के मन में घुसे संदेह | परिस्थितियों में हमें एकजुट बनाये रखेगी और विकास के घुन को बाहर निकालें। ऐसे संदेह के द्वारा अपनी | एवं प्रगति के नए आयाम खोल देगी। सच्चे मन से चेतना को कुतरने से बचाएँ। संदेह के धीमें जहर से | तालमेल की भावना और विचार हमें कुछ नया सोचने छुटकारा पाने के लिए ठोस एवं प्रभावी प्रयत्न करें। और नया करने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करेंगे। हम अपनी उच्च स्तरीय चेतना और व्यक्तित्व को नए | नई योजना बनाने और अपने व्यक्तित्व की गहराई में आयाम देते हुए पक्के तौर पर विश्वास करें कि कोई | झाँकने का अवसर प्रदान करेंगे। भगवान् महावीर की भी पक्ष निम्न स्तरीय कार्य नहीं करता है। संदेह के | वाणी से ओतप्रोत मेरीभावना और सामायिक पाठ का धत पक्ष के वरिष्ठ प्रतिनिधियों से | हम प्रतिदिन पठन, मनन और चिंतन करें। अपने आंतरिक अच्छी तरह से चर्चा कर सही बात की जानकारी प्राप्त | व्यक्तित्व का सदैव अवलोकन एवं मूल्यांकन करें। अति करें। सहज, सुगम और सरल बनें। प्रतिदिन नए संकल्प के मनशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि के उद्घोष | साथ सामाजिक एकीकरण के लिए छोटे से छोटा नया के साथ हम समाज के सभी घटकों के बीच तालमेल | कार्य प्रारंभ करें। ऐसे विचारों और कार्यों से सामाजिक बनायें। सभी के साथ प्रेम, आत्मीयता, उदारता और | एकता को ऊर्जा प्रदान करें। ३० निशात कॉलोनी, भोपाल बुन रही मकड़ी समय की मनोज जैन 'मधुर' पूछकर तुम क्या करोगे मित्र मेरा हाल उम्र आधी मुश्किलों के बीच में काटी पेट की खातिर चढ़े हैं दर्द की घाटी पीर तन की खींच लेती रोज थोड़ी खाल कब हमें मिलती यहाँ कीमत पसीने की हो गई आदत घुटन के बीच जीने की इस उमर में पक गए हैं खोपड़ी के बाल आग खाते हम, जहर के चूंट पीते हैं। रोज मरते हम यहाँ हर रोज जीते हैं बुन रही मकड़ी समय की वेदना का जाल दर्द को हम ओढ़ते, सोते, बिछाते हैं रोज सपना दूर तक हम छोड़ आते हैं जी रहे अब तक बनाकर धैर्य को हम ढाल। सी एस-१३, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दूल्हा भोपाल- ४६२०१० (म.प्र.) 24 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान सूतक-पातक ___पं० जवाहरलाल जी भीण्डर (राज.) शंकाकार- श्रीयुत आदेश्वरलाल सिंघवी, प्राध्यापक । दूसरी ओर हेमराज के दूसरे पुत्र गोकुल थे। जिनके संस्कृत, भीण्डर। | पुत्र गणेशलाल। गणेशलाल के पुत्र आदेश्वरलाल। विस्तृत शंका- असीम कृपा करके आप निम्न | आदेश्वरलाल के पुत्र विकास तथा विकाश की पुत्री निधी शंका का समाधान करने की कृपा करें। शंका सूतक | है। स्मरणीय है कि आदेश्वरलाल, विकास तथा निधि पातक के विषय से सम्बद्ध है। तीनों जीवित है तथा एक ही परिवार में रहते हैं। पं० मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार के छठे | १. ऐसी स्थिति में यह मार्गदर्शन करावें कि पीढ़ियों अधिकार में (श्लोक २५७-२६१) तथा उसके बाद | की गिनती कैसे की जाए? जीतमल की कौनसी पीढ़ि त्रिवर्णाचार, किशनसिंह क्रियाकोश में भी सूतकपातक | है? मिश्रीलाल की कौनसी पीढ़ी है? इस तरह चलतेका विधान है। व्रतविधानसंग्रह तथा प्रायश्चित्तसंग्रह में | चलते अंगुरवाला की कौन सी पीढ़ी होगी? भी विधान है। तदनुसार सूतक पातक का काल प्रमाण २. अंगुरवाला की उत्पत्ति (जन्म, प्रसूति) होने पीढ़ियों के अनुसार निम्न है | पर श्री आदेश्वरलाल का प्रश्न है कि आदेश्वरलाल को पीढ़ियाँ जन्म का सूतक मरण का सूतक | कितने दिनों का सूतक लगेगा? तीन पीढ़ी तक १० दिन १२ दिन ३. अंगुरवाला के जन्म पर, अंगुरवाला को आदेश्वरचौथी पीढी १० दिन १० दिन लाल पाँचवीं पीढ़ी माने या चौथी पीढ़ी या दूसरी पीढ़ी? पाँचवीं पीढ़ी ६ दिन । ६ दिन क्योंकि मिश्रीलाल से अंगुरवाला पर्यन्त की चार पीढ़िये छठी पीढ़ी ४ दिन ४ दिन जीवित हैं तथा एक ही संयुक्त परिवार में रहते हैं। सातवीं पीढ़ी ३ दिन ३ दिन ४. आदेश्वर, विकास तथा निधि ये तीनों पीढ़ियाँ आठवीं पीढ़ी १ दिन रात १ दिन रात । जीवित हैं तथा एक ही परिवार में संयुक्त रहते हैं अत: नौवीं पीढ़ी २ प्रहर (छः घंटा) २ प्रहर इन तीनों को तो एक ही प्रकार का सूतक-पातक लगेगा। दसवीं पीढ़ी स्नान मात्र स्नान मात्र यह बात तो तर्क से ठीक बैठती है क्योंकि एक ही मटकी का पानी पीनेवाली ये ३ पीढियाँ भिन्न-भिन्न ___ अब मुझे केवल प्रश्न यह करना है कि पीढ़ियाँ । (असमान) दिनों का सूतक पातक पाले, यह बात तो कैसे गिनी जाए तब तक नहीं बन सकती, जब तक तक ये अलगजैसे निम्न वंशावली एक गृहस्थ की है अलग नहीं रहने लगें। हेमराज सिंघवी इस प्रकार जिनके यहाँ प्रसूति नहीं है, (परन्तु जीतमल गोकुल | अन्य जनों-वंशजो-गोत्रियों के यहाँ प्रसूति हुई है) ऐसे मिश्रीलाल गणेशलाल एक संयुक्त परिवारी पिता, पुत्र, पौत्र को तो समान दिनों का सूतक तर्क बल से मानना न्याय संगत पडता है। भंवरलाल आदेश्वरलाल परन्तु जिनके यहां प्रसूति हुई है और उस प्रसूतिगृह में ऋषभकुमार विकास संयुक्त परिवार है तथा चार पीढ़ी तक का प्रौढ़तम व्यक्ति अंगुरवाला (नवजात शिशु) निधि जीवित है, वैसी