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सही पुरुषार्थ
• आचार्य श्री विद्यासागर जी
माँ धरती और बेटी मिट्टी के संवाद के माध्यम से सही पुरुषार्थ का मार्मिक विश्लेषण इन काव्यपंक्तियों में किया गया है। -सम्पादक
किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है, कारण कि वह सब कुछ अभी राग की भूमिका में ही घट रहा है,
और इससे गति में शिथिलता आती है। इसी भाँत्ति प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी प्रकारान्तर से द्वेष को आहूत करना है, और इससे मति में कलिलता आती है।
कभी-कभी गति या प्रगति के अभाव में आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं, मन खिन्न होता है
और, सुनो! मीठे दही से ही नहीं, खट्टे से भी समुचित मन्थन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है।
इससे यही फलित हुआ कि संघर्षमय जीवन का उपसंहार नियमरूप से हर्षमय होता है, धन्य! इसीलिए तो बार-बार स्मृति दिलाती हूँ
कि टालने में नहीं सती-सन्तों की आज्ञा पालने में ही 'पूत का लक्षण पालने में' यह सुक्ति चरितार्थ होती है, बेटा!
और कुछ क्षणों तक मौन छा जाता है।
किन्तु
यह सब आस्थावान् परुष को अभिशाप नहीं, वरन् वरदान ही सिद्ध होते हैं जो यमी, दमी हरदम उद्यमी है।
मूकमाटी (पृष्ठ १३-१४)से साभार
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