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में अविनाभाव सम्बन्ध की प्रतीति निम्न गाथा में करायी । लोकोक्ति-आश्रित बिम्ब गयी है।
'गुड़-दूध पीने पर भी साँप निर्विष नहीं होता' जह फुल्लं गन्धमयं भवदि हु खीरं घियमयं चावि। इस लोकोक्ति का बिम्बवैशिष्ट्य जिनधर्म की विशेषता तह दसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥ और अभव्य जीव के स्वभाव की अनुभूति कराता है
(बोहपाहुड़, १५) | ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ट वि आयण्णिऊण जिणधम्म । जैसे फूल गन्धमय और दूध घृतमय होता है, वैसे | गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति॥ ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानमय होता है। वह सम्यग्दर्शन
(भावपाहुड, १३६) यति. श्रावक और असंयतसम्यग्दृष्टि के स्वरूप में स्थित 'गुड़-दूध' का बिम्ब जिनधर्म की सुखप्रदता एवं
कल्याणकारिता की व्यंजना करता है। साँप के बिम्ब लक्षणाश्रित बिम्ब
से अभव्य जीव के अत्यन्त घातक मिथ्यात्व से युक्त सोने और जागने की शारीरिक क्रियाओं से निर्मित होने की प्रतीति होती है। तथा गुड-दूध पीने पर भी बिम्बों में आचार्यश्री ने उदासीन और सावधान रहने के | साँप के निर्विष न होने का बिम्ब अभव्य जीव के इस भावों को मूर्त रूप दिया है
कुस्वभाव की स्वाभाविकता को बुद्धिगम्य बनाता है कि जो सत्तो ववहारे सो जोड़ जग्गए सकज्जम्मि। वह अत्यन्त हितकारी जिनधर्म का श्रवण करने पर भी जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे॥| मिथ्यात्व नहीं तजता।
(मोक्षपाहुड़, ३१) अष्टपाहुड़ में उपलब्ध बिम्बविधान के ये कुछ जो योगी लौकिक कार्यों में उदासीन रहता है, | निदर्शन हैं। इनसे आचार्य कुन्दकुन्द की काव्यप्रतिभा का वह स्वकार्य में अर्थात् कर्मक्षयसाधना में सावधान रहता | साक्षात्कार हो जाता है। मन का चंचलस्वभाव, सम्यक्त्वहै। जो लौकिक कार्यों में जागरूक रहता है, वह स्वकार्य | हीन मनुष्य के जीवन की निस्सारता, अपवित्रता एवं में उदासीन रहता है।
अपूज्यता, आत्मा की विभावपरिणमनशीलता, कर्मों की मुहावराश्रित बिम्ब
पुनर्जन्म-हेतुता, साधु की परीषहजयदृढ़ता, सम्यग्दृष्टि की आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्ट पाहुड़ों में अनेक मुहावरों अनासक्तता, चित्तवृत्ति की एकाग्रता, अव्रतों और व्रतों का प्रयोग किया है जिनसे सुन्दर बिम्ब निर्मित हुए हैं। का फर्क इत्यादि आध्यात्मिक एवं अतीन्द्रिय भावों के एक उदाहरण द्रष्टव्य है
स्वरूप को मूर्त पदार्थों के स्वभाव एवं अवस्थाओं के 'आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।' द्वारा हृदयंगम बनाने में आचार्य कुन्दकुन्द ने अप्रतिम
___ (दंसणपाहुड़, ४) | शैलीय कौशल दिखलाया है। उन्होंने अमूर्त आध्यात्मिक जिनशास्त्र में श्रद्धा से रहित जीव वहीं-वहीं भटकते | भावों को मूर्त पदार्थों और उनकी अवस्थाओं के बिम्बों रहते हैं।
द्वारा मूर्त कर दृश्यमान सा बना दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द वहीं-वहीं भटकने' के मुहावरे से निर्मित चाक्षुष | के बिम्ब अधिक सजीव एवं ऐन्द्रिय हैं, उनमें वैचित्र्य बिम्ब द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव के संसार में ही भटकते | एवं वैविध्य की प्रचुरता है। इससे उनकी सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति रहने, मोक्ष प्राप्त न कर पाने का भाव मूर्त हो गया | का परिचय मिलता है।
ए / 2, शाहपुरा, भोपाल म.प्र. कबीर-वाणी गरवा तो घर घर फिरै, दीक्षा हमरी लेह। कै बूड़ो के ऊबरौ, टका पर्दनी देहु ॥ सतगुरु ऐसा कीजिए, जाका पूरन मन्न। अनतौले ही देते हैं, नाम सरीखा धन्न। गुरु मिला तब जानिये, मिटे मोह मन-ताप। हरष शोक व्यापै नहीं, तब गुरु आपै आप॥
22 अक्टूबर 2008 जिनभाषित -
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