स्थिति में समस्या यह आती है कि उक्त आलेख चित्र के अनुसार स्व० हेमराज के पीढ़ी की गिनती कैसे की जाए? जिसे गिनकर अन्य दो पुत्र हुए जीतमल तथा गोकुल फिर जीतमल के पुत्र सगोत्री सूतक पालें। मिश्रीलाल, मिश्रीलाल के पुत्र भंवरलाल तथा भंवरलाल मूल तथा मुख्य प्रश्न यह है कि आदेश्वरलालजी के पुत्र ऋषभकुमार हुए। अभी ऋषभकुमार के यहाँ पुत्री | का कितन | को कितने दिनों का सूतक मानना चाहिए, जबकि का जन्म (नाम अंगुरबाला) हुआ है। मिश्रीलाल जी. | अंगुरवाला नामक पुत्री की उत्पत्ति हुई है। यहाँ स्मरणीय १ भंवरलाल, २ ऋषभलाल ३ अंगुरवाला ४ ये चारों | में है कि मिश्रीलाल से अंगुरवाला तक की ४ पीढ़ियाँ जीवित जीवित हैं तथा एक ही परिवार में रहते है। । हैं तथा संयुक्त परिवार स्वरूप हैं? अक्टूबर 2008 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथासंभव आगमप्रमाण सहित या स्व-अनुभव से उत्तर देकर महान् अनुग्रह करें, इतनी करबद्ध प्रार्थना है। समाधान विभिन्न समाधान- (अ) १. पूज्य विशुद्धमति जी माताजी (तिलोय पण्णती टीकाकार) कहती हैं कि अंगुरवाला की उत्पत्ति पर आदेश्वरलाल को १० दिनों का सूतक लगेगा। इनके मतानुसार जिनके घर सन्तान हुई है उसकी पीढ़ियाँ नहीं गिनकर, जिनको सूतक पालना है वह अपनी पीढ़ियाँ गिने। यानी आदेश्वर आदेश्वर की पीढ़ियाँ गिने, तो गोकुल १, गणेशलाल २ तथा आदेश्वर ३ इस तरह आदेश्वर तीसरी पीढ़ी में है । अतः तीन पीढ़ीवालों को १० दिन का सूतक लगेगा। इस तरह माताजी पीढ़ियाँ 'गोकुल' से गिनती हैं तथा जिस घर में सन्तान हुई हो उस तरफ की पीढ़ियाँ नहीं गिनकर, सामनेवाले की पीढ़ियाँ गिनकर सूतककाल का विचार करती हैं। (ब) पूज्य ब्र. सर्वोपरि प्रतिष्ठाचार्य बाबाजी सूरजमलजी निवाई (टोंक) राज० का भी यही मत है कि श्री आदेश्वरलाल सिंघवी को दस दिन का सूतक पालना पड़ेगा। इतनी विशेषता है कि वह कहते है कि पीढ़ियाँ हेमराज से गिननी चाहिए। यही बात स्व० आचार्य वीरसागरजी जी कहते थे तथा चा०चा० स्व० शान्तिसागर महाराज भी केवला (महाराष्ट्र) प्रवास के समय कहते थे, अतः आदेश्वर चौथी पीढ़ी में है । और चौथी पीढ़ी का १० दिन का सूतक उसे पालना होगा । यथा हेमराज १, गोकुल २, गणेश ३, आदेश्वर ४, इस तरह चौथी पीढ़ी हुई। इस प्रकार १०५ विशुद्धमतिजी तथा बाबा सूरजमल जी दोनों समान रूप से आदेश्वर के लिए १० दिनों का सूतक बताते हैं । । अंगुरबाला तक इसलिए गिनी जाएँगी, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी में खून बदलता जाता है, दायित्व बदल जाते है तथा मोह भिन्न होता जाता है। नोट- वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य श्रद्धेयतम पं० नाथूलाल जी शास्त्री साहब इन्दौर का भी यही मत है । वे लिखते है कि हेमराज से अंगुरवाला छठी पीढ़ी होने से आदेश्वर को छठी पीढ़ी का ४ दिन प्रमाण ही सूतक लगेगा | हाँ, यदि मिश्रीलाल जी तथा आदेश्वर जी का परिवार संयुक्त परिवार के रूप से रहते हैं- साथ-साथ रहते हैं, तो आदेश्वर को १० दिनों का सूतक लगेगा । विशेष- किशनदास कृत क्रियाकोष के अनुसार कुटुम्बी आदेश्वर को ५ दिन का सूतक लगेगा। यह भिन्न मत है। इस प्रकार आ. कुंथूसागर जी ब्र० जगन्मोहनलाल जी तथा प्रतिष्ठाचार्य नाथूलाल जी शास्त्री । इन तीनों का लगभग एक समान मत है। समाधान (३) स्व० आ० महावीरकीर्ति जी महाराज आ० १०८ विमलसागर जी महाराज ( उनका सम्पूर्ण संघ ) तथा आ० सुमति सागर महाराज ( तथा उनका सकल संघ ) मधुबन - शिखरजी तथा आ० १०८ संभवसागर महाराज ( त्रियोग आश्रम) : इन सब आचार्यों का मत भी समाधान नं. २ से मिलता जुलता ही है। अन्तर मात्र इतना ही है कि ये चारों आचार्यश्री पीढ़ियाँ हेमाराज से न गिनकर जीतमल से गिनते हैं। इस तरह इन चार आचार्यों (पूज्य महावीरकीर्ति, विमलसागर, सुमतिसागर, संभवसागर चतुष्टय) के मतानुसार अंगुरवाला की उत्पत्ति पर आदेश्वर को, ६ दिन का सूतक लगेगा। क्योंकि जीतमल से अंगुरवाला पाँचवी पीढ़ी में आती है । अतः पाँचवीं पीढ़ीवालों को ६ दिन का सूतक पालना है पाँच पीढ़ी इस तरह हैं- जीतमल १, मिश्रीलाल २, भंवरलाल ३, ऋषभकुमार ४, अंगुरवाला ५ । इन आचार्यों के मत से भी जिनके यहाँ प्रसूति हुई हो उसी के घर की पीढ़ियाँ (जीतमल से अंगुरवाला तक) गिनी जाती हैं। चाहे बुजुर्ग जीवित हों, पीढ़ियाँ तो नवजात शिशु तक ही गिनी जाएँगी, और तदनुसार ही सूतक का निर्णय होगा। यह इन आचार्यचतुष्टय का मत है । समाधान- (२) १०८ गणधराचार्य कुन्थुसागर तथा ब्र० पं० जगन्मोहनलालजी सिं० शास्त्री कटनी (जबलपुर) का कहना है कि पीढ़ियाँ हेमराज से ही गिनी जानी चाहिए। दूसरी बात वे यह कहते हैं कि पीढ़ियाँ उसी की गिननी चाहिए जिसके घर प्रसूति ( सन्तानोत्पत्ति) हुई है। इसतरह हेमराज से अंगुरबाला छठी पीढ़ी होती । तथा छठी पीढ़ी का सूतक चार दिनों प्रमाण ही होने से आदेश्वर को ४ दिन का सूतक ही लगेगा । इनका यह भी कहना है कि चाहे मिश्रीलाल जीवित हो, परन्तु पीढ़ियाँ अंगुरवाला तक गिनी ही जाएँगी। ये बड़े वैज्ञानिक तर्कों से सिद्ध करते हैं कि पीढ़ियाँ । इस समाधान से लाभान्वित होंगे। 