Book Title: Jinabhashita 2008 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ प्रकार आजकल के वक्ता भी (असंयमी व्यक्ति) माहौल । करण्डकश्रावकाचार के अंत में लिखा हैको देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। वह | येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्। व्यक्ति तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता, नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।। वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। यह कारिका कितनी अच्छी लगती है ! रत्न कहाँ इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ...! तो उसमें रहती है। मेरे ऊपर तुमने घूघट लाया है, मैं घुघूट में | बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी जीनेवाली नहीं हूँ। मैं तो जन-जन तक पहुँचकर अपना | होती है जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता संदेश देनेवाली हूँ। लेकिन, आजकल कुछ पंक्तियाँ तो | है। उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है, और अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियाँ अण्डर | उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या ग्राउण्ड की जाती हैं। यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य | हरा, उस हीरे के विपरीत रंगवाला ही होता है, वह का प्रदर्शन है? नहीं यह इसलिये हो रहा है कि आज | मखमल का कपड़ा है और उ परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है।। हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के यह हुई रत्नों की बात, लेकिन श्रावकाचार किसमें लिए स्थान नहीं बचा। रखा गया है, रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान नौजवानो! उठो !! जागो !! यदि अपना हित चाहते | देने योग्य है कि रत्न-करण्डक का कई भाषाओं में हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने | अनुवाद हुआ लेकिन, 'रत्नकरण्डक' इस शब्द का बाप-दादाओं के आदर्शों को सुरक्षित रखना चाहते हो, | अनुवाद नहीं हुआ। क्या मतलब? मतलब यह है कि तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना।| हिन्दी में इसका अर्थ है 'रयण मंजूषा' रयण का अर्थ यहाँ पर लोभ का सरलीकरण है, यहाँ पर त्याग का | है रत्न, मंजूषा यानि पेटी, सन्दूकची। रत्न जैसे संदूकची . अंगीकरण है। यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है। में रखे होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा नहीं है। आप लोग सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक' कहते हैं अर्थ, तो हाथ का मैल है यूँ-यूँ करने से वह | में रखा है। निकल जाता है (हाथ मलते हये) पुण्य की वह छाया | आचार्य कहते हैं, ये बडी अनमोल निधि है। जो है। पुण्य का उदय हुआ, तो वह आ जाता है और कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने कहा पाप का उदय हुआ, तो वह चला जाता है। आप धार्मिक | है किअनुष्ठान करने के लिये महापुरुष अहर्निश प्रयास करते | इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी। रहते हैं। उस सत्य की झलक पाने के लिये वे अपनी जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई, तो पुन: मिलने आँखें बिल्कुल खोल कर रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द | वाली नहीं है, ऐसी ही मनुष्य जीवन की कीमत है। देव प्रवचनसार में कहते हैं इने -गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं। तीन 'आगमचक्खू होंति साहूणं' । कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं, जो मूलाचार के अनुसार आगम ही साध की आँख है। साधओं की आँख | चलनेवाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है, न तो धन-दौलत है. और न ही ख्याति. पजा, लाभ. लेकिन मनुष्यों में नहीं। अब सोचिये बहत कम संख्या मंजिल तक पहुँचानेवाली आगम की आँख ही है। उस है। अनंतानंत जीवों में से श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ आँख को बहत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिये।। ही जीवों को होता है, जो कि आप लोगों को उपलब्ध उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जायेगा, तो है। ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ। दृश्यमान पदार्थों की जिनवाणी उस समय पिट जायेगी। जिनवाणी का मूल्यांकन कोई कीमत नहीं है, हमें भी दृश्यमान पदार्थों की कीमत समाप्त हो जायेगा। बन्धुओ! यह वह रत्न है, जिसको | नहीं करना, द्रष्टा की कीमत आंकना है। आज हम दृश्य हम कहाँ रख सकते हैं देखो! समन्तभद्र स्वामी ने जो | के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं। यह कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्न- | अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है। हम ज्ञाता, द्रष्टा, 10 सितम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36