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________________ प्रवचन सुख कहाँ है ? नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ॥ यह जीव जिस वस्तु को पहले रुचिपूर्वक सुनता है, उसका रसास्वादन करता है, पीछे उसे छोड़ देता है। तद्विषयक राग के निकल जाने पर किसी वस्तु को छोड़ना कठिन नहीं है। बड़े-बड़े राजा महाराजा पहले जिन वस्तुओं के एकत्रित करने में पूर्ण शक्ति लगा देते हैं, पीछे विरक्ति होने पर उन्हें जीर्ण तृण के समान छोड़ दे 1 इस जीव ने वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं किया, इसीलिये इसके कल्याण का मार्ग खुला नहीं है। जीव का स्वभाव है कि वह अन्तरङ्ग से सुख को चाहता है और दुःख से भयभीत होता है। जिसे सुख की चाह और दुःख से भयभीतपना नहीं है, वह अजीव की कोटि में आता है। हमारे भाषण को माईक बड़ी तत्परता से सुनता है, यह हमारा प्रथम श्रोता है। आप दूरवर्ती होने से बाद के श्रोता है, परन्तु शब्दों के ग्रहण करने मात्र से यह जीव नहीं हो गया। क्योंकि इसे सुख की चाह और दुःख से भयभीतपना नहीं है। यह शब्द को ग्रहण करके अपने पास नहीं रखता। जिस मानव को स्वहित की इच्छा होती है, वह उस ओर प्रयत्न करता है। पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है- 'कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठ: प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सु' कोई निकट संसारी प्रज्ञावान् भव्यप्राणी आत्महित की चाह करता हुआ निर्ग्रन्थ आचार्य से विनयपूर्वक पूछता है- भगवन्! आत्मा के लिये हितकारी क्या है? आचार्य उत्तर देते हैं- 'मोक्ष इति, मोक्ष ही हितकारी है, जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहें दुखतें भयवंत।' तीन लोक में जितने जीव हैं, सब सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। इतना होने पर भी यह जीव सुख कहाँ है? इसका निर्णय नहीं कर सका है। षट्कारकों में अधिकरण कारक बढ़ा महत्त्वपूर्ण है । सुख का अधिकरण आत्मा है। आत्मा में ही उसका आवास है । भोगोपभोग के पदार्थों में मात्र आभास सुख आत्मा का अनुजीवी गुण है। वह जब भी प्रगट होगा तब आत्मा में होगा अन्य पदार्थों में नहीं । अज्ञानी । Jain Education International आचार्य श्री विद्यासागर जी प्राणी उस सुख को आत्मा में न खोजकर अन्यत्र खोजता है । 1 एक किसान ने खेत में कुआँ खुदवाना चाहा । किसी ज्योतिषी से उसने पूछा कि महाराज ! आप बताइये कुआँ कहाँ खुदवावें, पानी निकलेगा या नहीं? ज्योतिषी ने कहा मैं बता सकता हूँ छत्तीस फुट पर पानी है परन्तु पाँच हजार रुपये लूँगा । किसान मंजूर हो गया । उसने पाँच हजार रुपये ज्योतिषी को दे दिये । ज्योतिषी ने तन्त्र-मन्त्र कर स्थान बतला दिया अपने खेत के दक्षिण दिशा में कुआँ खोदो । परन्तु किसान ने उस स्थान पर कुआँ न खोदकर दक्षिण दिशा के कोण में कुआँ खोदा | पानी नहीं निकला, तो ज्योतिषी को उलाहना देने गयामहाराज! आपने पाँच हजार रुपये ले लिये, परन्तु पानी निकला नहीं । ज्योतिषी ने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता । किसान बोला- महाराज चलकर देख लो। महाराज ने जाकर देखा तो कहा भाई, हमने जहाँ बतलाया था वहाँ तुमने कहाँ खोदा । वहाँ खोदो तो पानी मिले। विवश हो किसान ने वहाँ पर खोदा, तो पानी का अथाह स्रोत निकल आया। यह तो दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि सुख का अधिकरण आत्मा है, भोगोपभोग पदार्थ नहीं, अतः उन्हें छोड़ आत्मा में, उसकी खोज जिसने की है वह अवश्य ही सुख को प्राप्त हुआ है । परन्तु उसके फल से वंचि रहता है- पदार्थ ज्ञान के फल से वह दूर रहता है । वीरसेन स्वामी ने लिखा है 'णाणस्स फलमुवेक्खा', अर्थात् ज्ञान का फल उपेक्षा है । उपेक्षा का अर्थ होता है रागद्वेष की अनुत्पत्ति । पदार्थ को जानना तो आत्मा का स्वभाव है, परन्तु उसमें रागद्वेष करना स्वभाव नहीं है। इस गलती को यह जीव अनादिकाल से करता चला जा रहा है और जब तक करता चला जायगा, तब तक ज्ञान के फल को प्राप्त नहीं कर सकता । हाँ तो मैं कह रहा था सुख का आवास आत्मा में है, भोग सामग्री में नहीं। एक व्यक्ति नौकरी का काम करता था। रोज तो दाल रोटी खाता था, पर एक दिन पत्नी से बोला कि अब तो अपने पास पैसे इक्ट्ठे हो गये हैं, इसलिये कुछ अच्छे व्यंजन बनाये जावें । पति की इच्छा देख, पत्नी ने बढ़िया रसगुल्ला बनाये । ताजे अक्टूबर 2008 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.524332
Book TitleJinabhashita 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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