26 अक्टूबर 2008 जिनभाषित जवाहरीय नोट- मैंने सूतक पातक सम्बन्धी उक्त विविध विद्वानों के समाधान प्राप्त करने में वचनातीत परिश्रम किया है। इन सब समाधानों को प्राप्त करने में मुझे लगभग वर्ष भर लगा है। आशा है पाठक, श्रावक : Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्त्ता - सतीशचन्द्र जैन, किरावली । जिज्ञासा - तीर्थंकर की दिव्यध्वनि दिन में कितनी बार खिरती है ? समाधान- इस सम्बन्ध में आचार्यों के विभिन्न मत हैं। जैसे- १. तिलोयपण्णत्ति में इस प्रकार कहा हैपठादीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि । णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणयं ॥ ९०३ ॥ सेसेसु सम एसुं गणहर देविंदचक्कवट्टीणं । पहाणु रूपमत्यं दिव्वझुणी आ सत्त मंगीहि ॥ ९०४ ॥ अर्थ - भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्याकाल में ९ मुहूर्त तक निकलती है। (अर्थात् ९ मुहूर्त = १८ घड़ी = ६-६ घड़ी तीन बार ) और एक योजन पर्यंत जाती है। इससे अतिरिक्त गणधर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। २. श्री अनगारधर्मामृत पृष्ठ - ९ पर इस प्रकार कहा है पुव्वहे मज्झ अवरण्हे मज्झिमाए रत्तीए । छच्छघडियाणिग्गय दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थे ॥ अर्थ- यह दिव्यध्वनि प्रातः, मध्यान्ह, सायं और रात्रि के मध्य में छह-छह घड़ी तक अर्थात् एक बार में एक घण्टा ४४ मिनिट तक खिरती है, ऐसा आगम में कथन है। ३. श्रीशुभचन्द्र रचित 'अंगप्रज्ञप्ति' में इस प्रकार कहा हैतित्थयरस्स तिसंझे णाहस्स, सुभज्झिमाय रत्तीए । बारह सहासु मज्झे छग्घडिया, दिब्ब झुणि कालो ॥ ४१ ॥ होदि गणि चक्किमहवथ ण्हादो, अण्णदाबि दिब्बं झुणि। अर्थ- तीर्थंकर नाथ का बारह सभाओं में दिव्यध्वनि काल तीनों संध्या और अर्द्धरात्रि में छह-छह घड़ी का है। तथा गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र के प्रश्न से अन्य समय में भी दिव्यध्वनि हो जाती है। ४. गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा नं. ३५६-३६१ की टीका में भी उपर्युक्त प्रकार से ही, दिन में छहछह घड़ी चार बार होने का उल्लेख किया गया है। ५. श्री जयधवला पु. १ पृष्ठ १२६ पर इस प्रकार पं. रतनलाल बैनाड़ा कहा है 'वह दिव्यध्वनि सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक हैं, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं ( अनन्त पदार्थों का वर्णन है), जिसका शरीर बीज पदों से घड़ा गया है, जो प्रातः मध्याह्न और सायंकाल इन तीन संध्यायों में छह-छह घड़ी तक निरन्तर खिरती रहती है। और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधर देव संशय, विपयर्य, अनध्यवसाय को प्राप्त होने पर उनके संशय आदि को दूर करने का जिसका स्वभाव संकर ओर व्यतिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और अध्ययनों के द्वारा धर्मकथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार स्वभाववाली दिव्यध्वनि समझनी चाहिए ।' उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार विभिन्न आचार्य दिव्यध्वनि का काल छह-छह घड़ी चार बार तथा छहछह घड़ी तीन बार, इस प्रकार निरूपण करते हैं। जिज्ञासा - भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर २४ जिनालय बनवाये थे या ७२ बनवाये थे ? समाधान- इस संबंध में निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं१. उत्तरपुराण सर्ग - ४८ में इसप्रकार कहा है राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं कैलासे भरतेशिना । गृहाः कृता महारनैश्चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ १०७॥ तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम् । इति तेऽपि तथा कुर्वन् दण्डरत्नेन सत्वरम् ॥ १०८ ॥ अर्थ- तब राजा ने आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलास पर्वत पर महारत्नों सें अरहन्त देव के चौबीस मंदिर बनवाये हैं, सो तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को उन मंदिरों की परिखा बना दो। उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया। २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृष्ठ २४७ पर परिग्रहपरिमाण व्रत में प्रसिद्ध जयकुमार की कथा में इसप्रकार कहा है 'एक बार जयकुमार और सुलोचना कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा स्थापित २४ जिनालयों की वन्दना करने के लिए गये। ' ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोक नं. ६४ की अक्टूबर 2008 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। टीका करते हुए पं० सदासुखदास जी ने कैलाश पर्वत । है कि इसका काल अन्तमुहूत होने से इस सम्यक्त्व पर २४ जिनालयों का उल्लेख किया है। में सोलहकारण भावना नहीं भा सकते। अतः इस सम्यइस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार भरत | क्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता ऐसा किसी चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर २४ जिनालय बनवाये थे। का अभिप्राय हो यही विचार करके