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________________ जिनेन्द्र-दर्शन एवं पूजन की विशेषता पं० सदासुखदास जी काशलीवाल प्रश्न- अरहन्त की प्रतिमा किसलिए पूजते हैं?। प्रकृतियों में रस सूख जाता है, तब समस्त दुःख नष्ट अरहन्त भगवान् तो मोक्ष गये, सिद्धशिला स्थान पर हैं। हो जाते है, और सुख की कारण जो पुण्य-प्रकृतियाँ धात-पाषाण के प्रतिबिम्ब में तो वे आते ही नहीं हैं, हैं उनका रस बढ़ जाता है, तब स्वर्ग आदि का सुख, वे अपनी पूजा कराना नहीं चाहते, किसी का उपकार- | राज्य सम्पदा, भोगादिक अपने आप ही प्रकट हो जाते अपकार वे करते नहीं हैं, पूजन, स्तवन, अभिषेक हैं। यद्यपि भगवान् अरहन्त धातु-पाषाण के बिम्ब में आते करनेवालों से राग नहीं करते। फिर उन्हें किसलिए पूजते | नहीं हैं और वे वीतराग भगवान् किसी का उपकारहैं? किसलिए पूजना चाहिए? अपकार भी नहीं करते हैं, तथापि उनका नामस्मरण तथा उत्तर- गृहस्थ ने आरम्भ-परिग्रह धारण कर रखा | प्रतिबिम्ब का दर्शन अपने शुभ परिणाम, वीतरागरूप ध्यान है। उसका मन शुद्धात्मस्वरूप के अवलम्बन में तो लगता | होने को बाह्य निमित्त है। जिस प्रकार रागरूप स्त्री-पुरुषों नहीं है और बिना अवलम्बन के चित्त ठहरता नहीं है, के अचेतन चित्र आदि देखने से राग प्रगट हो जाता तब अपने परमात्मभाव के अवलम्बन के लिए, वीतरागता | है, उसी प्रकार वीतरागी का प्रतिबिम्ब भक्ति-पूर्वक देखने से परिणाम जोड़ने के लिए प्रतिमा में साक्षात् अरहन्त | से वीतरागता प्रगट हो जाती है। के स्वरूप का संकल्प करके ध्यान, स्तवन, पूजन करता इस संसार में जीवों को जो राग-द्वेष होता है, है। उस अरहन्त के स्वरूप में अपने परिणाम जोडने | वह समस्त केवल-अचेतन, स्वर्ण-चाँदी, मणि-माणिक्य, से, उस काल में समस्त सांसारिक संकल्प रुक जाते | महल, वन, बाग, नगर-ग्राम, पाषाण-कर्दम-श्मशान, मात्मस्वरूप का अनभव होता है। उस | मनुष्य-तिर्यंचों के शरीर, वचन-राग-रुदन, दुर्गन्धपरमात्मस्वरूप में एकाग्रता होने से सुख-ज्ञानरूप सम्पदा | सुगन्ध, रस-विरस इत्यादि समस्त अचेतन पुद्गल द्रव्यों में विघ्न करनेवाले अन्तराय-कर्म का अनुभाग रस सूख क विन्तवन, श्रवण, अवलोकन और अनुभवन से ही जाता है, तथा वीतरागभाव के प्रसाद से असातावेदनीय | होता है। से लेकर समस्त अशुभ प्रकृतियाँ जो पहिले बाँधी हुई | जैसे ये समस्त ही अचेतन पदार्थ आत्मा को रागसत्ता में बैठी थीं, उनका भी अनुभागरस नष्ट हो जाता द्वेष उत्पन्न कराने के सहकारी कारण हैं, वैसे ही जिनेन्द्र है। तथा जो पूर्व की बाँधी हुई पुण्य प्रकृतियाँ हैं, उनमें | की परमशान्तमुद्रा ज्ञानियों के वीतरागता होने में सहकारी अनुभागरस बढ़ जाता है। मन्द कषाय के प्रभाव से शुभ कारण है, प्रेरक नहीं। भव्यजीवों को वीतरागता के सिवाय आयुकर्म के सिवाय समस्त कर्म-प्रकृतियों की स्थिति | अन्य किसी की चाह होती नहीं है। घट जाती है। ऐसी भगवान् की आज्ञा सिद्धान्तग्रन्थों में | जो जिनेन्द्र की प्रतिमा के आगे थाली में जलप्रसिद्ध है। चन्दनादि अष्टद्रव्य महिमा गाकर चढ़ाते हैं, उनका ___मन्द कषाय के प्रभाव से पूर्व के बाँधे हुए शुभ अभिप्राय ऐसा नहीं है कि भगवान् यह द्रव्य खा लेवें कर्मों में रस बढ़ जाता है, तथा अशुभ कर्मों का रस | या उसकी वासना-स्वाद लेवें। उनका भाव तो ऐसा है सख जाता है, घट जाता है और आयकर्म को छोडकर कि जैसे किसी बड़े मण्डलेश्वर राजा का समागम मिलन समस्त कर्मप्रकृतियों की स्थिति घट जाती है। तीव्र कषाय हो, तब उनके ऊपर स्वर्ण-रतन मोती आदि बारकर, के प्रभाव से समस्त कर्मों की पाप प्रकृतियों में अनुभागरस फेरकर क्षेपण कर देते हैं, आरती उतारते हैं, बहुमान बढ़ जाता है, तथा पुण्य प्रकृतियों में रस घट जाता है| करते हुए उन पर अक्षत-पुष्पादि क्षेपण करते हैं। यह और तीन आयु को छोड़कर समस्त कर्मों की स्थिति | सब अपनी भक्ति है, राजा को इससे कुछ लेने-देने का बढ़ जाती है। प्रयोजन नहीं है। उसी प्रकार भव्य जीवों को भक्ति करते अरहन्त भगवान् के गुणों में अनुराग-लीनता ही| हुए त्रैलोक्यनाथ परम मंगलरूप परमेश्वर परमात्मस्वरूप अरहन्त भक्ति है। उसके प्रभाव से दुख की कारण पाप- | भगवान् अरहन्त के प्रतिबिम्ब-प्रतिमा को देखते समय अक्टूबर 2008 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524332
Book TitleJinabhashita 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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