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हवा के झोंके दीपक की ज्योति को स्थिर नहीं होने | जलमग्न पाषाण के स्वभाव द्वारा कितनी स्पष्टता से हो देते, वैसे ही राग चित्तवृत्ति को स्वभाव में स्थिर नहीं जाता हैहोने देता। हवा के झौंकों के अभाव में दीपक के निष्कम्प जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकाल्मुदएण। जलने का बिम्ब राग के अभाव में चित्तवृत्ति के स्थिर तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीषहेहिंतो॥ हो जाने (ध्यान के सिद्ध हो जाने) के स्वरूप को स्पष्ट
(भावपाहुड़, ९६) करता है।
जैसे पाषाण चिरकाल तक जल में डूबे रहने पर ___जपापुष्पादि परद्रव्य के सम्पर्क से स्फटिकमणि | भी विदीर्ण नहीं होता, वैसे ही साधु उपसर्ग-परीषहों से के रंग-बिरंगे हो जाने के बिम्ब द्वारा आत्मा के विभाव- | आक्रान्त होने पर भी क्षुब्ध नहीं होता। परिणमन-स्वभाव की मूर्तरूप में प्रतीति करायी गयी है- | पाषाण के बिम्ब में साधु की परीषहजयदृढ़ता मूर्त
जह फलिहमणि विसद्धो परदव्वजदो हवेड अण्णं सो। हो गई है। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो॥ जलगत कमलिनीपत्र के स्वभाव का दृश्य मन
(मोक्खपाहुड़ ५१) | में उपस्थित होते ही सम्यग्दृष्टि के वैराग्यभाव का रूप जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से स्वच्छ होने के कारण | हृदय में उतर जाता हैस्वयं रंग-बिरंगा नहीं होता, अपितु जपापुष्पादि परद्रव्य जह सलिलेण ण लिप्पड़ कमलणिपत्तंसहावपयडीए। के सम्पर्क से होता है, वैसे ही आत्मा स्वभाव से शुद्ध तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो॥ होने के कारण स्वयं रागादिरूप परिणमित नहीं होता,
(भावपाहड़, १५२) अपितु रागादिप्रकृत्यात्मक पुद्गलकर्मों के सम्पर्क से जैसे कमलिनी पत्र जल में रहते हुए भी स्वभावतः होता है।
जललिप्त नहीं होता, वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव विषयभोग स्फटिकमणि की स्वच्छता के बिम्ब द्वारा आत्मा करते हुए भी स्वभावतः उनमें आसक्त नहीं होता। की स्वाभाविक शुद्धता (रागादिशून्यता) का रूप दर्शाया जब तक मोक्ष-साधना-योग्य सामग्री (द्रव्य, क्षेत्र, गया है। जपापुष्पादि का बिम्ब कर्मों की रागादिप्रकृत्या- | काल, भाव, उत्तमसंहननादि) प्राप्त नहीं हो जाती, तब त्मकता का अनुभव कराता है। तथा जपापुष्पादि के सम्पर्क | तक अव्रतों के द्वारा नरक में जाने की बजाय व्रतों के से स्फटिकमणि के रंग-विरंगे हो जाने का बिम्ब कर्मों | द्वारा स्वर्ग में जाना क्यों अच्छा है? इसका समाधान आचार्य के निमित्त से आत्मा के रागादिरूप परिणमित हो जाने | कुन्दकुन्द ने धूप में बैठकर साथी की प्रतीक्षा करनेवाले के विभावपरिणमन-स्वभाव को स्पष्ट कर देता है। तथा छाया में बैठकर प्रतीक्षा करनेवाले पुरुषों की स्थिति
कर्मक्षय हो जाने पर पुनर्जन्म नहीं होता, इस अमूर्त | का बिम्ब उपस्थित कर बड़े प्रभावशाली ढंग से किया तथ्य को मूर्त पदार्थ के स्वभाव द्वारा स्पष्ट करने के | लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने जले हुए बीज के पुनः भूमि वरवयतवोहि सग्गो मा दक्खं होउ निरड इयरेहिं। में अंकुरित न होने का दृष्टान्त दिया है, जो अपने बिम्ब- छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं॥ वैशिष्ट्य से उक्त तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम करा
(मोक्खपाहुड़, २५) देता है
जिनागम से जुड़े रहने का लाभ धागे से संयुक्त जह वीयम्मि य दड्डे ण वि रोहइ अंकुरो य महीवीढे। | सुई की स्थिति से प्रकट हो जाता हैतह कम्मवीयदड्ढे भवंकुरो भावसमणाणं॥ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि।
(भावपाहुड़, १२४) | सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि॥ बीज का बिम्ब कर्मों की पुनर्जन्महेतुता का द्योतन
(सुत्तपाहुड़, ३) करता है। उसके दग्ध होने का बिम्ब कर्मों के नष्ट जिस प्रकार धागे से संयुक्त सुई खो नहीं पाती, होने तथा परिणामस्वरूप पुनर्जन्म का अभाव हो जाने | उसी प्रकार जिनसूत्र से जुड़ा जीव भवसागर में विलीन के स्वरूप को स्पष्ट करता है।
नहीं होता। साध की परीषहजयदृढता के स्वरूप का अनुभव बिम्बों के माध्यम से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान
अक्टूबर 2008 जिनभाषित 21
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