पृथक् कहा।' इस ७२ जिनालय बनवाने के निम्न प्रमाण भी उपलब्ध होते प्रकार किन्हीं आचार्यों ने कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के १. भरतेश वैभव भाग-३, पृष्ठ-१०२ पर इस प्रकार | काल में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध होने के सम्बन्ध में कहा है- 'कैलाश पर्वत पर सम्राट की आज्ञानुसार ७२ | एक मत नहीं है। जिनमन्दिरों का निर्माण हुआ।' जिज्ञासा- अपहृत संयम और उपेक्षा संयम में २. ब्र० लामचीदास द्वारा लिखित 'कैलाशयात्रा का क्या अंतर है? वर्णन' की पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार समाधान- कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा-३९९ की टीका लगभग २५० वर्ष पूर्व, वे एक व्यंतर देव के द्वारा कैलाश में इसप्रकार कहा है- 'संयम के दो भेद हैं- उपेक्षा पर्वत पर ले जाये गये थे और उन्होंने स्वयं अपनी आँखों संयम और अपहृत संयम। उनमें तीन ग से भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाये गये स्वर्ण और रत्नमयी | मुनि कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो रागद्वेष का त्याग ७२ जिनालयों का साक्षात् दर्शन किया था। करता है, उसके उपेक्षा संयम होता है। उपेक्षा का मतलब ३. प० भूधरदास जी ने 'चर्चा समाधान' पृष्ठ- | उदासीनता अथवा वीतरागता है।' १०८ पर लिखा है कि भरत जी ने कैलाश पर्वत पर अपहृत संयम के तीन भेद हैंएक चैत्यालय कराया है, जिसके सम्बन्ध में 'तीणी १. अपने उठने-बैठने के स्थान में यदि किसी चउवीसीय भरहणिमावियं' यह पाठ मिलता है, जिसका | जीव-जन्तु को बाधा पहुँचती हो, तो वहाँ से स्वयं हट .. अर्थ यह है कि महाराजा भरत के जिनालय में तीन | जाना उत्कृष्ट अपहतसंयम है।। चौबीसी के ७२ जिनबिम्ब कहे हैं। २. कोमल मयूर पिच्छिका से उस जीव को हटा पाठकों को उपर्युक्त संदर्भो पर विचार करना उचित | दे, तो मध्यम अपहृत संयम है। ३. लाठी तिनके वगैरह से उस जीव को हटाये. प्रश्नकर्ता- मोहनलाल जैन धूलियागंज, आगरा। | तो जघन्य अपहत संयम है। जिज्ञासा- उपशम सम्यक्त्व के काल में तीर्थंकर अपहृतसंयमी मुनि को पाँच समितियों का पालन प्रकृति का बन्ध होता है या नहीं? करना ही होता है। समाधान- इस प्रश्न के उत्तर में गोम्मटसार जिज्ञासा- क्या कृष्ण लेश्या के साथ तीर्थंकरप्रकृति कर्मकाण्ड में इसप्रकार कहा है का बंध संभव है या नहीं? पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। समाधान- श्री धवला पु.८, पृष्ठ ३३२ पर इस तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते॥ ९३॥ | प्रकार कहा है अर्थ- प्रथमोपशम अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व "तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरमें तथा क्षायोपशमिक या क्षायिकसम्यक्त्व में असंयत से | संतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। --- तित्थयरअप्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त मनुष्य ही तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध संतकम्मियमिच्छाइटठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माका प्रारम्भ केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में करते | इट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्ह-लेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि।" उपर्युक्त गाथा के अर्थ के अनुसार प्रथमोपशम प्रश्न- (कृष्ण, नील लेश्या में इसका बंध क्यों सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का उल्लेख है, संभव नहीं है)। उत्तर- नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रक परन्तु इस गाथा के विशेषार्थ में कहा गया है, 'यहाँ पर | में तीर्थंकरप्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पृथक् करने का कारण यह | का अभाव है। अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले है। 28 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवों के सम्यग्दृष्टियों। भयों से आक्रान्त रहते हैं, परीषहों से घबराते तथा वनवास के समान कापोत लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं | से डरते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकार के भयों से का अभाव होने से नील और कृष्ण लेश्या में तीर्थकर | रहित होता है। मैथुन संज्ञा के वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य की सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। महाव्रत को धारण करते हुए भी गुप्त रूप से उसमें जिज्ञासा- क्या मुनियों को अपनी जन्मजयन्ती | दोष लगाते हैं। और परिग्रह संज्ञावाले साधु अनेक प्रकार मनाना उचित है? के परिग्रहों की इच्छा को धारण किये रहते हैं, पैसा समाधान- योगसारप्राभृत, अधिकार ८ के श्लोक | जमा करते हैं, पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं, नं. १८ में इसप्रकार कहा हैं अपने इष्टजनों को पैसा दिलाते हैं, पुस्तकें छपा-छपाकर भवाभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा-वशीकृताः। बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, तालाबन्द बॉक्स कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोक-पङ्क्ति -कृतादराः॥