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________________ है कि हे प्रभु! आपका यह सर्वोदय तीर्थ सबका कल्याण | परम्परा में उपास्य इसलिए नहीं हो सकते, क्योंकि वे । करनेवाला है- 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।' तो ऊँचे से ऊँचे भोग-विलास के प्रतीक रहे हैं, न जैनपरम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द के पर्याय | कि त्याग के, तब भला हमारी परम्परा भोग-विलासके रूप में 'क्षेत्र-मंगल' पारिभाषिक का प्रयोग भी होता | स्थल को तीर्थ के रूप में कैसे स्वीकारे? दुधर कछ रहा है. जिसका अर्थ है कि जिस क्षेत्र में जाने से अहंकार | लोग अब तीर्थंकर, भगवंतों के गर्भ व जन्म स्थलों का दंभ का मोह का. ममत्वबद्धि का गलन होता है. | को भी तीर्थ के रूप में स्थापित करने में जट गए समाप्ति होती है, क्षरण होता है, वह स्थान-विशेष 'क्षेत्र- | है, जा किसा मायन हैं, जो किसी मायने में हमारी त्याग की परम्परा का मंगल' कहलाता है। षट्खण्डागम में गुण-परिणत- | पोषण नहीं हैं, इससे हमें बचना चाहिए और हमारे आसनक्षेत्र अर्थात जहाँ पर अनेक विभतियों के द्वारा | समाज को इससे सावधान रहना चाहिए। इन उत्तरवर्ती योगासन, वीरासन आदि अनेक आसनों के माध्यम से | तीन कल्याणक-स्थलों में भी सबसे अधिक पुज्यता सिद्ध अनेक प्रकार के योगाभ्यास व जितेन्द्रियता आदि गुण | क्षेत्रों, मोक्ष-कल्याणक-स्थलों अर्थात् निर्वाण-भूमियों की प्राप्त किये गए हों. ऐसे क्षेत्र-विशेष-परिनिष्क्रमण-क्षेत्र | ही है, क्योंकि बंधन-मुक्ति के बिना संसार-सागर से पार केवलज्ञानोत्पत्ति-क्षेत्र और निर्वाण-क्षेत्र आदि को 'क्षेत्र- | उतरना संभव नहीं और वह पूरी तरह होता तब है. मंगल' कहते हैं, इसके उदाहरण ऊर्जयन्त, गिरनार, चंपा, जब मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसीलिए मुक्ति के स्थलपावा आदि नगर क्षेत्र हैं तीर्थों, सिद्ध-क्षेत्र-रूप तीर्थों को ही हमारी परम्परा में ___ तत्रक्षेत्र-मंगलगुणपरिणतासनपरिनिष्क्रमण-केवल सबसे अधिक पूजनीयता प्राप्त हुई। ज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाण-क्षेत्रादिः। तस्योदाहरणम्-ऊर्जयन्त इस उपर्युक्त चर्चा से तीर्थ के दो स्वरूप उभर चंपा पावानगरादिः। कर आते हैं- १. विचार तीर्थ का, २. स्थावरतीर्थ का। गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है कि विचारतीर्थ वह है, जो हमारी भाव-शुद्धि कराकर सीधे ऊर्जयन्त आदि महान् अरहंत आदिकों के दीक्षा और | मोक्ष तक ले जाता है, इसीलिए हमारी परम्परा में केवलज्ञान आदि की प्राप्ति के क्षेत्र-मंगल आदि स्थान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र रूपधर्म को भी आत्मगुणों की प्राप्ति के साधन हैं तीर्थ कहा गया, यही कारण है कि समंतभद्राचार्य ने "क्षेत्र-मंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनां निष्क्रमण- | तो सर्वोदयी जिनशासन को ही तीर्थ कह दिया। तीर्थंकर केवलज्ञानादिगुणोत्पत्तिस्थानम्।" के उत्तरवर्ती तीन कल्याणक-स्थलों को स्थावर तीर्थ के षटखण्डागम और गोम्मटसार आदि के क्षेत्र-मंगल | रूप में लिया जा सकता है। इधर कुछ स्थलों की मान्यता के संदर्भ में उक्त उल्लेखों को देखने से यह तथ्य उभरकर | किसी मंदिर या मूर्ति में चमत्कार के कारण भी हो आता है कि हमारी परम्परा में तीर्थंकर भगवान के पाँचों गई है, जो न निर्वाण-क्षेत्र हैं और न अन्य कल्याणक कल्याणकों में से गर्भ-कल्याणक व जन्म कल्याणक- क्षेत्र ही, ऐसे क्षेत्र अतिशय-क्षेत्र के रूप में माने जाते स्थलों की मान्यता क्षेत्र-मंगल के रूप में थी. इसीलिए | हैं, परन्तु यदि इन अतिशय-क्षेत्रों को भी तीर्थ माना जाए हमारे अधिकांश प्राचीन तीर्थ तीर्थंकर भगवंतों के इन्हीं | या मान लिया जाए, तो इनकी गणना भी स्थावर तीर्थ तीन कल्याणकों से संबद्ध हैं। कुछेक ऐसे तीर्थ भी | के रूप में ही की जाएँगी। मेरे दैहिक पिता अहिंसाहैं, जो तप, ज्ञान व मोक्ष कल्याणकों में से कुछ कल्याणकों | वाणी के संपादक श्री वीरेन्द्र प्रसाद जी जैन आचार्य के साथ-साथ गर्भ व जन्म कल्याणक-स्थल भी हैं। इस | श्री विद्यासागर जी को व उनके संघ को अपनी चर्चाओं पूरे तथ्य के पीछे विचार यही है कि चूँकि तप, ज्ञान | में जंगम, गतिमान तीर्थ कहते थे और उन्हें विचार-तीर्थ, ओर मोक्ष संसार-समुद्र से पार उतरने में सीधे कारक | व स्थावर-तीर्थ का संगम मानते थे, क्योंकि उनकी मान्यता हैं, इसलिए उनके स्थल ही हमारे यहाँ तीर्थ के रूप | थी कि आचार्य श्री का साधु-संघ निरंतर रत्नत्रय धर्म में प्रतिष्ठित हुए, अन्य कल्याणक स्थल उस रूप में | की साधना में रत रहता है, इसलिए वह विचार-तीर्थ नहीं। इतना ही नहीं गर्भ व जन्म तो प्रायः अधिकांश | तो है ही, पर चूँकि व्यक्ति साधु के रूप में उनकी । तीर्थंकर भगवंतों के राजप्रासादों में हुए हैं और वे जैन | भौतिक उपस्थिति भी है, इसलिए वे स्थावर-तीर्थ भी हैं। - अक्टूबर 2008 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524332
Book TitleJinabhashita 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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