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तीर्थों का विकास, पुनरुद्धार व समृद्धि हमारी | कि शायद इस ओर यत्न हो। इधर हमारे तीर्थों की वैयक्तिक, सामाजिक व पारमार्थिक जरूरत है, पर उनका | पहचान पर भी निरंतर हमले होने लगे हैं और ये हमले विकास करते समय हमें इस बात का निरंतर ध्यान रखना | बाहरवालों के द्वारा ही नहीं हो रहे हैं, बल्कि हमारे चाहिए कि हमारे तीर्थ केवल स्थावर-क्षेत्र ही नहीं रहे | अपने भीतर के लोगों के द्वारा भी होने लगे हैं, मुझे हैं. बल्कि उनमें स्थापित मंदिर व उनमें स्थापित जिनबिम्ब | तो लगता है कि ये जो हमारे अपने लोग इन हमलों व उनका परिकर ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं और कलाओं | में शरीक हो रहे हैं, वे वैचारिक रूप में अब नियंत्रित के केन्द्र के रूप में भी रहा है और वे विचार-शुद्धि, कहीं और से हो रहे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा भाव-शुद्धि के परम केन्द्र भी रहे हैं। यदि यह कहा है कि हमारे तीर्थों की पहचानें अब धूमिल पड़ने लगीं जाए कि उन तीर्थों पर रहनेवाले प्रायः सभी परम साधकों | हैं। मैं अभी कुछ वर्ष पहले एक तीर्थ पर गया, वहाँ का चरम लक्ष्य वही विचार-शुद्धि या भाव-शुद्धि रहा | रात-भर रुका, रात में जागरण के नाम पर रतजगा हुआ है, तो कोई अत्यक्ति नहीं होगी, क्योंकि उसी की चरम और उस रतजगा में पद्मावती की उपासना के नाम प्राप्ति ही तो मोक्ष है। हम आज जो तीर्थों का विकास | पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर भीतर तक हिल गया कर रहे हैं, उसमें स्थावर रूप-विशेष का तो पोषण हो | और उससे कहीं नहीं लगा कि ये दुर्गा की उपासना रहा है, पर ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं कलाओं व विचारकेन्द्र | पर होनेवाले जागरण से थोड़ा भी कहीं से अलग है, का पोषण लगभग नगण्य है, जब कि लक्ष्य उस पर | बल्कि लगा तो यह कि यह उसकी भौंड़ी नकल भर ही रखकर स्थावर का विकास होना चाहिए। हाँ, कुछेक | है। हमारी भजन-आरती की जो पद्धति थी, वह उस तीर्थों पर जहाँ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज स्वयं रतजगा में पूरी तरह गायब थी। इतना ही नहीं, नृत्य या उनके संघ के दीक्षित साधु विराजते हैं, वहाँ भाव- का जो ढंग था, उससे ऐसा लग रहा था कि जैसे कुछ शद्धि की साक्षात कारक विचार-चर्चाएँ शास्त्र-पारायण शराबी मदहोश होकर झूम रहे हों, कहीं से नहीं लग के माध्यम से होती हैं. अन्यथा अधिकांश तीर्थक्षेत्र बौद्धिक रहा था कि यह हमारा भाव-प्रधान पारंपरिक नृत्य है। चर्चा या गतिशील बौद्धिक चेतना से लगभग शुन्य हमारे अपनी तरह के होनेवाले दौलतराम, द्यानतराय आदि समुचित शास्त्र भण्डार तक नहीं है, उन शास्त्रों के पढ़ने, | के आरती-भजनों का होना और उनका रचा जाना भी पढ़ानेवालों की बात क्या की जाए? ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं| अब लगभग हमारे तीर्थों व मंदिरों पर बंद-सा हो गया कलाओं, बौद्धिक चेतना या बौद्धिक चर्चा को समाहित है। यह बहुत घातक है। तीर्थ हमारी पहचान के प्रतीक करते हुए तीर्थों के पोषण के लिए हमने कोई विकास हैं, इसलिए उन पर होनेवाली हर गतिविधि हमारी अपनी की रूपरेखा भी अभी तक तय नहीं की है, जबकि | पहचान को समृद्ध करनेवाली होनी चाहिए, इसके लिए वह शायद तीर्थों के स्थावर विकास से कहीं ज्यादा जरूरी | हमें सजग रहना पडेगा, यदि हमने ऐसा नहीं किया और है। हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए और इसकी | समय रहते नहीं चेते, तो सच मानिए कि हम ऐसी जगह सुदीर्घ योजना भी बनानी चाहिए, तभी सही मायने में | पहुँचेंगे, जहाँ से कोई राह हमें अपने घर लौटने की तीर्थों का समुचित विकास होगा, हो सकेगा। उम्मीद है । न मिलेगी, जिससे हमें बचना चाहिए।
'विद्वद्विमर्श' से साभार
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाम्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥ जिसमें शास्त्र समझने की बुद्धि ही नहीं है, शास्त्र उसका क्या कर सकते हैं? जिस मुनष्य की आँखें ही नहीं हैं, दर्पण उसका क्या कर सकता है?
निर्विषेणापि सर्पण कर्त्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न वाप्यस्तु फणाटोपो भयङ्करः॥ आत्मरक्षा के लिए विषहीन सर्प को भी अपना फन फैलाना चाहिए। विष हो, चाहे न हो, फन का फैलना मात्र भयंकर होता है।
18 अक्टूबर 2008 जिनभाषित -
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