१८॥ रखते हैं, बॉक्स की ताली कमण्डलु आदि में रखते हैं, __ अर्थ- कुछ मुनि परम धर्म का अनुष्ठान करते | पीछी में नोट छिपाकर रखते हैं, अपनी पूजाएँ बनवाकर हुए भी भवाभिनन्दी होते हैं, जो कि संज्ञाओं के वशीभूत | छपवाते हैं और अपनी जन्मगाँठ का उत्सव मनाते हैं। ये हैं और लोगों के आराधने रिझाने आदि में रुचि रखते | सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियों के हैं, जो आजकल अनेक हुये प्रवृत्त होते हैं। मुनियों में लक्षित भी होते हैं। उपर्युक्त श्लोकार्थ की व्याख्या करते हुए पं० जुगल | उपर्युक्त संदर्भ के अनुसार मुनियों द्वारा अपनी किशोर जी मुख्तार ने लिखा है कि आहारसंज्ञा के | जन्मजयन्ती मनाना कदापि उचित नहीं है। मुनियों को वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरों में भोजन करते हैं, जहाँ मुनिदीक्षा के समय द्विजन्मा कहा जाता है। अर्थात् उनका अच्छे रुचिकर एवं गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन के मिलने नवीन जन्म माना जाता है और तदनुसार उनका नाम की अधिक सम्भावना होती है, उद्दिष्ट भोजन के त्याग | भी नवीन रखा जाता है। अतः असंयम अवस्था के जन्म की, आगमोक्त दोषों के परिवर्जन की कोई परवाह नहीं | को स्मरण करना कैसे उचित माना जाय? पू. आचार्य करते. भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रों से आया | विद्यासागर जी महाराज, कभी भी अपनी पर्याय का जन्म हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञा के विरुद्ध दिवस नहीं मनाते हैं। होता है। भय-संज्ञा के वशीभूत मुनि अनेक प्रकार के 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) शरीर धर्म का साधन भारत के सभी दर्शन, धर्म जीने की कला सिखाते हैं, लेकिन जैनदर्शन जीने के साथ-साथ मरने की कला भी सिखाता है- अब तुम्हारा मरण हो तो ऐसा हो कि पुनः मरण शेष न रह जावे। इसका नाम है समाधिमरण इसको समझने के लिए महान् आत्माओं के जीवन की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' की क्लास चल रही थी। उस वक्त आचार्यश्री ने बताया कि एक स्वस्थ व्यक्ति हमारे पास आये और बोले-आचार्य श्री मुझे अभी सल्लेखना दे दो, ताकि मैं अच्छे ढंग से उपवास करके शरीर छोड़ सकूँ, वरना क्या पता बुढ़ापे में कोई रोग घेर गया, तो क्या करेंगे। आचार्य श्री ने कहा- शरीर को ऐसा नहीं छोड़ा जाता। शरीर माध्यम है धर्म का, संयम पालने का। जल्दी समाधि लेकर क्या करोगे? स्वर्ग जाओगे, वहाँ तो असंयम के साथ रहना होगा। कुछ दिन संयम के साथ शरीर की देखरेख करो, बाद में जब संयम पालने में बाधा पड़ने लगे, तो शरीर को छोड़ा जाता है, समाधि ली जाती है। एकदम शरीर को नहीं छोड़ा जाता। शरीर को छोड़ना मात्र समाधि नहीं है, बल्कि कषाय को छोड़ना ही सही समाधि मानी जाती है। मुनि श्री कुंथुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार अक्टूबर 2008 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारेली में श्रावक संस्कार शिविर अखिल भारतवर्षीय श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदयतीर्थ । ले सकते थे। क्षेत्र नारेली (अजमेर, राज.) में प.पू. मुनिपुंगव १०८ श्री अपरान्ह ३ बजे से मुनि श्री सुधासागर जी महाराज सुधासागर जी महाराज ससंघ का भव्य ऐतिहासिक चातुर्मास | का मार्मिक दस धर्म पर प्रवचन। हो रहा है। कमेटी द्वारा पूर्व निर्धारित आध्यात्मिक, धार्मिक | | सायं ५ बजे जलपान, पानी, दूध व फल जो भी अनुष्ठानों के साथ पर्वाधिराज पयूषण पर्व के पावन प्रसंग | | शिविरार्थी लेना चाहे। सायं ६ से सामूहिक प्रतिक्रमण, गुरु पर दस दिवसीय 'श्रावक संस्कार शिविर' समायोजित किया | सान्निध्य में उसके पश्चात् गुरु वन्दना, आचार्य भक्ति एवं गया। तत्पश्चात् सामूहिक आरती । संगीत के साथ आरती में भक्तजन १७वें शिविर में भारतवर्ष भर से लगभग नौ सौ | भाव विभोर हो जाते थे। (९००) शिविरार्थियों ने भाग लिया। दिनांक ४.९.२००८ ७.३० बजे 'द्रव्यसंग्रह' पर अलग-अलग ग्रुप के को प्रातः ध्वजारोहण एवं मंगलकलश स्थापना से शुभारम्भ अनुसार अलग-अलग स्थान पर कक्षा लगाई जाती थी। हुआ। इस शिविर के पुण्यार्जव श्रेष्ठी श्री पूरनचन्द्र जी | ६ स्थानों पर छः ग्रुप 'द्रव्यसंग्रह' पर अध्ययन कराते थे। देवेन्द्र कुमार जी सुथनियाँ अजमेर एवं श्रेष्ठी श्री कपूरचंद रात्रि ९ बजे कक्षा समाप्ति के पश्चात् ४५ मिनट तक अध्ययन नाथूलाल जी पल्लीवाल अजमेर ने सातिशय पुाजन किया। में पढ़ाये गये विषय को याद करना आदि। ज्ञातव्य रहे दोनों ही पुण्यार्जकों ने पिछले १४ शिविरों | रात्रि ठीक १० बजे पूर्णतया विश्राम। इस प्रकार में शिविरार्थी बनकर शिविर में दिये जानेवाले संस्कार अर्जित | प्रभात में ३.