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________________ का नाम सुनने से भय उत्पन्न नहीं होता, क्रोध का रूप देखने से भय उत्पन्न होता है । 'भय' शब्द सुनने से रोंगटे खड़े नहीं होते, भयानक दृश्य देखने से रोंगटे खड़े होते हैं। 'हास्य' शब्द सुनने से हँसी नहीं आती, हास्यास्पद दृश्य देखने से हँसी आती है। बिम्ब इसी प्रकार के दृश्य हैं। वे भावों के नाम नहीं, रूप । इसलिए उनसे भावों के स्वरूप का अनुभव अपने आप हो जाता है। यतः बिम्ब सौन्दर्य, यौवन, अनुरक्तता, कुरूपता, भयंकरता, हास्यास्पदता, क्रोधाविष्टता, विस्मयान्विता आदि के शब्दनिर्मित मनोगत दृश्य हैं, इसलिए उनके मन में उपस्थित होते ही सहृदय के हृदय में आनंद, अनुराग, घृणा, भय, ग्लानि, हास्य आदि भावों का उद्वेलन होता है, जिसे रसानुभूति कहते हैं । इस प्रकार बिम्बों में भावोद्वेलनक्षमता होती है । बिम्ब में अनेक भाव गुँथे होते हैं। वे समस्त भाव उस एक बिम्ब के द्वारा अनुभूति में उतारे जाते हैं। अर्थगौरव से युक्त होने के कारण उनमें संक्षिप्तता होती है, फलस्वरूप उनका प्रभाव तीक्ष्ण होता है । अष्टपाहुड़ में बिम्ब आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्ट पाहुड़ों में अमूर्त एवं अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक भावों को बिम्बविधान द्वारा मूर्तरूप में प्रस्तुत कर गम्य बनाया है, जिससे वे अध्येता के मन में उतरकर अज्ञान की ग्रन्थियाँ खोलते हैं और वैराग्य की भावधारा प्रवाहित करते हैं। आचार्य कवि ने अलंकार, लक्षणा, मुहावरे, लोकोक्ति आदि सभी प्रकार के काव्यभाषात्मक उपादानों का आश्रय लेकर बिम्बसृष्टि की है। यहाँ इन सभी के कुछ नमूने प्रस्तुत किये जा रहे हैं 1 अलंकाराश्रित बिम्ब 'संखिज्जमसंखिज्जगुणं सासारिमेरुमित्ताणं' है कि यदि कर्मों की अत्यधिक निर्जरा करनी हो, तो सम्यग्दर्शन के बाद सम्यक्चारित्र धारण करना अनिवार्य है। उपर्युक्त बिम्बों की सृष्टि उपमा अलंकार के द्वारा की गई है। 'भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण' (भावपाहुड़, ८८) (भङ्ग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन) Jain Education International यहाँ मनोमर्कट रूपक में मन का चंचल स्वभाव 'मर्कट' शब्द में मूर्त हो गया है। इस शब्द के श्रवण से मर्कट की छवि के साथ उसकी चंचल प्रवृत्ति का चक्षुपरक बिम्ब मानसपटल पर उभरता है, उससे मन का चंचलस्वभाव प्रतिभासित हो उठता है। मन की अविवेकशीलता भी व्यंजित होती है। अमूर्त चंचल की यह मूर्तरूप में अभिव्यक्ति रूपक अलंकार पर आश्रित है । 'जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ।' जीवविमुक्तः शवको दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवक । (भावपाहुड़ १४१ ) 'जीवरहित शरीर शव है और सम्यग्दर्शनरहित शरीर चलता-फिरता शव है।' इस उदाहरण में चलशवकः (चलती-फिरती लाश ) शब्द में सम्यक्त्वविहीन मनुष्य के जीवन की निस्सारता, हेयता, अमंगलमयता, अपवित्रता, अपूज्यता, एवं अदर्शनीयता के भाव मूर्त हो गये हैं। ये सब भाव इस शब्द के पठन - श्रवण से निर्मित चाक्षुष बिम्ब के द्वारा हृदय में उतर जाते हैं और सम्यक्त्वविहीन जीवन वास्तव में निस्सार प्रतीत होने लगता है। इस बिम्ब का आधार भी रूपक अलंकार है । निष्कम्प जलते दीपक के बिम्ब में ध्यान का स्वमूर्तिमान् हो उठा है रूप जह दीवो गब्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ॥ ( भावपाहुड़ १२१ ) जैसे गर्भगृह में रखा दीपक हवा के झौकों के अभाव में निष्कम्प जलता है, वैसे ही रागरूपी वायु के अभाव में ध्यानरूपी दीपक भी प्रज्वलित होता है । (चारित्तपाहुड़, १९) (सङ्ख्येयामसङ्ख्येयगुणां सर्षपमेरुमात्रां णं) यहाँ संख्यातगुणी निर्जरा की अत्यल्पता और असांख्यातगुणी निर्जरा की प्रचुरता के भाव सर्षप (राई) और मेरु शब्दों के द्वारा मूर्तरूप में व्यक्त किये गये हैं । 'सर्षप' और 'मेरु' शब्दों के श्रवण से उनके सूक्ष्म और दीर्घ आकारों के चाक्षुष बिम्ब मन में उपस्थित होते हैं । उनसे उपर्युक्त निर्जराओं की मात्रा में जो विशाल अन्तर है, उसकी प्रतीति हो जाती है। इससे यह प्रेरणा मिलती । के चित्तविक्षेपकारी स्वरूप का आभास कराता है । जैसे 20 अक्टूबर 2008 जिनभाषित यहाँ निष्कम्प जलते दीपक के बिम्ब द्वारा ध्यान स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। दीपक की ज्योति के निष्कम्प हो जाने के समान चित्तवृत्ति का आत्मा में स्थिर हो जाना ध्यान है। हवा के झौंकों का बिम्ब राग के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524332
Book TitleJinabhashita 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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