Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्त्ता - सतीशचन्द्र जैन, किरावली । जिज्ञासा - तीर्थंकर की दिव्यध्वनि दिन में कितनी बार खिरती है ? समाधान- इस सम्बन्ध में आचार्यों के विभिन्न मत हैं। जैसे- १. तिलोयपण्णत्ति में इस प्रकार कहा हैपठादीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि । णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणयं ॥ ९०३ ॥ सेसेसु सम एसुं गणहर देविंदचक्कवट्टीणं । पहाणु रूपमत्यं दिव्वझुणी आ सत्त मंगीहि ॥ ९०४ ॥ अर्थ - भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्याकाल में ९ मुहूर्त तक निकलती है। (अर्थात् ९ मुहूर्त = १८ घड़ी = ६-६ घड़ी तीन बार ) और एक योजन पर्यंत जाती है। इससे अतिरिक्त गणधर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। २. श्री अनगारधर्मामृत पृष्ठ - ९ पर इस प्रकार कहा है पुव्वहे मज्झ अवरण्हे मज्झिमाए रत्तीए । छच्छघडियाणिग्गय दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थे ॥ अर्थ- यह दिव्यध्वनि प्रातः, मध्यान्ह, सायं और रात्रि के मध्य में छह-छह घड़ी तक अर्थात् एक बार में एक घण्टा ४४ मिनिट तक खिरती है, ऐसा आगम में कथन है। ३. श्रीशुभचन्द्र रचित 'अंगप्रज्ञप्ति' में इस प्रकार कहा हैतित्थयरस्स तिसंझे णाहस्स, सुभज्झिमाय रत्तीए । बारह सहासु मज्झे छग्घडिया, दिब्ब झुणि कालो ॥ ४१ ॥ होदि गणि चक्किमहवथ ण्हादो, अण्णदाबि दिब्बं झुणि। अर्थ- तीर्थंकर नाथ का बारह सभाओं में दिव्यध्वनि काल तीनों संध्या और अर्द्धरात्रि में छह-छह घड़ी का है। तथा गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र के प्रश्न से अन्य समय में भी दिव्यध्वनि हो जाती है। ४. गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा नं. ३५६-३६१ की टीका में भी उपर्युक्त प्रकार से ही, दिन में छहछह घड़ी चार बार होने का उल्लेख किया गया है। ५. श्री जयधवला पु. १ पृष्ठ १२६ पर इस प्रकार Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा कहा है 'वह दिव्यध्वनि सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक हैं, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं ( अनन्त पदार्थों का वर्णन है), जिसका शरीर बीज पदों से घड़ा गया है, जो प्रातः मध्याह्न और सायंकाल इन तीन संध्यायों में छह-छह घड़ी तक निरन्तर खिरती रहती है। और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधर देव संशय, विपयर्य, अनध्यवसाय को प्राप्त होने पर उनके संशय आदि को दूर करने का जिसका स्वभाव संकर ओर व्यतिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और अध्ययनों के द्वारा धर्मकथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार स्वभाववाली दिव्यध्वनि समझनी चाहिए ।' उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार विभिन्न आचार्य दिव्यध्वनि का काल छह-छह घड़ी चार बार तथा छहछह घड़ी तीन बार, इस प्रकार निरूपण करते हैं। जिज्ञासा - भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर २४ जिनालय बनवाये थे या ७२ बनवाये थे ? समाधान- इस संबंध में निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं१. उत्तरपुराण सर्ग - ४८ में इसप्रकार कहा है राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं कैलासे भरतेशिना । गृहाः कृता महारनैश्चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ १०७॥ तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम् । इति तेऽपि तथा कुर्वन् दण्डरत्नेन सत्वरम् ॥ १०८ ॥ अर्थ- तब राजा ने आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलास पर्वत पर महारत्नों सें अरहन्त देव के चौबीस मंदिर बनवाये हैं, सो तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को उन मंदिरों की परिखा बना दो। उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया। २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा पृष्ठ २४७ पर परिग्रहपरिमाण व्रत में प्रसिद्ध जयकुमार की कथा में इसप्रकार कहा है 'एक बार जयकुमार और सुलोचना कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा स्थापित २४ जिनालयों की वन्दना करने के लिए गये। ' ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोक नं. ६४ की अक्टूबर 2008 जिनभाषित 27 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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