५० बजे से रात्रि १० बजे तक शिविरार्थी किये, परिणामतः उनके मनोभावों का समादार करते हुए कार्यक्रमानुसार समय के साथ इस प्रकार व्यस्त हो जाता अपार जनसमूह के समक्ष मुनिश्री ने आशीर्वाद दिया। था, मानो घर परिवार आदि सब को छोड़कर चतुर्थकालीन प्राकृतिक मनोहारी छटाओं से परिपूर्ण बहुआयामी आश्रम में मात्र अध्ययन, स्वाध्याय एवं संस्कारित होने आया क्षेत्र परिसर में शिविरार्थियों के आवास आदि की समुचित | हो। व्यवस्था की गई। नव निर्मित विशाल संतशाला में उनके | करुणा के सागर, कृपानिधान, वात्सल्यता की जीती लिये आवास व्यवस्था की गई। जागती मूर्ति प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री सुधासागर जी महाराज शिविरार्थी ३.५० बजे उठकर सुप्रभात विनय प्रार्थना ने प्रत्येक शिविरार्थी को कुम्हार पद्धति से घट को इस ४ से ४.४५ बजे स्नानादि से निवृत होकर ५ बजे से आदिनाथ प्रकार घड़ दिया कि उस माटी के घड़े से मात्र शीतल मंदिर के प्रागंण में ध्यानकक्षा में शामिल होते थे। जल ही मिलेगा, जो पिपासुओं की प्यास बुझायेगा। प्रत्येक प्रातः ६ बजे से ७.४५ बजे तक विशाल पाण्डाल | शिविरार्थी को इस प्रकार सुसंस्कारित कर देते है कि, उस में गीत, संगीत के साथ सामूहिक जिनपूजा, इससे पूर्व शान्ति- शिक्षा, दीक्षा व जीवन जीने की कला को व्यक्ति जीवन धारा प्रातः ८ बजे से ९.४५ बजे तक शिविरार्थियों को | पर्यन्त कभी भी विस्मरण नहीं कर सकता। गहन अध्ययन प्रशिक्षण। 'द्रव्य संग्रह' की कक्षा स्वयं मुनिश्री शिवरार्थी व्यक्तिगत संकल्प लेकर जाते है कि, जो सुधासागर जी महाराज लेते थे। मुनि श्री के द्वारा इस कक्षा | संस्कार गुरुदेव ने डाले हैं हम आजीवन उन नियमों, व में शिविरार्थी इतना निमग्न एवं केन्द्रित हो जाता था, कि | संयम का परिपालन करेंगे। ऐसा लगता था जैसे सहस्राधिक व्यक्ति मौन होकर मात्र अंत में इस प्रकार के शिविर में व्यक्ति निश्चित श्रवण करते हुए हृदयंगम कर रहे हों।। ही संस्कारित होकर जाता है। देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची प्रातः १० बजे आहारचर्या, शिविरार्थी त्यागी व्रतियों | पहचान का सूत्र सीख कर जाता है। यही नहीं पढ़ाये गये की भांति मौन रहकर श्रावक के सादर अनुनय पर उनके | विषयों की परीक्षा लिखित होती है। शिविरार्थियों में यह घर आहार हेतु जाते थे। श्रावकजन शिविरार्थियों को किशनगढ़, | भावना जागृत रहती है कि मैं परीक्षा में अधिक से अधिक नसीराबाद तक ले जाते थे। अंक प्राप्त करूँ। पिछले १७ शिविरों में हजारों व्यक्ति उसके पश्चात प्रतिक्रमण. पढाये गये विषयों का | संस्कारित हए, यह एक बहत बड़ी उपलब्धि है। अध्ययन आदि। मध्यान्ह २ बजे से २.४५ तक 'तत्त्वार्थसूत्र'। प्रस्तुति-भीकमचन्द्र पाटनी, की पूजा होती थी। शिविरार्थी इसमें अर्घसमर्पण हेतु भाग अजमेर 'शिविर परामर्शक' 30 अक्टूबर 2008 जिनभाषित उसका सरमा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिस-निरीक्षिका जैन युवती का सूझबूझभरा प्रयास __डॉ० कुमारी रेखा जैन, जिन्होंने परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी से ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया है, मध्यप्रदेश पुलिस सेवा में निरीक्षिका के पद का उत्तरदायित्व वहन कर रही हैं। कुछ ही समय पहले वे अपनी कार्यदक्षता के फलस्वरूप टी. आई. के पद पर पदोन्नत हई हैं और वर्तमान में सागर (म.प्र.) में महिला थाना प्रभारी हैं। चूँकि वे पुलिसनिरीक्षका हैं और पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी से एवं धर्म , इसलिए उनके मन में यह पीड़ा रहती थी कि मन्दिरों में अपने जिनदेव कैसे सुरक्षित किये जाएँ, उन्हें चोरी से कैसे बचाया जाय? और इस पीड़ा से मुक्ति पाने में उन्हें मिल गये अच्छे अफसर और अच्छे अवसर, तब उन्होंने ठान लिया कि कम से कम सागर जिले से इस समस्या को छुटकारा मिले। उन्होंने पब्लिक-पुलिस-प्रेस का अभियान चलाया और जनजागृति लाने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किये, जिनमें जनता, प्रेस और प्रशासन को आमंत्रित किया, लोगों के विचारों को जाना। सभी इस समस्या से परेशान थे। सभी अपने आराध्य को बचाना चाहते थे, तब उन्होंने एक संकल्पपत्र भरवा कर, एक महावीर सिक्यूरिटी एजेंसी से संपर्क कर चौकीदारों की भर्ती की, जो सभी हैल्थ-हाइट में अच्छे और पढ़े-लिखे थे, रोजगार की तलाश में थे। ४२ चौकीदारों को शहर के ५२ जैन मन्दिरों एवं हिन्दू मंदिरों में तैनात कर दिया। जनता ने करीब ८४००० रुपयों का भुगतान इन चौकीदारों को करने के लिए अपने संकल्प पत्र भरे। प्रत्येक चौकीदार का २००० वेतन हुआ। इस कार्यक्रम को प्रारंभ करने में करीब डेढ़ माह लगा और अनेकों सभाएँ करनी पड़ी, लेकिन मुख्यता से रवीन्द्रभवन सागर, बंडा, शाहगढ़, मालथौन और बाँदरी ग्राम में सभाएँ आयोजित की। आज इन चौकीदारों को शहर में चौकीदारी करते करीब सवा माह हो गया। अभूतपूर्व रिजल्ट मिले। शहर में चोरियों का ग्राफ गिर गया। किसी भी मंदिर में एवं उन मुहल्लों में चोरियाँ नहीं हुईं, जहाँ ये चौकीदार कार्य कर रहे हैं। एक माह समाप्त होते ही जनता ने इन चौकीदारों को वेतन का भुगतान कर दिया। और पुनः उत्साह एवं उमंग के साथ चौकीदार कार्य पर लगे हैं। चौकीदार रात ९ बजे से सुबह ६ बजे तक