Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ शंका- यदि सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा | कड़ी में निर्जरा में असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा की भी अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है, तो | चर्चा सामान्य जीवों के बीच में करें, सभी जीवों को सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग | यह समझ में आये, तो लोग अवश्य ही व्रतों की ओर आता है? अग्रसर होंगे, व्रतीजीवन अंगीकार करके गुण श्रेणी निर्जरा समाधान- ऐसा पूछने पर उत्तर में कहते हैं कि | के माध्यम से अपने अनन्तों कर्मों के बोझ को वर्तमान सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं | पर्याय में बड़े ही सहज ढंग से हलका करने में सक्षम आ सकता है, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वस्वरूप परिणामों | हो सकेंगे। जब तक व्रती जीवन अंगीकार नहीं भी कर के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार | सकेंगे, तब तक अपने परिणामों द्वारा उस पद को पाने की गई है। की भावना, अपने कर्मों को निरन्तर खिराने की भावना इस प्रसंग पर धवला जी की 12वीं पुस्तक के | को बलवती बनाते हुये अपने विकास के मार्ग को गति पृष्ठ 78 गाथा नं. 7-8 तथा सूत्र क्रमांक 175 से 185 / देंगे, ऐसा मेरा मानना है। अवलोकन करने योग्य हैं। सन्दर्भ-ग्रन्थसूची उपसंहार- असंख्यात-गुणश्रेणी-निर्जरा का अवलोकन | 1. सर्वार्थसिद्धि-संस्कृत टीका आचार्य पूज्यपाद हिन्दी पश्चात् दृष्टि में यह बार-बार आता है कि टीका पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । जीव भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपनी भूमिका, पात्रता अनुसार | 2. तत्त्वार्थवार्तिक-अकलंकदेव, प्रकाशक भारतीय ज्ञानहर अगले स्थान पर पिछले स्थान की अपेक्षा असंख्यात पीठ दिल्ली। गुणी, असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं, तो कर्म बाँधे | 3. तत्त्वार्थवृत्ति-भास्करनन्दी टीका अनु. आर्यिका जिनमती, कितने थे? पिछली अनेक पर्यायों में संग्रह के रूप इकट्टे | प्रकाशक पांचूलाल जैन किशनगढ। होते गये ये कर्म तो मेरु के समान से जान पड़ते हैं | 4. तत्त्वार्थवृत्ति-श्रुतसागरीय टीका, भारतीय ज्ञानपीठ और इतने कर्मों का बोझा लेकर जीव बिना गुणश्रेणी प्रकाशन। निर्जरा करे ऊपर आ ही नहीं सकता। बाँधते समय तो | 5. जैन तत्त्व विद्या-पू. प्रमाणसागर जी, भारतीय ज्ञानपीठ न होश था न ज्ञान, लेकिन निर्जरा के समय का प्रकरण प्रकाशन। देखकर आँखें चौधियाँ जाती हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-संस्कृत टीका. आचार्य विद्यानन्दि, उसमें भी एक विशेषता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि | प्रकाशन गांधी रंगानाथ जैन ग्रंथमाला, मुम्बई। जीव की निर्जरा तो मात्र सम्यक्त्वप्राप्ति के काल में होती | 7. तत्त्वार्थसूत्र-पं० फूलचन्द्र शास्त्री प्रकाशन । है, जबकि व्रती श्रावक, मुनिराज की गुणश्रेणी निर्जरा | 8. तत्त्वार्थसूत्र-पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन भारतवर्षीय पूरे जीवनकाल में निरन्तर हर पिछले समय की अपेक्षा जैन संघ, चौरासी मथुरा । अगले समयों में असंख्यात गुणी होती जाती है। अपने | 9. तत्त्वार्थसूत्र सरलार्थ-भागचन्द्र जैन इन्दु, गुलगंज, जीवनकाल में देशव्रती, महाव्रती कितनी निर्जरा कर लेते प्रकाशन जबलपुर। हैं इसका आकलन अवश्य करना चाहिये। | 10. षट्खण्डागम परिशीलन-पं० बालचन्द्र शास्त्री, भारतीय मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सभी सुधी पाठक, ज्ञानपीठ प्रकाशन। विद्वान् प्रवचनकार जो अपने विचारों, लेखों, प्रवचनों के | 11. षट्खण्डागम धवला पुस्तक 12, प्रकाशन सिताबराय माध्यम से जीवों के कल्याणमार्ग को प्रशस्त कर रहे लखमीचन्द विदिशा। हैं, उनसे मेरा अनुरोध है कि हम आस्रव-बंध की चर्चा (तत्त्वार्थसूत्र-निकष से साभार) के साथ संवर की चर्चा भी बहुत करते हैं, किन्तु इसी मन तीरथ कैसे बने, तन की है जब भूख। धर्म बिना है आदमी, जैसे सूखा रूख॥ योगेन्द्र 'दिवाकर', सतना, म.प्र. - अक्टूबर 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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