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________________ हैं। जरूर है कि ऊपर-ऊपर की अवस्थाओं में अन्तर्मुहूर्त | के अर्थ एवं विशेषार्थ में बहुत सरल शब्दों में गुणश्रेणी में पहले की अपेक्षा समय घटता जाता है और गुणश्रेणी | निर्जरा के दस स्थानों का कथन किया है। निर्जरा असंख्यातगुणित क्रम से बढ़ती जाती है। 6. तत्त्वार्थसूत्र सरलार्थ के नवम अध्याय सूत्र 45 7. जिन भगवान् जब तक केवलीपने को प्राप्त | की टीका पृष्ठ 267-68 पर गुणश्रेणी निर्जरा के दस रहते हैं, अपनी अरिहन्त अवस्था में निरन्तर असंख्यात | स्थानों का कथन करते हुये विशेषार्थ में 5 बातों द्वारा गुणी निर्जरा करते हैं। कथन को और स्पष्ट करते हुये एक जीव की अपेक्षा 8. समुद्घात केवली भगवान् समुद्घात के समय | से ही कथन किया है। अरिहन्त अवस्था से भी असंख्यात गणी निर्जरा करते | 7. तत्त्वार्थ राजवार्तिक के द्वितीय भाग पृष्ठ 635 636 अध्याय 9 के सूत्र 45 की टीका में अकलंकदेव अन्य-अन्य ग्रन्थों का मन्तव्य- सर्वार्थसिद्धिकार | स्वामी ने सम्यग्दृष्टि से तीनों सम्यग्दृष्टि : उपशम, आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के नवें | क्षयोपशम और क्षायिक ग्रहण किया है। पश्चात् श्रावक अध्याय के 45वें सूत्र की टीका करते हुए 908 वें अनुच्छेद | को कहकर आगे यथाक्रम से ले लेना। में 10 पात्रों के अनुसार अपनी बात कही है तथा उसमें 8. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्दि आचार्य महाराज ने वे 10 स्थान एक ही जीव के विकास महाराज ने भी संस्कृत टीका अध्याय 9/45 में सम्यग्दृष्टि क्रम को लेकर कहे हैं। आचार्य पूज्यपाद जी के मन्तव्य से तीनों सम्यग्दष्टि ग्रहण किये हैं. इससे ऐसा जान पडता में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना तथा दर्शनमोहनीय का | है कि राजवार्तिककार और श्लोकवार्तिक-कार भी चौथे क्षय करनेवाली अवस्था मुनि महाराज के ही लेवें, ऐसा | और पाँचवें क्रम की निर्जरा पात्रों में वहाँ मुनिवियोजक दिखाई पड़ता है। वहाँ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के लिये भी | और मुनिक्षपक हैं, ऐसा कहना चाह रहे हैं। मुनि अवस्था कहा हो ऐसा नहीं झलकता, क्योंकि ‘स एव, स एव' | प्राप्त होने के पश्चात् जो अगले क्रम में निर्जरा के जितने हये प्रारम्भ से दसों स्थानों को कहा। इसलिये | अन्य स्थान कहे गये, वे सब मुनि अपेक्षा हैं. ऐसा अभिप्राय क्रम में सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरत-अनन्तानुबंधीवियोजक- जान पड़ता है। दर्शनमोक्षपक ऐसा क्रम कहा है, जिससे वहाँ मुनि की 9. षट्खण्डागम पुस्तक 12, सूत्र 178, पृष्ठ 82 अपेक्षा से लेवें, ऐसा अवभासित होता है। सर्वार्थसिद्धि | पर उक्त विवरण प्राप्त होता है। 'उससे अनन्तानुबन्धी टीका पृष्ठ 362 संस्कृत टीका, हिन्दी अर्थ एवं पं० फूलचन्द | की विसंयोजना करनेवाले की श्रेणी गुणाकार असंख्यात जी शास्त्री का विशेषार्थ अवलोकन करने योग्य है। गणा है।। 78॥' 2.तत्त्वार्थवृत्ति (आचार्य भास्करनन्दि-टीका) में भी | स्वस्थान संयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणी गुणाकार की नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र की टीका करते हुए | अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवों पृष्ठ 545-546 की संस्कृत टीका में यही भाव प्रदर्शित | में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करनेवाले जीव का जघन्य · है। वहाँ निर्जरा के कालों की व्याख्या भी सुन्दर ढंग | गुणश्रेणी गुणाकार असंख्यातगुणा अधिक है। से की गई है। __अर्थात् संयत के जो उत्कृष्ट निर्जरा हो रही है, 3. 'जैन तत्त्व विद्या' ग्रन्थ में जो शास्त्रसारसमुच्चय | उससे अनन्तानुबन्धीवियोजक की जघन्य निर्जरा भी की टीका के रूप में पूज्य प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा | विसंयोजना के काल में असंख्यात गुणी है। रचित है, 4 थे अध्याय के सूत्र 62 की टीका 352- शंका- संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी 353 पृष्ठ पर विस्तार से की गई। का विसंयोजन करनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि के परिणाम 4. तत्त्वार्थसूत्र की टीका में श्री पं० फूलचन्द्र जी | अनन्तगुणा हीन होते हैं। ऐसी अवस्था में उसके असंख्यात सिद्धान्तशास्त्री द्वारा भी इसी मन्तव्य को झलकाया गया | गणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है? है। देखें पृष्ठ अध्याय 9 सूत्र 45 पर। समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि संयमरूप 5. तत्त्वार्थसूत्रटीका पं० कैलाशचन्द्र जी, बनारस | परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना द्वारा पृष्ठ 151 पर नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र | में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध हैं। 14 अक्टूबर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524332
Book TitleJinabhashita 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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