Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ प्राप्त करके उपशामक बनते हैं, तो पूर्ववर्ती अवस्था से। हैं, उस समय अपनी पात्रतानुसार निर्जरा करते हैं। उदाहरण 1 11वें गुणस्थान में होनेवाली निर्जरा असंख्यात गुनी है। के लिये कोई अविरत सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यग्दर्शन वे ही मुनिराज जब क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं, तो 11वें | प्राप्त करने की भूमिका में जिस समय होगा, उस भूमिका गुणस्थान की अपेक्षा उन्हीं मुनि महाराज की निर्जरा 8 | में 5 वें क्रम में कही गई निर्जरा करेंगे, लेकिन सिर्फ से 10 गुणस्थानों में असंख्यात गुनी है। पुनः वे ही महाव्रती | क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के काल में, शेष जीवन अव्रती 12 वें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह हो जाते हैं, तो उनकी निर्जरा | हैं तो नहीं करेंगे। श्रेणी पर आरूढ़ अवस्था से असंख्यात गुणी है। तथा विशेष विचारणीय बिन्दु- सूत्र 9145 में जो 10/ वही मुनिराज जब केवलज्ञान प्राप्त कर अरिहन्त भगवान् | 11 स्थान कहे गये हैं, उनमें चौथे नम्बर पर अनन्तानुबन्धी हो जाते हैं, तो उनकी निर्जरा क्षीणमोह अवस्था से | की विसंयोजना करनेवाले एवं पाँचवें स्थान पर दर्शनअसंख्यातगुणी है। इस प्रकार इन 10 स्थानों पर निर्जरा | मोहनीय की क्षपणा करनेवाले पात्र को लिया गया है। का क्रम दर्शाया है। जहाँ पर 11 स्थान बताये हैं, वहाँ | वहाँ प्रश्न होता है कि ये पात्र कौन-से गुणस्थानवर्ती अरिहन्त भगवान् अवस्था से भी ज्यादा निर्जरा जब वे लेवें? क्या वहाँ पर चौथे गुणस्थानवर्ती-पाँचवें गुणकेवली समुद्घात करते हैं, तो केवली अवस्था से भी | स्थानवी जीव भी हो सकते हैं, अथवा मुनि की अपेक्षा असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। यहाँ पर जो उदाहरण | से कथन है? यह विचारणीय है। क्या वहाँ वह अविरत लिया गया है वह एक जीव को लेकर है। उसी जीव सम्यग्दृष्टि-वियोजक एवं अविरतक्षायिक सम्यग्दृष्टि, मुनि की अनेक अवस्थाओं के आधार पर लिया गया है। महाराज की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं? इस धवला पुस्तक 12 में अध:प्रवृत्त केवलीसंयत और सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के सन्दर्भो को हम यहाँ योगनिरोध केवलीसंयत ऐसा लिया है। प्रस्तुत करते हैं, जिसके द्वारा इस विषय पर प्रकाश पड़ता कौन-कौन से पात्र कब-कब करते हैं- इस | है। अलग-अलग आचार्यों में से बहत से आचार्यों का सम्बन्ध में विचार करते हैं कि पात्रों के अनुसार असंख्यात- | अभिमत एक जैसा है, किन्तु धवलाकार का मत भिन्न गुणश्रेणी निर्जरा कितने समय तक होती है- | दिखाई पड़ता है अतः हमें दोनों मत स्वीकार करने योग्य 1. अविरत सम्यग्दृष्टि-सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति के | हैं। समय गुणश्रेणी निर्जरा करते हैं, तथा किससे असंसख्यात- धवला जी में बहुत स्पष्ट शंका और उसका गुणी सो आचार्य कहते हैं कि सातिशय मिथ्यादृष्टिपने | समाधान करते हुये आचार्य वीरसेन स्वामी ने अनन्तानुमें जो निर्जरा हो रही थी, उससे असंख्यात गुणी करते | बन्धी वियोजक से असंयत-सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि यदि आगे नहीं बढ़ता, व्रतादि | संयत को ग्रहण किया है तथा वहाँ पर अनन्तानुबन्धी स्वीकार नहीं करता तो उसके जीवन में फिर नहीं होती | वियोजक की विसंयोजना के काल में विशुद्धि अनन्तगुणी सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति काल में ही होती है। है। फलस्वरूप वहाँ पर मुनि (संयत) से भी ज्यादा 2. व्रती श्रावक अपनी भूमिका में रहते हुये अविरत- | निर्जरा अनन्तानुबन्धी-वियोजक करता है। यद्यपि दर्शनसम्यग्दृष्टि अवस्था से असंख्यात गुणी करते हैं। यहाँ | मोहनीय की क्षपणा के सम्बन्ध में खुलासा नहीं किया, विशेषता है कि पाँचवाँ गुणस्थान जब तक बना रहेगा, | किन्तु सूत्रक्रम में पात्रक्रम से और पूर्व सूत्र के खुलासा तब तक निरन्तर असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करते रहेंगे। से हम दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवालों की गुणश्रेणी 3. मुनि महाराज महाव्रती भी अपने योग्य गणु- | निर्जरा में भी असंयत, संयतासंयत और संयत को ग्रहण स्थानों में पूरे समय तक निरन्तर गुणश्रेणी निर्जरा करते | कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ एवं धवला जी का 4. अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले मात्र | मन्तव्य का अवलोकन संक्षिप्त में करते हैंविसंयोजना के काल में करते हैं। 6. उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर 5. दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले जीव भी, | उपशामक, क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती सभी जीव अन्तर्मुहूर्त जिस समय क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति का उपाय करते | तक निरन्तर अपनी पात्रता-अनुसार निर्जरा करते हैं, यह अक्टूबर 2008 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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