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हैं।
टीका करते हुए पं० सदासुखदास जी ने कैलाश पर्वत । है कि इसका काल अन्तमुहूत होने से इस सम्यक्त्व पर २४ जिनालयों का उल्लेख किया है।
में सोलहकारण भावना नहीं भा सकते। अतः इस सम्यइस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार भरत | क्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता ऐसा किसी चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर २४ जिनालय बनवाये थे। का अभिप्राय हो यही विचार करके पृथक् कहा।' इस ७२ जिनालय बनवाने के निम्न प्रमाण भी उपलब्ध होते प्रकार किन्हीं आचार्यों ने कहा है।
इससे स्पष्ट होता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के १. भरतेश वैभव भाग-३, पृष्ठ-१०२ पर इस प्रकार | काल में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध होने के सम्बन्ध में कहा है- 'कैलाश पर्वत पर सम्राट की आज्ञानुसार ७२ | एक मत नहीं है। जिनमन्दिरों का निर्माण हुआ।'
जिज्ञासा- अपहृत संयम और उपेक्षा संयम में २. ब्र० लामचीदास द्वारा लिखित 'कैलाशयात्रा का क्या अंतर है? वर्णन' की पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार समाधान- कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा-३९९ की टीका लगभग २५० वर्ष पूर्व, वे एक व्यंतर देव के द्वारा कैलाश में इसप्रकार कहा है- 'संयम के दो भेद हैं- उपेक्षा पर्वत पर ले जाये गये थे और उन्होंने स्वयं अपनी आँखों संयम और अपहृत संयम। उनमें तीन ग से भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाये गये स्वर्ण और रत्नमयी | मुनि कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो रागद्वेष का त्याग ७२ जिनालयों का साक्षात् दर्शन किया था।
करता है, उसके उपेक्षा संयम होता है। उपेक्षा का मतलब ३. प० भूधरदास जी ने 'चर्चा समाधान' पृष्ठ- | उदासीनता अथवा वीतरागता है।' १०८ पर लिखा है कि भरत जी ने कैलाश पर्वत पर अपहृत संयम के तीन भेद हैंएक चैत्यालय कराया है, जिसके सम्बन्ध में 'तीणी १. अपने उठने-बैठने के स्थान में यदि किसी चउवीसीय भरहणिमावियं' यह पाठ मिलता है, जिसका | जीव-जन्तु को बाधा पहुँचती हो, तो वहाँ से स्वयं हट .. अर्थ यह है कि महाराजा भरत के जिनालय में तीन | जाना उत्कृष्ट अपहतसंयम है।। चौबीसी के ७२ जिनबिम्ब कहे हैं।
२. कोमल मयूर पिच्छिका से उस जीव को हटा पाठकों को उपर्युक्त संदर्भो पर विचार करना उचित | दे, तो मध्यम अपहृत संयम है।
३. लाठी तिनके वगैरह से उस जीव को हटाये. प्रश्नकर्ता- मोहनलाल जैन धूलियागंज, आगरा। | तो जघन्य अपहत संयम है।
जिज्ञासा- उपशम सम्यक्त्व के काल में तीर्थंकर अपहृतसंयमी मुनि को पाँच समितियों का पालन प्रकृति का बन्ध होता है या नहीं?
करना ही होता है। समाधान- इस प्रश्न के उत्तर में गोम्मटसार जिज्ञासा- क्या कृष्ण लेश्या के साथ तीर्थंकरप्रकृति कर्मकाण्ड में इसप्रकार कहा है
का बंध संभव है या नहीं? पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। समाधान- श्री धवला पु.८, पृष्ठ ३३२ पर इस तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते॥ ९३॥ | प्रकार कहा है
अर्थ- प्रथमोपशम अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व "तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयरमें तथा क्षायोपशमिक या क्षायिकसम्यक्त्व में असंयत से | संतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। --- तित्थयरअप्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त मनुष्य ही तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध संतकम्मियमिच्छाइटठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माका प्रारम्भ केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में करते | इट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा
ण णीलकिण्ह-लेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि।" उपर्युक्त गाथा के अर्थ के अनुसार प्रथमोपशम प्रश्न- (कृष्ण, नील लेश्या में इसका बंध क्यों सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का उल्लेख है, संभव नहीं है)। उत्तर- नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रक परन्तु इस गाथा के विशेषार्थ में कहा गया है, 'यहाँ पर | में तीर्थंकरप्रकृति के सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पृथक् करने का कारण यह | का अभाव है। अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले
है।
28 अक्टूबर 2008 जिनभाषित
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