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तीर्थ की संकल्पना और उनका विकास
प्रो. वृषभ प्रसाद जैन "तीर्थ" शब्द संस्कृत की 'तृ' प्लवनतरणयोः धातु । आते हैं। इसके पीछे उनका भाव रहता है कि तीर्थक्षेत्र से बना है, जिसका अर्थ निकलता है कि जो डूबकर, की वंदना से पुण्य संचय होता है, पुण्य-संचय से व्यक्ति डुबकी लगवाकर पार उतारने का काम करता है, तीर्थ | सत्कर्म में प्रवृत्त होता है और सत्कर्म धर्माराधना का कहलाता है, इसीलिए जहाँ लोग तैरते हैं, जहाँ लोग | कारण बनता है, तथा धर्माराधना मुक्ति की साक्षात् कारक तारे जाते हैं, जहाँ से लोग भव-समुद्र से तरते हैं, वे | है ही। इसी अद्भुत भाव के कारण ही असमर्थ वृद्धजन, स्थान-विशेष तीर्थ कहलाते हैं, इसीलिए तीर्थ तरण-स्थल | महिलाएँ आदि भी पैदल कई किलोमीटर की सीधी होने के साथ-साथ तारण (पार उतारनेवाले) स्थल भी | चढ़ाईवाले पहाड़ पर भी प्रभु का स्मरण करते हुए बड़ी होते हैं। भारतीय संस्कृति के पोषक प्रायः सभी धर्मों | आसानी से चढ़ जाते हैं, उन्हें तनिक भी शारीरिक कष्ट में तीर्थों की मान्यता है। हर धर्म, सम्प्रदाय के अपने | का अनुभव नहीं होता, जब कि रोग-व्याधि की पीड़ा तीर्थ हैं, जो उनके किसी महापुरुष अथवा किसी महत्त्वपूर्ण | के कारण अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वे कराहते रहते घटना के स्मारक के रूप में जाने जाते हैं। यही कारण | हैं। इसीलिए जैनपरम्परा के ग्रन्थ 'समाधिशतक' में भी है कि प्रत्येक धर्म के धर्मानुयायी तीर्थों की यात्रा और | संसार-समुद्र से तरन तारण करानेवाले, पार उतारनेवाले वंदना के लिए बड़े तन्मय होकर बड़ी श्रद्धा, आस्था | को तीर्थ कहा गया-"संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात् तीर्थम्।" व भक्ति-भाव से जाते हैं और आत्मशांति की प्राप्ति | आचार्य जिनसेन ने भी अपने आदिपुराण में लिखा है के लिए तत्पर रहते हैं, इसीलिए तीर्थ-स्थान शांति, कल्याण | कि जो इस भव-सागर से पार करे. वही तीर्थ है. ऐसा व पुरुषार्थ-चतष्टय की परम प्राप्ति के धाम माने जाते | तीर्थ जिनेन्द्र देव का चरित्र ही हो सकता है तथा उस : हैं, इसके साथ ही साथ उनकी मान्यता पवित्र-स्थल के | चरित्र के कथन करने को ही तीर्थ-संकथा कहा जाता रूप में भी है, भले, कुछ लोगों ने अब उन्हें पूरी तरह | हैपवित्र-स्थल न भी रहने दिया हो। इन पवित्र-स्थलों में संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते। पवित्रता दो अर्थों में समाहित होती है- १. ये स्वयं पवित्र चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिः तीर्थसंकथा॥ होते हैं। २. जो इनके संपर्क में आता है, उसे पवित्र
बात इतनी ही नहीं आचार्य जिनसेन ने तो धवलाकार कर देते हैं, इसीलिए पवित्र होने के भाव से भी लोग | की मान्यता को आगे बढ़ाते हुए मुक्ति के उपायभूत यहाँ आते-जाते हैं। यही कारण है कि तीर्थ का एक | सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र को ही तीर्थ के काम पवित्रीकरण भी है। इसीलिए जब कोई यात्री तीर्थ | रूप में प्रस्तुत किया है, क्योंकि वे ही तीनों मिलकर के लिए जाता था. जाता है या जब तीर्थ से लौटकर | मोक्षमार्ग बनते हैं व मुक्ति के साक्षात् साधन के रूप आता था, आता है, तो गाँव देहात, आस-पड़ोस, नाते- | में प्रस्तुत होते हैं, यथारिश्तेदारी आदि के लोग, उससे मिलने के लिए आते 'मुक्त्युपायो भवेत्तीर्थम्।' आदिपुराण २/३९ थे, आते हैं, ऐसी परम्परा है, क्योंकि उन्हें लगता है __धवलाकार कहते हैं कि धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, कि उनके मनोभाव तीर्थ-कथा सुनने से व उसके सम्पर्क | सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र है, चूँकि इनसे संसार-सागर से कुछ अंशों में पवित्र जरूर हो जाएंगे। इस भेंट में | से तरते हैं, इसलिए इन्हें तीर्थ कहा गया है। धवलाकार व्यक्ति-सम्पर्क की बात नहीं है, बल्कि परम्परया तीर्थ- | के ही शब्दों मेंसम्पर्क की बात है, जिसके पीछे वही पवित्रीकरण का
धम्मोणाम सम्मइंसण-णाण-चरित्ताणि। एदेहिभाव है।
संसार-सायरं तरंति त्ति। एदाणि तित्थं । जैनधर्म में भी तीर्थ का बड़ा महत्त्व है, इसीलिए
८,३,४२,९२,७ जैन धर्मानुयायी भी बड़े भक्तिभाव से प्रायः प्रतिवर्ष किसी आचार्य समंतभद्र ने अपने युक्त्यनुशासन ग्रन्थ में न किसी तीर्थ की वंदना, अर्चना करने के लिए जाते- | तीर्थ को सबका कल्याण करनेवाला माना है और लिखा
16 अक्टूबर 2008 जिनभाषित .
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