मंदिर एवं आसपास के रहवासी क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। यह कार्य अत्यन्त कठिन था, लेकिन सागर में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला परिषद् ने अभूतपूर्व एकता दिखलाई। ये उसी महिला परिषद् की सदस्याएँ हैं, जिन्होंने पिछली १७ फरवरी को आ. श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में एक विशाल महिला सम्मेलन सागर में किया था। और सभी ने संकल्प लिया था कि हम धार्मिक कार्यों में रुचि लेकर देव-शास्त्र-गुरु की सेवा करेंगे। इन्होंने दिन रात मेहनत करके लोगों से संकल्प पत्र भरवाये। चूँकि डॉ. रेखा जैन पुलिस अधिकारी हैं, इसलिए प्रशासन का इनको पूर्ण सहयोग रहा। वहाँ के अधिकारी जैसे एस० पी० डॉ० हरिसिंह यादव, एडीशनल एस० पी० श्री तिकल सिंह एवं अन्य अधिकारियों ने जब भी इन्होंने समय चाहा, दिया एवं जब भी इन्होंने गाँवगाँव जाकर प्रोग्राम रखे, वहाँ पहुँचकर इन्होंने भी चौकीदार रखने की बात कही। पब्लिक-पुलिस-प्रेस के इस कार्यक्रम से यह कार्य सम्पन्न हुआ। यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम बना। क्योंकि समस्याओं को सुनानेवाले बहुत मिलते हैं, लेकिन समस्याओं का हल ढूँढ़ने और सहयोग करनेवाले कम मिलते हैं। कभी-कभी कुछ कदम ऐसे होते हैं, जो इतिहास बदल देते हैं। ऐसा ही एक कार्य डॉ० रेखा जैन के मार्ग-दर्शन में सागर की जनता ने कर दिखाया और अब पूरी उम्मीद है कि जैन एवं हिन्दू मन्दिरों में चोरियाँ नहीं होंगी। कार्य कठिन था, लेकिन करने योग्य था और यह असंभव कार्य संभव हो गया गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद से। सम्पादक अक्टूबर 2008 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विचारणीय पत्र समाज के नाम सादर जयजिनेन्द्र, तीर्थराज सम्मेदशिखर के विषय में हम एक बहुत ही गंभीर बात आपके समक्ष विचार व समाधान हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया मनन करें, चिंतन करें। आत्मीयजन, भाव सहित बन्दे जो कोई, ताको आवागमन न होई । ये पंक्तियाँ प्रत्येक जैन के हृदय में तरंगित होती हैं एवं हमारी संपूर्ण चेतना इन में श्रद्धा रखती है। जब हम अपने नेत्र बंद कर स्मरण करते हैं, तो सम्पूर्ण तीर्थराज हमारे मस्तिष्क पटल पर जीवंत हो जाता है, किन्तु इसके साथ ही जीवंत हो जाती हैं, वे विकृतियाँ, जो हमारे दुर्भाग्य से न सिर्फ पैदा हो गई हैं, बल्कि तेजी से विस्तार पा रही हैं। हम जब पर्वतराज पर वंदना हेतु प्रस्थान करते हैं तो प्रारंभ से ही निम्न स्थितियों से रूबरू होते हैं । 1. प्रत्येक 50 कदम पर झोपड़ियाँ बन गई हैं एवं उनमें निवास करनेवाले व्यक्ति प्रातः से ही अपनेअपने दरवाजे पर कटोरा रख भिक्षा हेतु याचना करते हैं। जैन समाज के सभी सदस्य परोपकार की भावना रखते हैं एवं यथासामर्थ्य उनको दान भी देते हैं । उन निवासियों में अण्डा, मांस और मदिरा का प्रचलन सामान्य सी बात है एवं वे वहाँ मुर्गियाँ, बकरियाँ आदि भी पाल रहे हैं। 1 हम दयावश उनकी मदद कर अनजाने में परोक्ष हिंसा एवं पर्वतराज की पवित्रता नष्ट करने में सहायक हो रहे हैं । 2. हम पर्वतराज की वंदना करने नंगे पैर जाते हैं, वह हमारे लिये सम्पूर्ण श्रद्धा का केन्द्र है, किन्तु पर्वतराज पर निवास करनेवाले पर्वतराज को मल-मूत्र से अपवित्र करते हैं। 3. वर्तमान में किसी भी नगर में अनधिकृत बननेवाली झुग्गियों को अतिक्रमण मुक्त कराने में शासन भी असहाय होता है। पर्वतराज पर झोपड़ियाँ तेजी से बढ़ती जा रही हैं, क्या हम सक्षम हैं कि इन्हें हम वहाँ से हटा सकेंगे, जबकि हम जानते हैं कि हमें इस कार्य हेतु शासन से किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं होगी ? परिणामस्वरूप हम गिरनार जी क्षेत्र जैसा हश्र होने की प्रतीक्षा करते रहेंगे एवं भविष्य में वहाँ वंदना - पूजा-उपासना से वंचित हो जावेंगे और हम मात्र यही कह सकेंगे कि "कभी यहाँ हमारा तीर्थराज हुआ करता था " । मनन कीजिये एवं संकल्प लीजिये कि हम वंदना के समय पर्वतराज पर रहनेवाले किसी भी व्यक्ति को दान नहीं देगे। हम उसकी सहायता पर्वतराज से स्थायी रूप से नीचे आने पर ही करेंगे। हम वंदना के दौरान पर्वतराज पर स्थित दुकानों से कोई भी खाने-पीने की वस्तु (चाय, कोल्ड ड्रिंक, बिस्किट, पकोड़े, ककड़ी आदि) नहीं खरीदेंगे। उनकी आय के स्रोत उनके पर्वतराज से नीचे आने पर ही सुलभ करायेंगे । हमारा संकल्प ही पर्वतराज की पवित्रता को बनाये रखेगा एवं उसे पिकनिक स्थल एवं मनोरंजन केन्द्र में परिणित नहीं होने देगा। मनन एवं संकल्प के निवेदन के साथ निवेदक अखिल भारतीय दिगम्बर जैन युवक-युवती परिचय सम्मेलन, भोपाल अखिल भारतीय पुलक जन चेतना मंच (रजि.) शाखा - भोपाल श्री पार्श्वनाथ सेवा मण्डल, जवाहर चौक, भोपाल श्री त्रिशला महिला मण्डल, टीन शेड, टी.टी. नगर, भोपाल राष्ट्रीय जैन महिला जागृति मंच (रजि.) शाखा भोपाल 32 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-समीक्षा बृहद्र्व्यसंग्रह की हिन्दी-अंग्रेजी टीका वष्य-संग्रह DRAVYA HAMINAHA ... mhantaciditial-. सम्पादक : श्री एस. एल. जैन, भोपाल। प्रकाशक मैत्री-समूह। पृष्ठ xxiv+१९७ मूल्य रु. ६०/ द्रव्यसंग्रह प्राकृतभाषा में रचित प्राचीनतम जैनदर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसमें छह द्रव्यों- जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के स्वरूप और लक्षण के वर्णन के साथ निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग, मोक्षप्राप्ति के उपायरूप ध्यान की उपादेयता, ध्यान करने योग्य मंत्र, पञ्चपरमेष्ठी के स्वरूप आदि का कुल अट्ठावन गाथाओं में वर्णन है। इस ग्रंथ की विस्तृत संस्कृत टीका श्री ब्रह्मदेवसूरी द्वारा लिखी गई है और उसके कई संस्करण प्रकाशित हैं। अन्य अनेक विद्वानों ने मराठी, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में इस ग्रंथ की टीकायें रची हैं। इस रचना की एक मात्र अंग्रेजी टीका सन् १९१७ में प्रो. शरच्चन्द्र घोषाल के द्वारा की गई है जिसके संस्करण आरा, दिल्ली और मुम्बई से प्रकाशित हुए हैं। द्रव्यसंग्रह ग्रंथ कई परीक्षालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। इस ग्रंथ की संस्कृतटीका में निश्चय और व्यवहार नयों के परिप्रेक्ष्य में विवेचन किया गया है। जैन और जैनेतर विद्यार्थियों को यह विवेचन समझ पाना कठिन होता है। अहिन्दी-भाषी विद्यार्थी द्रव्यसंग्रह का अध्ययन संस्कृत या अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि । ग्रंथ के मुख्य विषय का प्रस्तुतीकरण सरल अंग्रेजी भाषा में किया जाय। प्रस्तुत पुस्तक में मूल प्राकृत गाथा, प्रत्येक गाथा की संस्कृत छाया, गाथा का अंग्रेजी रूपान्तर, प्राकृत गाथा के प्रत्येक शब्द का अंग्रेजी भाषा में अर्थ, गाथा का हिन्दी और अंग्रेजी में अर्थ और हिन्दी और अंग्रेजी में सरलतम व्याख्या दी गई है। जहाँ जैनधर्म के पारभाषिक शब्दों का उपयोग आवश्यक हुआ है, बहाँ उनको स्पष्ट करने के लिये कोष्ठक मैं अँग्रेजी अर्थ छैने का प्रयत्न किया है। शास्त्रीय और दुरूह प्रस्तुति सै बच्चतै हुए द्रब्यों की सुबोध भाषा में प्रस्तुति अत्यधिक सराहनीय और अनुकरणीय है। जैनधर्म और दर्शन का अध्ययन करने के लिए इच्छुक सम्पूर्ण विश्व के अध्येताओं और छात्रों के लिये यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसी आशा है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक की पच्चीसवीं गाथा की टीका करते हुए लेखक ने बताया है कि जैनदर्शन के अनुसार पुद्गलद्रव्य का अंतिम अविभागी भाग परमाणु कहलाता है। जैनदर्शन के इस परमाणु से आधुनिक परमाणु भिन्न है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार परमाणु शुद्ध दशा में होने से इन्द्रियातीत है और आधुनिक प्रचलित परमाणु स्कंध है। वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्माण्ड की संरचना पर निरन्तर अनुसंधान किये जा रहे हैं। वे हाल ही में इस निष्कर्ष पर तो पहुँच गये हैं कि आधुनिक परमाणु अविभागी नहीं है और उसके बहुत खण्ड किये जा सकते हैं। यह निष्कर्ष इस ओर इंगित करता है कि आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान परमाणु की संरचना को जैनदर्शन की मान्यतानुसार सिद्ध कर रहे हैं। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि जैनदर्शन के अनुसार एक पुद्गल परमाणु, शुद्ध दशा में जीब द्रव्य, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन्द्रियातीत हैं। इसलिये वैज्ञानिक अनुसंधान अबिभागी पुद्गल द्रव्य की खोज नहीं कर सकेंगे। लेकिन फिर भी हमैं इन निष्कर्षों पर सतत ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि बै जैनदर्शन की मान्यताओं के करीब तो पहुँच ही सकते हैं। सुन्दर छपाई, आकार एवं चित्रों ने इस पुस्तक को आधुनिकता, मनोज्ञता एवं शैक्षणिक जगत् मैं स्वीकार्यता प्रदान की है। इस कृत्य के लिये लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। मुरेश जैन, आई.ए.एस. (सेवानिवृत्त) २०, निशात कॉलोनी, भोपालन, व्र, EDIENTISHINDE Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ सच्चा आराधक आराध्य की अपेक्षा और उपेक्षा विगत के जीवन को अवगत करना है आराधना में तो G0 आराधक ऐसा तन्मय होता है जैसे क्षीर में नीर मिलता है वह यह कभी आराध्य से कहता नहीं कि मैं आपके ही प्रति समर्पित हूँ। और आप में ही अटूट श्रद्धा है आराधक तो मधुमक्षिकाओं की भाँति होता है। आराध्य के चरण कमलों के भक्तिरस के पान में ही निमग्न रहता है। सच्चा समर्पित आराधक तो आराध्य से नाराज नहीं होता तथा आराधक को अपने अनुसार चलाने की चेष्टा नहीं करता। आगत कर्मों के उदय को जानो ज्ञात होता है कि जिसकी हम अपेक्षा करते हैं विगत में हमने ही उसकी उपेक्षा की है जिसकी हम उपेक्षा करते हैं विगत में हमने ही उसकी अपेक्षा की है। पुण्य नक्षत्र जब पुण्य नक्षत्र का उदय होता है 7e सभी नक्षत्र छत्र बनकर रक्षा करते हैं जब पाप नक्षत्र का उदय होता है सृष्टि के तमाम नक्षत्र शस्त्र बनकर जीवन पर सवार होते हैं। प्रस्तुति : रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन।